उर्मिलेश-
हिंदी लेखन की एक बहुत खास बात है कि इसमें साहित्यिक लेखक और कवि आदि बहुत बड़ी संख्या में हैं. संभवत: इन विषयों-विधाओं के पाठकों की संख्या का उतनी तेजी से विस्तार नहीं हो रहा, जितनी तेजी से साहित्यिक लेखकों और कवियों आदि की संख्या का होता रहा है या हो रहा है. यह कोई बुरी नहीं, अच्छी बात है.. हिंदी भाषा और क्षेत्र में अगर रचनात्मक और संवेदनशील किस्म के लोगों की संख्या में इजाफा हो रहा है तो यह समाज के लिए अच्छी बात है. .अब ये अलग बात है कि जो लेखन हो रहा है, उसमें कितना सार्थक, मौलिक, जेनुइन और सचमुच प्रगतिशील है!
जहां तक पाठकों का सवाल है, उनकी संख्या कविता और कथात्मक लेखन में उतनी नहीं बढ रही है..वह सामाजिक-राजनीतिक लेखन में ज्यादा बढ रही है..सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर नयी और अच्छी सामग्री की तलाश करने वाले पाठक हिंदी में पहले के मुकाबले आज अपेक्षाकृत तेजी से बढ़े हैं.
मुझे नहीं मालूम, हिंदी प्रकाशकों ने इस बाबत कोई सर्वे कभी कराया या नहीं, पर अपनी घुमक्कड़ी और निजी संपर्कों से हासिल सूचना और आकलन के आधार पर मैं पूरे भरोसे से कह सकता हूं कि हिंदी में सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक विषयों के पाठक तेजी से बढ़ रहे हैं और आगे और भी बढेंगे. इन नये पाठकों का बड़ा हिस्सा सबाल्टर्न समूहों से आ रहा है.
यह महज संयोग नहीं कि हिंदी के बड़े और मध्यम श्रेणी के प्रकाशक भी अब सबाल्टर्न सामाजिक-पृष्ठभूमि से आने वाले नये लेखकों की सामाजिक-राजनीतिक विषय पर लिखी किताबें सहर्ष छाप रहे हैं. पहले ऐसा नहीं होता था. यदा-कदा होता भी था तो बहुत कम!
लेखन-प्रकाशन और पठन-पाठन के क्षेत्र का बदलता हुआ यह परिदृश्य आशा जगाता है. अच्छी साहित्यिक कृतियां हर युग में पसंद की गयी हैं और खूब पढी भी गयी हैं. इन दिनों हिंदी में यात्रा-वृत्तांत, संस्मरण और डायरी लेखन खूब पढे जा रहे हैं. कुछ और मौलिक साहित्यिक रचनाएं भी पढी जा रही हैं. इनमें अनूदित कृतियों की भी अच्छी-खासी संख्या है. लेकिन साहित्य और रचना के नाम पर गोदामों की शरण पाने वाली या सरकारी विभागों की थोक-खरीद की सूची में शुमार होने वाली किताबें विपणन, आभार-कृपा, एहसान जताने और शान बढाने के काम तो आ सकती हैं पर समाज के लिए उनका खास योगदान नहीं होता! किसी को अन्यथा लेने की जरूरत नहीं, इस श्रेणी के प्रकाशनों की संख्या भारतीय भाषाओं में संभवत: सबसे ज्यादा हिंदी में ही है..
प्रकाशन का एक और क्षेत्र उल्लेखनीय नजर आता है. धर्म, नैतिकता, तंत्र-मंत्र और लोगों की कथित जरूरतों के नाम पर हिंदी में जो अपार कूड़ा छापा जा रहा है, वह न सिर्फ हिंदी पाठकों और हिंदी क्षेत्र की चेतना को कुंद करने के काम आ रहा है अपितु वह समाज और राष्ट्र के लिए लिए गंभीर खतरा भी पैदा कर रहा है. धर्म पर अच्छी सामग्री भी छापी जा सकती है. लेकिन हिंदी में उसके लिए कोई ठोस और रचनात्मक प्रयास नहीं दिख रहा है. सन् 50,60और70 के दशक में हिंदी के कुछ प्रकाशकों ने इस तरह के बहुत अच्छे और जरूरी प्रकाशन किये थे. पर अब वह सिलसिला थम ही नहीं गया, उल्टी दिशा पकड़ चुका है. धर्म, नैतिकता और मिथकों के नाम पर अंधविश्वास और सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाले प्रकाशनों की भरमार सी दिख रही है. हिंदी के सजग लेखकों, प्रकाशकों और पाठकों को ऐसी चुनौतियों को नजरंदाज करने की नहीं, उनसे रू-ब-रू होने की जरूरत है.