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सुख-दुख

एक पागल था, थिएटर के लिए जिसने जीवन बर्बाद कर लिया

आलोक पराड़कर-

अस्वस्थ और वृद्ध कुंवरजी अग्रवाल को रंगमंच के लोगों ने अकेला छोड दिया

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‘एक पागल था, थिएटर के लिए जिसने जीवन बर्बाद कर लिया’- दो दिन हो गए बनारस से लौटे लेकिन रंगमंच के प्रसिद्ध विद्वान, रंगकर्मी और समीक्षक कुंवरजी अग्रवाल की यह बात अभी भी कानों में गूंज रही है। बनारस में उनके घर गया था। बड़ी हिम्मत जुटाकर उन्होंने थोड़ी बातें कीं। 90 वर्ष की उम्र, अस्वस्थता के बीच वे काफी कमजोर हो चले हैं। कुछ वर्षों पूर्व तक उन्हें हमेशा सक्रिय ही पाया है लेकिन अब वे अक्सर बिस्तर पर पड़े रहते हैं। दुख इस बात का अधिक हुआ कि सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध इस नगर ने अपने विद्वान को इस प्रकार उपेक्षित छोड़ दिया है! बार-बार पूछने पर खुद अग्रवाल जी ने कहा कि रंगमंच का कोई भी व्यक्ति उनसे मिलने नहीं आता! लंबे समय से किसी ने यह जानने की कोशिश भी नहीं की कि वे किस हाल में हैं!

कुंवरजी गुरुधाम में रहते हैं। उनके बेटे-बेटियां दूसरे नगरों और विदेश में हैं। कभी-कभी आते हैं, फोन से हालचाल लेते हैं। देखभाल के लिए घर पर अक्सर राहुल रहता है। पारिवारिक मित्र मनीष भी जरूरतों का ध्यान रखते हैं लेकिन जिस रंगमंच के उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया, उससे जुड़े लोग कहां हैं? क्या उन्हें पता है कि वे किस हाल में हैं? शायद यही वजह हो कि कुंवरजी अग्रवाल ‘थिएटर के लिए जीवन बर्बाद कर लिया’ जैसी पंक्ति का इस्तेमाल करते हैं। वह कहते हैं कि जब तक वह जीवन जी रहा था तब तक तो बहुत अच्छा लग रहा था लेकिन अब लगता है कि उसकी कड़वी सच्चाई यही है जिसे मैं आज देख रहा हूं।

युवावस्था से ही थिएटर को समर्पित रहे अग्रवाल जी ने नाचघर नामक उस स्थान की खोज की थी जहां पहला हिन्दी नाटक ‘जानकी मंगल’ मंचित हुआ था। इसी से हिन्दी रंगमंच दिवस के निर्धारण की शुरूआत हुई। उनकी पुस्तक ‘काशी का रंगपरिवेश’ काफी चर्चित रही है। ‘रंगमंच एक माध्यम’, ‘नाट्य युग’, ‘पांच लघु नाटक’ उनकी कुछ दूसरी पुस्तकें हैं। रंगमंच के अतिरिक्त साहित्य और चित्रकला में भी उनकी दखल रही है। काशी के रंगमंच की शताब्दी पुरानी गतिविधियों के बारे में उनके पास प्रामाणिक जानकारी एवं दस्तावेज हैं। समय रहते बनारस की किसी नाट्य संस्था या रंगकर्मी द्वारा इसे उनके साथ मिलकर सहेजने की कोशिश कर पाना तो दूर, उनसे मिलने-जुलने भी बंद कर दिया है!

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