संजय कुमार सिंह
आज संसद का बजट सत्र और इस लोकसभा का कार्यकाल पूरा हो जायेगा। सप्ताह भर के अखबारों की लीड देख रहा था तो लगा कि कोई खबर ही नहीं छपी है। न सिर्फ विपक्ष की चुनावी तैयारी के लिए चल रही न्याय यात्रा का प्रचार गायब है बल्कि पेटीएम जैसे घोटाले की चर्चा भी नहीं हुई। कहने की जरूरत नहीं है कि पहले संसद में जिन मुद्दों की चर्चा होती थी वो खबर होती थीं और अखबारों में जो खबरें छपती थीं उनकी भी चर्चा संसद में होती थी। इस बार संसद में सरकार पर मेघालय में हिन्दी थोपने का आरोप लगा पर वह हिन्दी अखबार में भी पहले पन्ने की खबर नहीं है। एक अखबार के एक्सक्लूसिव की चर्चा दूसरों अखबारों में भी होती थी और कई एक्सक्लूसिव इसीलिए संसद सत्र के दौरान छपते थे। उनमें जनहित होता था और कई खबरें इसी तरह बड़ी बनीं। अब हेडलाइन मैनेजमेंट का जमाना है। सुरक्षा में चूक जैसे मुद्दे पर सवाल नहीं उठाया जा सका, जवाब नहीं मिला और खबर भी नहीं छपी। सांसदों के निलंबन का रिकार्ड बना। बदनाम इमरजेंसी को किया जाता रहा। कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार से सवाल पूछने की व्यवस्था, समीक्षा-आलोचना की संभावना पूरी तरह खत्म रही। और यह मुद्दा भी नहीं है।
कहा जा सकता है कि सरकार चुनाव जीतने की कोशिश में भारत रत्न लुटाये जा रही है उसका मजाक बना रही है और अखबार सच बताने की जगह मास्टर स्ट्रोक कहने से बच रहे हैं। ताली बजा रहे हैं। उसपर आने से पहले बता दूं कि बात इतनी ही नहीं है। विरोधियों को हर तरह से दबाने परेशान करने के अलावा दिल जीतने के लिए सरकारी संसाधन झोंके जा रहे हैं। फिर भी, सरकार के काम काज की समीक्षा, उससे संबंधित खबरें, उसपर सवाल तो छोड़िये जो खबरें छपी हैं उनमें ज्यादातर सरकार की प्रशंसा और विपक्ष की आलोचना हैं। यह सरकार के हेडलाइन मैनेजमेंट की खूबी तो है ही अखबारों द्वारा सरकार को दी जा रही जीएसटी मुक्त ‘सेवा’ भी है। आज की खबरों से पहले ऐसी कुछ खबरों को याद करना जरूरी है। इनमें प्रमुख है, यूपीए की पिछली सरकार के कार्यकाल पर दस साल बाद श्वेत पत्र, उसपर विपक्ष का ब्लैक पेपर और ब्लैक पेपर की चर्चा इमरजेंसी वीर इंडियन एक्सप्रेस में व्हाइट पेपर के साथ पहले पन्ने पर नहीं होना, उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता की खबर और फिर दंगा होना, उसकी खबर को प्रमुखता नहीं मिलना, देश को उत्तर दक्षिण में बांटने का आरोप और फिर किस्तों में भारत रत्न की घोषणा या रुक-रुक कर हो रही बारिश शामिल है।
भारत रत्न का ‘मास्टर स्ट्रोक’
नियम है कि एक साल में अधिकतम तीन भारत रत्न ही दिये जा सकते हैं। प्रधानमंत्री ने पहले एक, फिर दूसरा और कल एक साथ तीन भारत रत्न देने की घोषणा की। कहने की जरूरत नहीं है कि 2024 के बाद दूसरी सरकार आ सकती है और उसकी भी (अपनी) जरूरत हो सकती है और हर साल भारत रत्न देने का रिवाज भी नहीं है। शुरू होने के बाद से पिछली बार 2019 में दिये गये पुरस्कारों का औसत एक भी नहीं है। यानी 65 साल में 48 सम्मान दिये गये थे। तीन तो कुछ ही बार दिया गया था। ऐसे में अगर एक साल पांच भारत रत्न दे दिये गये हैं तो यह सामान्य नहीं है और इस पर कई सवाल हो सकते हैं। एक साल में तीसरी बार दिया जाये, ट्वीटर पर घोषणा हो तो कम से कम खबर के रूप में उसका महत्व कम होगा ही। फिर भी आज पाकिस्तान चुनाव के नतीजे को वह प्रमुखता नहीं मिली है जो सामान्य स्थितियों में मिलती।
लोकतंत्र में सरकार की इस मनमानी पर सवाल और उसका जवाब भी होना चाहिये। राजा जी की बात अलग होती है और अगर देश में ऐसी व्यवस्था हो चुकी है तो उसे स्वीकार नहीं किया जाता है। इसलिए मीडिया का काम था कि इसपर सवाल उठाता या जवाब देता। वह सब छोड़कर, दूसरों की क्या बात करूं, इंडियन एक्सप्रेस ने लिखा है, प्रधानमंत्री जिन्हें कांग्रेस भूल गई। अगर ऐसा है तो भाजपा के नेताओं में किसी को नहीं भुलाया गया है? जीवित या मृत भाजपा का कोई ऐसा नेता नहीं है जिसे भाजपा सरकार को भारत रत्न देना चाहिये था और उसे छोड़ दिया गया है। और कोई सरकार अपनी ही पार्टी के नेता को क्यों दे, दूसरों की चर्चा कम से कम इंडियन एक्सप्रेस क्यों नहीं कर रहा है। यह मीडिया मैनजमेंट का प्रभाव और सरकार का समर्थन तथा विपक्ष का (गैर जरूरी) विरोध नहीं तो क्या है?
चुनावी तैयारी की प्रशंसा
दिलचस्प यह है कि एक्सप्रेस एक्सप्लेन्ड में लिखा गया है, नरेन्द्र मोदी ने कहा कि कांग्रेस अपने परिवार को सम्मान देती रही। मुद्दा यह है कि नरेन्द्र मोदी का तो (झूठा) दावा था कि उनका परिवार ही नहीं है, कर्पूरी ठाकुर के बाद लाल कृष्ण आडवाणी को जिस ढंग से भारत रत्न देने की घोषणा हुई उसके बाद ऐसा कहने और लिखने के लिए कुछ बचता था क्या? यहां मैं विजेताओं की योग्यता की बात नहीं कर रहा हूं। चयन में मनमानी और राजनीति की बात कर रहा हूं। हालत यह है कि चुनाव से पहले रुक-रुक कर हो रही रत्नों की बरसात और इससे हेडलाइन मैनेजमेंट के बीच सरकार ने कई दिनों बाद कह दिया है कि वह पेटीएम के मामले से दूर रहेगी। यह खबर अंदर है। चुनाव से पहले दंगा कराने के आरोपों के मद्देनजर दंगे की खबर और प्रधानमंत्री की आलोचना के लिए महाराष्ट्र में पत्रकार पर हमले की खबरों के बीच तीन-तीन भारत रत्न की घोषणा आज मेरे सभी अखबारों में लीड है। इंडियन एक्सप्रेस ने बताया है कि आज लोकसभा के इस कार्यकाल के अंतिम दिन भाजपा के नेतृत्व में राम मंदिर और प्रधानमंत्री की भूमिका की चर्चा होगी। मकसद प्रशंसा और इसका प्रचार है सो कौन नहीं समझ रहा है।
हेडलाइन मैनेजमेंट
हेडलाइन मैनेजमेंट इसी को कहा जाता है और तीसरी बार में सबसे ज्यादा संभव तथा पूर्व में एक-एक कर दो भारत रत्न की घोषणा ज्यादातर अखबारों में रूटीन शीर्षक से छपी है। साफ है कि किस्तों में ट्वीटर पर घोषणा को भी सामान्य मान लिया गया है। नियम एक साल में तीन ही भारत रत्न देने का है उसकी चर्चा भी नहीं के बराबर है। दैनिक जागरण जैसे अखबार ने एलान के तुरंत बाद कल ही खबर दी थी कि फलां वर्षों में किसी को नहीं दिया गया था। इस बार आज के मिलाकर पांच हो गये और अभी बताया नहीं गया है कि कौन किस साल के लिए है। यानी उसपर भी सवाल नहीं और आज के अखबारों में नहीं बताया गया है कि पहली बार, चुनावी साल में पांच भारत रत्न की घोषणा एक साल के लिए है या इस बार पिछले साल वाले की भी घोषणा की गई है या इस साल पांच की घोषणा क्यों की गई वह भी किस्तों में, ट्वीटर पर।
लोकतंत्र में सरकार मेरी मर्जी नहीं कह सकती है फिर भी, सवाल कोई करता नहीं है और मुंह बाये खड़ा हो तो जवाब देने का रिवाज नहीं है। इमरजेंसी बुरी थी क्योंकि लोगों को जेलों में बंद कर दिया गया था, सेंसर था। मैं नहीं कहता कि इमरजेंसी की आलोचना नहीं होनी चाहिये या बुरी नहीं थी। पर मुद्दा यह है कि अभी स्थितियां ज्यादा बुरी हैं। कितने ही उदाहरण हैं। तब तो जो जेल में थे वो राजनीतिक बंदी थे अब तो लोगों को झूठे आरोप में बंद किया जा रहा है, ऐसी धाराएं लगाई जा रही हैं जिनमें जमानत नहीं हो और हेमंत सोरेन के मामले में सबने देखा कि मुख्य न्यायाधीश के पीठ बनाने के बाद भी सुनवाई ही नहीं हुई और पीठ में एक खास जज थीं। और ऐसी मनमानी तो इमरजेंसी में भी नहीं होती थी। जो हुई उसके लिए अधिकार लिये गये थे, नियमानुसार। तब प्रधानमंत्री की आलोचना करने वालों को भीड़ नहीं पीटती थी। आज स्थिति यह है कि भारत रत्न जैसे सम्मान के साथ मजाक किये जाने की कोई खबर नहीं है, जो खबरें हैं उनकी प्रस्तुति में आलोचना नहीं है, उसपर कोई सवाल तो नहीं ही है।
मोर्चे पर अकेला टेलीग्राफ
अकेले द टेलीग्राफ का फ्लैग शीर्षक है, लोकसभा में 400 पार की मोदी की महत्वाकांक्षा को गति देने के लिए रिकार्ड पांच (भारत रत्न))। मुख्य शीर्षक है, चुनावी मौसम में रत्नों की बारिश। अखबार ने ओलंपिक्स के लोगो की तर्ज पर पांच गोले में पांच चेहरों के साथ इसे चुनावी ओलंपिक का लोगो बना दिया है। कहने की जरूरत नहीं है कि भारत रत्न की इस घोषणा के कारण आज पाकिस्तान के चुनाव के नतीजे की खबर भी दब गई है। आपको बता दूं कि ऑडी कार के लोगो में ऐसे ही चार गोले होते हैं और महंगी चीजों के शौकीन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का चुनाव (अपनी पार्टी वाले को छोड़कर) चार लोगों का चार गोल (मतदाता समूहों को साधने का) ही है। बाकी अखबारों का शीर्षक भी देख लीजिये
1. हिन्दुस्तान टाइम्स
दिग्गज कृषि विज्ञानी, दो पूर्व प्रधानमंत्री को भारत रत्न । इस शीर्षक से खबर के साथ तीनों भारत रत्नों के परिवार की प्रतिक्रया भी है।
2. टाइम्स ऑफ इंडिया
किसानों तक पहुंचने की कोशिश, कांग्रेस को झटका: चरण सिंह, नरसिंह राव को भारत रत्न
यहां भी एक खबर का शीर्षक है, दो रत्न विपक्षी गठबंधन को दो झटके। पर सवाल है कि यह सही है, सामान्य है और अगर दोनों है तो सरकार को जो झटके लगते हैं उसे आप बताते हैं?
3. इंडियन एक्सप्रेस
रूटीन शीर्षक है। एक वैध और अपेक्षित चुनावी चाल के रूप में छह कॉलम में छापा है। मुख्य खबर का शीर्षक भी है, लोकसभा चुनावों की उल्टी गिनती के तहत सत्तारूढ़ गठजोड़ की ओर से एक मजबूत राजनीतिक संदेश। चौधरी चरण सिंह के पोते, जयंत की प्रतिक्रिया, दिल जीत लिया भी सिंगल कॉलम की खबर है। शीर्षक में यह भी बताया गया है कि जयंत ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा के साथ चुनावी गठजोड़ के संकेत दिये।
4. द हिन्दू
रूटीन शीर्षक है। उपशीर्षक में कहा गया है कि ये लोग इस साल के विजेताओं की सूची में शामिल हो गये हैं जो एक साल में घोषित अब तक के विजेताओं की सूची में सबसे लंबी है।
5. अमर उजाला
छह कॉलम में रूटीन शीर्षक औऱ प्रस्तुति है। उपशीर्षक है, कर्पूरी-आडवाणी को पहले ही सम्मानित करने की हो चुकी है घोषणा। एक साल में अधिकतम तीन को ही देने का नियम है या पांच को दिया जाना पहला है, यह सब प्रमुखता से नहीं है। यह जरूर बताया गया है कि “देश के लिए अतुलनीय योगदान को समर्पित सम्मान है” और इसके जरिये, “किसानों से लेकर दक्षिण तक को दिया संदेश”।
6. नवोदय टाइम्स
विज्ञापनों के बीच एक ही खबर है, भारत रत्न की तिकड़ी।
गनीमत है
गनीमत है इसे मोदी का मास्टर स्ट्रोक नहीं कहा जा रहा है। वरना 2014 में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद 2015 में दो, अटल बिहारी वाजपेयी और पंडित मदन मोहन मालवीय को यह सम्मान दिया गया था। 2019 में भी लोकसभा चुनाव थे तब नानाजी देशमुख, भूपेंद्र कुमार हजारिका और प्रणब मुखर्जी को यह सम्मान दिया गया था। अब फिर जब 2024 के चुनाव होने हैं तो यह सम्मान दिया जा रहा है और इसे जो 2019 की सफलता से प्रेरित कहा जा सकता है। पर वह अलग मुद्दा है। जहां तक प्रधानमंत्री के प्रचार की बात है, नोटबंदी जैसे मनमाने निर्णय से देश औऱ अर्थव्यवस्था को जो नुकसान हुआ, लोगों के कारोबार-व्यवसाय जैसे चौपट हुए उसपर कुछ बोले बगैर प्रधानमंत्री यह दावा करते हैं कि वे तीसरे कार्यकाल में द्रुत आर्थिक विकास के रोडमैप पर काम कर रहे हैं और टाइम्स ऑफ इंडिया उसे पहले पन्ने पर प्रमुखता से छापता है। अमर उजाला ने और बड़ी खबर दी है, आलोचक सबसे निचले स्तर पर। पीएम मोदी बोले, भारत का समय आ गया, दुनिया का बढ़ रहा है भरोसा। यही नहीं, प्रचार कर ही रहे हैं तो पूरा करें वाले अंदाज में लिखा है, पहले नहीं थी ऐसी सकारात्मक भावना।
प्रचारक की भूमिका
इसके साथ अखबार ने यह भी बताया है कि 2014 में श्वेत पत्र क्यों नहीं लाया गया। जो कारण बताया गया है उसमें नोटबंदी का कोई मतलब नहीं था। वह क्यों हुआ और उससे फायदा जो होना था क्या वह नुकसान के लिहाज से जरूरी या समयानुकूल था? इस पर कभी बात नहीं करने वाला मीडिया प्रधानमंत्री को अपना मंच और माइक सौंप देता है। वे प्रेस कांफ्रेंस नहीं करते और मन की बात करते रहते हैं उसके बावजूद। आज ही खबर है कि पेटीएम को नियमों का अनुपालन नहीं करने के लिए दो बार सतर्क किया गया था फिर भी नहीं माना। आखिर, किसकी शह थी, कौन बतायेगा? पूछा क्यों नहीं जा रहा है। संसद में इसपर बात नहीं होनी है। अयोध्या पर बात होनी है और भाजपा ने व्हिप भी जारी कर रखा है यह सिंगल कॉलम की खबर है। वह भी सिर्फ टाइम्स ऑफ इंडिया में।
नवोदय टाइम्स की खबर के अनुसार सुप्रीम कोर्ट इस बात पर विचार करने के लिए सहमत हो गया है कि आजीवन कारावास का मतलब पूरा जीवन है या उसमें कमी हो सकती है। कहने की जरूरत नहीं है कि अपराधी की सजा कम करने की जरूरत होनी ही नहीं चाहिये। यह मुद्दा ही नहीं है और तब तक नहीं होना चाहिये जब तक अदालतों में समय पर न्याय न होने लगे। एक तो न्याय में देरी निर्दोष के लिए भी सजा है और अपराधी को सजा देर से मिलती है। अपराध करने की आजादी रहती है फिर भी उसकी सजा कम करने की चिन्ता है। निर्दोष को परेशान न होना पड़े यह मु्दा नहीं है या है तो अदालत कह चुका है कि सरकार यूएपीए लगा देगी तो बेल नियम नहीं है। और जेल में रहना होगा। पर सजा पा चुके अपराधी को सरकार जल्दी छोड़ सके (बिल्किस बानो के अपराधियों की तरह और इनमें एक को समर्पण करने के बाद जमानत मिल चुकी है) इसके लिए ऐसे मामलों पर विचार करना पड़ रहा है। मुझे लगता है कि प्राथमिकताएं ही बदली हुई हैं।
Anand Kushwaha
February 13, 2024 at 2:46 pm
आपको सलाम
जो काम अखबारों को करना चाहिए जो कि वे नहीं कर रहे हैं। कम से कम आपने उस ओर ध्यान तो दिलाया।