अनन्त मित्तल-
किसानों के इशारे पर देश के अनेक विपक्षी दल भारत बंद में लगे हैं। सवाल ये है कि हम उनके साथ हैं या नहीं? बिल्कुल सौ फीसद किसानों के कॉज के समर्थक हैं हम। अब सवाल यह है कि आज उनके साथ खड़े नेता और दल क्या कल सत्तारूढ़ होने पर बीजेपी सरकार की तरह निजीकरण रोक देंगे? क्या महात्मा गांधी का ग्राम स्वराज अपना कर अर्थव्यवस्था को गांवों से पुष्पित—पल्लवित करते हुए केंद्र तक लाएंगे? ऐसी गुंजाइश तो नहीं लगती क्योंकि आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण तो बुढ़िया कांग्रेस ही गांधी की पार्टी होने के बावजूद इस देश में लाई है! और दूसरी बुढ़िया आरएसएस का राजनीतिक मुखौटा बीजेपी उसे तेजी से लागू कर रही है। इसलिए किसान के साथ हम हैं मगर राजनीतिक दलों के इस ढकोसले से दूर हैं।
डा मनमोहन सिंह ने उदारीकरण के बाद जब पहली बार देश की उचित दर दुकान वाली राशन प्रणाली पर चोट की थी तो अपने मैगजीन एडिटर मंगलेश डबराल के आग्रह पर रविवारी जनसत्ता में पहला लेख मैंने ही लिखा था कि इस प्रणाली ने कैसे इस लुटे—पिटे देश में मध्यवर्ग खड़ा किया और कम से कम आधी शताब्दि तो उसे जारी रखना होगा वरना निम्न मध्यम वर्ग सहित गरीब भूखे मरेंगे। मंगलेश जी ही नहीं प्रभाष जी और प्रोफेसर मधु दंडवते ने भी शाबाशी दी थी। बाद में ओडिशा में भूख से आदिवासियों की मौत होने पर सुप्रीम कोर्ट ने नरसिंह राव सरकार को डांट पिलाई और कम से कम चूहों के पेट में जाने वाले एफसीआई के गोदामों में बिखरे अनाज को गरीबी रेखा से नीचे जी रहे लोगों में बांटने का आदेश दिया। बीपीएल राशन प्रणाली उसी आदेश का परिणाम है।
यह किसान आंदोलन 1988 में राजधानी दिल्ली में बोट क्लब पर टिकैत की अगुआई वाले किसान जमावड़े की भी याद दिला रहा है। तब पूरे पौने तीन दिन उसी मोर्चे में किसानों के हाथ के टिक्कड़, गुड़ के साथ खाकर और छाछ पीकर रिपोर्टिंग की थी। हर दो घंटे पर जनसत्ता से श्याम ड्राइवर हमारी लिखी रिपोर्ट के रूप में अपडेट लेने आते थे। देर रात नींद नहीं रूकने पर किसानों की गुदड़ी में ही छुपकर सो जाते थे। सुबह उन्हीं की दी हुई दातुन करते थे। तब प्रचंड बहुमत और कथित अनुभवहीनता के बावजूद प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपने युवा मंत्री राजेश पायलट को टिकैत से बात के लिए मुकर्रर किया। लेकिन दो दिन बीतने पर भी टिकैत की जिद नहीं टूटी तो उसे तोड़ने के लिए रात में पुलिस से किसानों की तगड़ी घेराबंदी और आंसू गैस बाजी भी करवा दी।
मेरे साथ दैनिक जागरण संवाददाता दिलीप भटनागर भी थे। हम दोनों खड़े पुलिस की तैयारी का जायजा लेते हुए पुलिस के डीसीपी शायद रामकृष्णन से बात करने की कोशिश कर रहे थे ताकि दफ्तर को अपडेट कर सकें। तभी डीसीपी ने हम दोनों की गर्दन पकड़ कर झुका दी और मेरे कान के पास से आंसू गैस का गोला झन्नाटे से आगे निकल गया। उन्होंने ही बताया था कि आंसू गैस को बेअसर करने का सादा सा उपाय गीला रूमाल है। पानी को आंखों पर फेरते ही आंसू गैस की जलन बेअसर हो जाती है। यह फार्मूला रिपोर्टिंग में अगले बारह साल खूब काम आया। बहरहाल जितनी फुर्ती से पुलिस कार्रवाई शुरू हुई थी वैसे ही अचानक रूक भी गई और किसान खुद को संभालने में लग गए। मैंने और दिलीप ने सड़क की बत्ती में झटपट अपना डिस्पैच लिखा और अपने-अपने दफ्तर भिजवा दिया।
अगले दिन टिकैत अचानक दोपहर में गायब हो गए और शाम में जब लौटे तो ट्रैक्टर पर बैठे-बैठे ही उन्होंने धरना समेटने का फरमान सुनाया तथा सिसौली की ओर रवाना हो गए। बमुश्किल पौन घंटे में हजारों किसानों का पौन तीन दिन लंबा मेला सिमट गया और अपने-अपने ट्रैक्टरों पर सब रफूचक्कर हो गए। पीछे छूट गया बोट क्लब का खाली मैदान, रौंदी हुई घास और खूब सारा कचरा। टिकैत ने तब बोट क्लब पे ही हल चला देने जैसे अनेक लोक लुभावन बयान दिए जिन्हें तब विपक्ष की प्रमुख आवाज जनसत्ता ने बखूबी छापा।
पता चला कि राजेश पायलट ने टिकैत को राजीव गांधी से मिलवाया था और उन्होंने बिजली की दरों, पानी, गन्ने के बकाया जैसे अनेक मुद्दों पर उन्हें आश्वासन दिया था। बाद में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने उन वायदों पर अमल भी किया जिससे टिकैत की साख खूब बढ़ी मगर राजीव गांधी को किसान आंदोलन का राजनीतिक नुक्सान हुआ।
उस आंदोलन में जागरण संवाददाता दिलीप से खूब छनी। दिलीप और मैंने जनसत्ता संवाददाता के लिए लिखित परीक्षा और इंटरव्यू भी साथ—साथ दिया था। मैं तब पीटीआई भाषा में उपसंपादक था। वो जागरण में ही रहे। जनसत्ता में मेरे चयन के बाद रिपोर्टिंग के सिलसिले में हम मिलते रहे मगर वैसी घनिष्ठता नहीं थी। उनकी लेखन शैली विलक्षण थी और आत्मीयता बरसाता चमकता चेहरा था। बाद में अचानक सुना कि हार्ट अटैक से उनका देहांत हो गया। दिलीप ने हिंदी पत्रकारिता को समृद्ध किया। उनका छोटा भाई अनूप पीटीआई में मेरा सहकर्मी था। अनूप भी दोस्त है और अब अदालती रिपोर्टिंग करता है।
अनुराग द्वारी-
मैं अक्सर कहता हुं देश में सर्टिफिकेट की दुकान दोतरफा खुल गई है, विमर्श का स्पेस सिकुड़ गया है… लिखा थोड़ा बहुत, भारत बंद का आगाज़ है.. सिर्फ एक बात पूछना है… सालों से किसानों के हालात बेहतर हुए या बदतर? बस जब इसपर आप सोचेंगे तो सैरी परतें खुल जाएंगी..
बीजेपी-कांग्रेस के झांसे में मत आएं..
सिब्बल-पवार का मंत्री रहते समर्थन, जेटली-सुषमा के विरोध के वीडियो बानगी है… जब डब्लूटीओ डंकल को अलग-अलग पदों पर रहते देश के सबसे बड़ी डिग्रीधारी ने गले लगाया, आज उसे सबसे कम डिग्रीधारी की तोहमत झेलने वाले बढ़ा रहे हैं..
हकीकत ये है कि दोनों दल जब तक हैं, ये नीतियां ऐसी ही चलेंगी देखते रहें.. अपनी समझ विकसित करें…