अनेहस शाश्वत-
हमारी प्यारी श्वेता…. कुत्ते का किस्सा भी किस कदर दिलचस्प हो सकता है , यह जानने के लिए यह प्रसंग काफी होगा । पचास बावन साल पहले की घटना तो है ही । मेरे बचपन के बनारस के चौर छटवा वाले घर की । अब तो खैर घर घर में तरह तरह के कुत्ते पाए जाने लगे हैं , पचास साल पहले ऐसा नहीं था । सामान्य लोग तो कुत्ते पालते ही नहीं थे और उच्च वर्ग के जो बहुत थोड़े से लोग पालते भी थे , आम तौर से उनकी पसंद जर्मन शेफर्ड होती थी । ऐसे माहौल में बनारस में एक रईस थे , उनका नाम मुझे नहीं याद आ रहा , अलबत्ता उनकी अट्टालिका मेरी स्मृति में है , जिसमे बहुत लंबा चौड़ा बगीचा भी था। मेरे पिताजी के वो बहुत अच्छे मित्र थे।
उन्होंने सफेद पौमैरियन कुत्तों का एक जोड़ा दिल्ली के अपने किसी रिश्तेदार से मंगवा कर पाला । उस समय आस पास के इलाके में वो कुत्ते अपने आकार प्रकार और रंग की वजह से कौतुक का विषय बन गए । कौतुक प्रेमी मेरे पिताजी को भी लगा की ऐसा ही कुत्ता उनके पास भी होना चाहिए । उनके कहने पर रईस साहब ने दो महीने की एक पिलिया पिताजी को दे दी । रात ग्यारह बजे उस पिलिया को एक टोकरी में रख कर पिताजी घर ले आए ।देसी कुत्ता देखने के आदी हम बच्चे उस सफेद जीव को देख खासे चमत्कृत हुए । सफेद होने की वजह से पिताजी ने उसका नाम रखा श्वेता।
अब श्वेता हम बच्चों के लिए जीवित खिलौना और चौरा छटवा के लोगों और मोहल्ले के बच्चों के लिए कौतुक का विषय बन गई । हम लोगों ने भी अपने घर के सामने खुली जगह में अच्छा खासा बगीचा बना रखा था । अब दिन रात , बगीचे में ,छत पर या घर के अंदर हम लोग श्वेता के साथ धमा चौकड़ी मचाते । लेकिन जब छत पर या बाहर बगीचे में श्वेता होती तो गली मोहल्ले के बच्चे लेह लेह करके उसे चिढ़ाते और वह भी गुर्राती हुई उन पर झपट्टा मारती , ऐसे में ये डर भी था की कहीं किसी बच्चे को काट ले तो नई मुसीबत खड़ी हो जाय ।
ऐसे में पिताजी ने इस समस्या का बड़ा ही नायाब तोड़ निकाला । उन्होंने कहा ये बड़ी हो रही है , इसे अंग्रेजी के शब्दों से ट्रेंड करो तब ये उन शब्दों की ध्वनि पर ही रिएक्ट करेगी , वरना चुप बैठेगी । अब जैसे उसे बुलाना होता तो हम लोग कहते श्वेता कम ऑन और वो दौड़ कर आ जाती , हिंदी में कहो श्वेता आओ तो वो रिएक्ट ही नहीं करती थी । अब मुहल्ले के लौंडे उसे लेह लेह कहके चिढ़ाएं तो वो ध्यान ही न दे ।
अब उन लौंडों ने भी गौर किया और अंग्रेजी बोल कर उसे बुलाना चाहा । अब अंग्रेजी तो वो लौंडे बोल नही पाते थे लेकिन जब प्रयास करते थे तो बोलते थे, ए सीता सीता खम्मन खम्मन । उनके इस शोर पर श्वेता कौतुक से उन्हें देख कर आराम से बैठी रहती थी , रिएक्ट नही करती थी । इस तरह पिताजी का ये प्रयोग खासा सफल रहा और श्वेता की उदासीनता से कालांतर में मुहल्ले के लौंडे भी उसे चिढ़ाने से विरक्त हो गए ।
किस्मत की धनी भी थी श्वेता , उसी समय हमलोग आगरा और मथुरा घूमने गए और श्वेता को भी साथ ले गए । मथुरा की सड़कों पर भी वो लोगों के कौतुक का विषय बनी रही । कई लोगों ने पूछा बाबूजी ई को आए । पिताजी को भी मजाक सूझा , उन्होंने कहा नजदीक न आयो , ई भालू को बच्चो आय ।
मथुरा में वो पंडे भी मिले जो यात्रियों के परिवार को पुश्तैनी जानकारी रखते हैं । उन्होंने हमारे परिवार की बही निकाली और दिखाया कब कब हमारे पूर्वज मथुरा पहुंचे और फिर अगली जानकारी दर्ज की , सुल्तानपुर से बाबू श्याम कृष्ण वर्मा परिवार समेत मथुरा आए साथ में उनकी पालतू श्वेता भी है , इन सबने मथुरा में तीर्थाटन किया और भगवान कृष्ण का दर्शन लाभ किया । मुझे लगता है जानवरों के इतिहास में तीर्थ करने वाली शायद वह एकमात्र जानवर रही होगी ।