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लाल क़िला कांड का टेलीग्राफ अख़बार में कवरेज देखें

संजय कुमार सिंह-

खबरें ऐसे भी लिखी जा सकती थीं… दूसरे अखबारों में जो है वह उनका संपादकीय विवेक है। कल बहुत दिनों बाद मैंने करीब दिन भर टीवी देखा इसलिए अब कुछ पढ़ना-कहना नहीं है। जिसकी दिलचस्पी होगी जानता होगा। बाकी लोग इसी रिपोर्टिंग के आदी हैं। कुछ बताने की जरूरत नहीं है।

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जहां तक रिपोर्टिंग और शीर्षक की बात है, द टेलीग्राफ में मुख्य खबर का शीर्षक देखिए और फिर सबसे नीचे की खबर देखिए। बाकी अखबारों में देखिए और सीखिए कि खबरें छिपाकर कैसे दी जाती हैं। या कैसे गोल कर दी जाती हैं। कहने की जरूरत नहीं कि बाकी अखबार वो हैं जिन्होंने इमरजेंसी में सेंसरशिप का विरोध किया था। टेलीग्राफ तब था ही नहीं।

पुलिस या सरकार क्या यह समझ रही थी कि प्रदर्शनकारी दिल्ली घूमने आए हैं और बताये रास्ते से घूमकर वापस चले जाएंगे। जाहिर है, हंगामे की उम्मीद उन्हें थी और बेशक तैयारियां भी थीं। ऐसे में हंगामा अगर हुआ तो पुलिस और सरकार की चूक है। अक्षमता है। तैयारियां कम थीं। खबर में इसे महत्व क्यों नहीं देना।

दूसरी बात, लाल किले के मामले में मैं कल ही लिख चुका हूं, दीप सिद्धू के बारे में सूचना प्रमुखता से क्यों नहीं है? अगर संपादकीय विवेक की ये दशा है तो आम आदमी का क्या कहना। राम नाम सत्य है।

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https://youtu.be/EQmln3nvZ4c
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