यह आलेख गत 23 मार्च को महान समाजवादी चिंतक डा0 राममनोहर लोहिया की जयंती के लिए तैयार किया गया
मुम्बई के एक साथी नन्दकिशोर ने पत्र लिखकर डा. लोहिया को उलाहना दिया था कि आखिर क्यों सोशलिस्ट पार्टी शूद्रों और अछूतों में से कोई ऐसा नेता पैदा नहीं कर सकी जिसके पीछे उसके वर्ग के लोग भरोसे के साथ चल सकें। डा0 लोहिया ने इसके जबाव में जो पत्र लिखा उसमें इस मसले पर शिद्दत से बात की गई है। महान समाजवादी चिंतक ने इस पत्र में पहले यह दर्ज किया कि आखिर हम बिरादर (अछूत और शूद्र) ही क्यों, वंचितों में से ऐसे नेता पैदा होने चाहिए जिनके पीछे पूरा समाज चल सके।
क्या बाबा साहब अम्बेडकर में यह कशिश नहीं थी कि लोकतंत्र और संवैधानिक शासन को लेकर उनके विचारों को देखते हुए पूरा समाज उन्हें नेता माने लेकिन वंचित समाज के किसी नेता के लिए ऐसा बनना आसान है, सवाल यह भी है। डा0 अम्बेडकर जाति व्यवस्था और उसके कारण हुए दलितों के उत्पीड़न को लेकर बहुत तल्ख थे लेकिन इसके बावजूद उनकी जो अभीप्सा थी शायद महान समाजवादी चिंतक डा0 राममनोहर लोहिया को उसे समझने में शुरू में भूल रही।
अगर डा0 अम्बेडकर में सार्वभौमिक नेता बनने की चाह नहीं होती तो उन्होंने कई मौकों पर सवर्णो का साथ क्यों लिया होता। यहां तक कि अपने लिए सरनेम भी उन्होंने अपने ब्राह्मण शिक्षक महादेव अम्बेडकर का अपनाया था। 1927 में जब उनकी अस्पृश्य हितकारिणी सभा ने मनुस्मृति जलाने का फैसला किया तो ब्राह्मण विद्वान सहस्त्रबुद्धि को भी उन्होंने सभा में शामिल कर रखा था और यह प्रस्ताव सहस्त्रबुद्धि द्वारा ही सभा की बैठक में पेश किया गया था। उनका दृष्टिकोण और महत्वाकांक्षायें व्यापक न होती तो वो पहली बार पार्टी बनाने के प्रयास में ही उसका नाम शेड्यूल कास्ट फेडरेशन रखते।
उन्होंने तो अपनी पहली पार्टी का नाम लेबर पार्टी रखा था ताकि सभी जाति वर्ग के सर्वहारा को वे अपने साथ जोड़ सकें। शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के नाम से पार्टी को उनको क्रिप्स मिशन की शर्तो के कारण बनाने पड़ी। अंततोगत्वा आजादी के बाद उन्होंने इसे भंग कर दिया था और फिर व्यापक पहचान वाली रिपब्लिकन पार्टी संगठित की थी। डा0 लोहिया ने जब उन्हें समझ पाया तो वे दूसरा आम चुनाव उनकी पार्टी के गठबंधन के साथ लड़ने की पेशकश लेकर डा0 अम्बेडकर के पास पहुंचे थे और बाबा साहब ने इसकी सहर्ष मंजूरी भी दे दी थी। हालांकि ऐसा नहीं हो पाया क्योंकि चुनाव के पहले ही बाबा साहब दिवंगत हो गये थे।
अकादमिक स्तर पर भी बाबा साहब ने विलक्षण सार्वभौमिकता का परिचय दिया जिसने इस देश और समाज पर बहुत उपकार किये हैं लेकिन कृतघ्नता की चरम सीमा है कि समाज के श्वेताम्बरियों ने उनके अवदान का कोई आभार महसूस नहीं किया। बाबा साहब की जाति व्यवस्था और अछूत समस्या को लेकर दृष्टि अलगाववादी दलित चिंतकों से एकदम अलग थी। उन्होंने मूल निवासी और बहिरागत शासकों के द्वंद की थ्योरी को नकारते हुए कहा कि जातियां तब बनी जब द्रविण, आर्य, होमो, सीपियंस के बीच रोटी बेटी के संबंध कायम हो चुके थे।
उन्होंने जातियों के निर्माण और इसे प्रताड़ना की व्यवस्था बनाने के कई ऐतिहासिक कारण गिनाये जो बेहद तर्क संगत हैं। इनसे डा0 अम्बेडकर ने यह सिद्ध किया कि सवर्णो, दलितों और अन्य शूद्रों में रक्त और नस्ल का कोई अंतर नहीं है। देश की सामाजिक एकता को सुदृढ़ करने में इस धारणा के प्रतिपादन से बहुत मदद मिली फिर भी उन्हें सवर्णो के भद्र लोग में स्वीकार्यता कहां मिल सकी। जब बाबा साहब को उनकी सहानुभूति और श्रृद्धा नहीं मिल सकी तो फिर अन्य दलित नेता की बिसात क्या है।
कह सकते हैं कि बाबा साहब भले ही इस मामले में सफल सिद्ध न हुए हो लेकिन कालांतर में मुलायम सिंह यादव और मायावती ने सवर्णो से अपनी पार्टी के पक्ष में वोट डलवाकर खुद को सार्वभौम नेता साबित करने में सफलता हासिल कर ही ली। दिलचस्प यह सोचना होगा कि अगर डा0 लोहिया अगर जीवित होते तो इन महानुभावों के बारे में उनके विचार क्या होते। वंचितों को लेकर डा0 लोहिया की दृष्टि में कोई कपट न था। वे डा0 अम्बेडकर और यहां तक कि रामद्रोही पेरियार रामास्वामी नायकर के साथ भी गठबंधन को बहुत उत्सुक रहे जबकि चित्रकूट में रामायण मेला के आयोजन के शिल्पकार डा0 लोहिया ही थे और भारत का पौराणिक मिथकीय इतिहास उन्हें बहुत सम्मोहित करता था। अपनी बात समझाने के लिए वे इसके पात्रों को प्रतीक बनाते थे।
डा0 अम्बेडकर की प्राथमिकता थी कि पहले जाति व्यवस्था से जुडे सवाल हल हो जबकि डा0 लोहिया सोचते थे कि व्यापक राजनीति के बिन्दुओं पर अग्रसर रहते हुए सवर्णो को भी विश्वास में लेकर धीरे-धीरे जाति व्यवस्था विलोपित की जाये। विडम्बना यह है कि डा0 अम्बेडकर और डा0 लोहिया के शिष्यों ने उन्हें उत्सव पुरूष बनाकर सत्ता हथियाने का मंत्र तैयार किया लेकिन जाति व्यवस्था को नई संजीवनी देने की कीमत पर।
1957 में जब डा0 लोहिया लखनऊ जेल में बंद थे, पेरियार रामास्वामी नायकर के खिलाफ पंडित नेहरू के तेज आग उगलने पर उन्होंने उत्तर प्रदेश के जेल मंत्री को भेजे गये पत्र के माध्यम से जो उदगार प्रकट किये थे वे दृष्टव्य हैं। इसमें उन्होंने पंडित नेहरू को नायकर के लिए निकाली गई अतिवादी भडास पर धिक्कारा था। कहा था कि उनके अंदर वशिष्ठ बैठा हुआ है जो हर युग में शम्बूक को देश निकाला या शिरोच्छेद का श्राप देता है। नायकर तमिलनाडु में उन दिनों ब्राह्मणों के जनेऊ और चोटी काटने का अभियान चलाये हुए थे। डा0 लोहिया ने लिखा था कि वे भी जनेऊ और चोटी का खात्मा चाहते हैं लेकिन इसके लिए जबरदस्ती ठीक नहीं है। उन्होंने कहा कि नायकर आधुनिक शम्बूक हैं पर अपने लक्ष्य के लिए उन्हें निंदनीय एक्शन से बचना चाहिए। उन्होंने लिखा कि तथापि कट्टर शम्बूक के लिए कट्टर वशिष्ठी नेहरू का यह रूप कतई सहन नहीं किया जा सकता।
वर्ण व्यवस्थावादी उसूलों की पोषक भारतीय जनता पार्टी की सत्ता में पकड़ जैसे-जैसे मजबूत होती जा रही है वैसे-वैसे आरक्षण की व्यवस्था के खिलाफ सवर्णो का शिकंजा कसता जा रहा है। घोषित रूप से आरक्षण पर पुनर्विचार का मशविरा संघ और उसकी मानस संतान भाजपा का नेतृत्व नहीं दे सकता क्योंकि मोहन भागवत के बिहार के गत विधान सभा चुनाव के समय इस तरह की जुर्रत भरे बयान पर जो नतीजा सामने आया था उससे पूरा संघ परिवार सहम गया था। अब संघ प्रमुख केवल इस पर सवर्णो और वंचितों के बीच संवाद की बात कर रहे हैं। लेकिन जिस तरह से कई सरकारी भर्तियों में आरक्षण के प्रावधान को भाजपा के शासन काल में विलोपित किया गया है उससे उनकी कुटिल मंशा उजागर है। इसीलिए प्रशासन में सर्वोच्च स्तर पर लेटरल इंट्री का प्रयास विवादों के घेरे में आ गया है।
सवाल योग्यता का ही नहीं सुव्यवस्था का भी है। बौद्धिक योग्यता को एकांगी तरजीह के आधार पर ऐसी व्यवस्था के सफल होने की कल्पना नहीं की जा सकती जिसमें बहुसंख्यक वर्ग सत्ता और प्रशासन के केन्द्र से छिटका हो। योग्यता से व्यक्ति की क्षुद्रताओं का अंत नहीं हो जाता। इसलिए जब सत्ता और प्रशासन में कुछ वर्गो का ही वर्चस्व रहेगा तो ऐसी व्यवस्था बहुसंख्यक आबादी के साथ अन्याय और तिरस्कार के लिए अभिशप्त रहेगी। दूसरी ओर देश का भी सवाल है। वैश्वीकरण के इस दौर में सर्वश्रेष्ठ मानव संसाधन के इस्तेमाल से ही देश अंतरराष्ट्रीय वरीयता में शीर्ष पर पहुंच सकता है।
महापुरूषों को इसका अनुमान था। डा0 अम्बेडकर ने आरक्षण को सीमित समय तक लागू करने की वकालत की थी। वे चाहते थे कि अवसर मिलने के बाद दलितों की जिजीविषा उत्कट हो और बिना आरक्षण के आश्रित रहे वे मेरिट सूची में ज्यादा से ज्यादा स्थान बनाने में सफल हों। खुद अपना उदाहरण उनके सामने था। देश के सामाजिक वातावरण में वे मेट्रिक परीक्षा न्यूनतम अंकों से पास कर पाये थे। हालांकि दलितों में मेट्रिक परीक्षा पास करने वाले पहले छात्र के रूप में उन्होंने इतिहास बनाया था जिससे उनका सार्वजनिक सम्मान हुआ था। वही बाबा साहब जब पढ़ने के लिए अमेरिका और इग्लैंड पहुंचे तो वहां खुली हवा में सांस लेने के बाद उनकी सुसुप्त प्रतिभा का ऐसा विस्फोट हुआ कि उन्होंने सारी दुनिया को पीछे छोड़ दिया।
विश्व प्रसिद्ध कोलम्बिया विश्वविद्यालय ने 250 वर्ष के इतिहास में अपने सबसे प्रतिभाशाली छात्र के रूप में नवाजते हुए विश्वविद्यालय परिसर में उनकी प्रतिमा लगाई है। दलितों और पिछड़ों में बाबा साहब जैसे गुदड़ी के लालों की कमी नहीं है। बशर्ते वे अपने अंदर प्रतिस्पर्धा की मानसिकता जागृत कर सकें। डा0 अम्बेडकर और डा0 लोहिया होते तो दोनों आश्रित मानसिकता से उबारकर सर्वश्रेष्ठ बनने की प्रतिस्पर्धा के साथ आगे बढ़ने के लिए दलितों व पिछड़े छात्रों और युवाओं को झकझोरते। डा0 लोहिया की अपार सहानुभूति वंचितों के लिए थी। वे हृदय से उनका उत्थान चाहते थे। उन्होंने पिछड़ों ने बांधी गांठ, 100 में पावें 60 का नारा दिया था। पिछड़ों की उनकी परिभाषा में दलित, अन्य पिछड़ा वर्ग और स्त्रियां शामिल थी। इसलिए जहां वंचित गलत होते थे उनको भी टोकने में वे संकोच नहीं करते थे फिर भी वंचित तबका उन पर भरोसा रखता था। जाहिर है कि ऐसा व्यक्तित्व होने की वजह से नौकरियों में मेरिट तक पहुंचने को लेकर उनकी ललकार से वंचितों में पुरूषार्थ की एक नई लहर पैदा होती, इसमें कोई संदेह नहीं है।
लेखक केपी सिंह जालौन (यूपी) के वरिष्ठ पत्रकार हैं. संपर्क- 9415187850