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सुख-दुख

हिंदी में ‘मानदेय’ शब्द का इस्तेमाल गलत है!

Anjum Sharma-

हिंदी में ‘मानदेय’ शब्द का चलन बंद होना चाहिए।‌ यह शब्द प्रोफ़ेशनलिज़्म का विरोधी है। आप अपना समय, अपनी सेवाएं देंगे, आपको उसका भुगतान होगा तो क्या बग़ैर मान के होगा? अंग्रेज़ी में रेम्यूनरेशन शब्द है, क्या वहाँ मान नहीं?

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इसी ‘मानदेय’ शब्द के कारण कवि या कहानीकार ग्यारह सौ और इक्कीस सौ से बाहर नहीं आ पा रहा। पाँच हज़ार, दस हज़ार उसे ज़्यादा लगता है। जबकि वह उन बहुतेरे कवियों से लाख दर्जा बेहतर है जो मंच पर चुटकुले पढ़ रहे हैं। वह चाहता है कि उसे भी पचास हज़ार, एक लाख, दो लाख रुपए मिलें लेकिन उसकी नज़र में इतनी धनराशि मानदेय नहीं हो सकती है।

लेखक भी संकोचवश कहना नहीं चाहता जबकि उसे कहना चाहिए। उसे इस मानसिकता से बाहर आना होगा। इकॉनमी आगे बढ़ चुकी है। प्रकाशकों के पुस्तक बिक्री के आंकड़ों से लेकर आयोजनों और मेलों की संख्या और उसमें स्पॉन्सर्स लगातार बढ़ रहे हैं। उनकी शब्दावली भी बदल रही है लेकिन लेखक‌ के लिए ‘मानदेय’ नहीं बदल रहा।

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कुछ पढ़ने लायक टिप्पणियां-

Nazia Khan
मानदेय तो बहुत बड़ी बात है। ‘पारिश्रमिक’ नहीं दे पाएंगे लेकिन सम्मान ज़रूर मिलेगा’ वालों पर क्या कहना है, वह भी कोई छोटे प्रकाशक नहीं, करोड़ों के मीडिया हाउस वाले जिनके पास बस हिन्दी लेखकों के लिये ग़रीबी छाई है, चाहे कितना ही रेवेन्यू जनरेट कर लें।

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Asif Azmi
लेखक कह के देख ले, उसे फिर मानदेय के बराबर का भी काम नहीं मिलेगा। हॉं, ज़माना चुटकुले और लॉबिंग का है। चुटकुले और परफ़ॉर्मेंस तो खैर छोड़िए, लॉबिंग तो साहित्यक मानदेय वाले भी करते हैं, मजाल है जो अपने गिरोह से बाहर किसी को पूछ लें।

Bhagwant Anmol ·
मैं प्रकाशकों से पहले एडवांस की बात करता हूं फिर आगे बढ़ता हूं।
रही बात साहित्योत्सव में पैसा मांगने की तो कई जगह पर मिल जाता है और कई जगह पर कट जाता है।इसका मुख्य कारण है, लेखकों में एकजुटता का अभाव। आईआईटी कानपुर पिछले तीन वर्षों से मुझे बुलाने की कोशिश कर रहा था। मैं जैसे ही पैसे की बात रख देता, वह दूसरे लेखक को बुला लेता है। दूसरा लेखक फ्री में जाने के लिए बैठा है। अगर वह भी पैसा मांग ले तो बात बने। यहां एकजुट होना पड़ेगा।

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सोमेश्वर पांडेय
पारिश्रमिक शब्द है और शायद ज्यादा सही है. मानदेय तो लगता है जैसे अहसान किया जा रहा हो और कहा जा रहा हो ये पुष्प – पत्र ही आपके लिए बहुत है 😀

Nirdesh Nidhi ·
आपकी बात से सहमति है। मानदेय शब्द क्यों हो? लेखक को आत्मविश्वास के साथ कहना होगा। कई बार तो मानदेय कहकर भी कोई “देय” नहीं होता, अपना ही समय और धन व्यय करके लौट आता है बेचारा लेखक। संकोच ही है, और लेखक का फटा कुर्ता और झोला टाइप इमेज भी। यानी उसे जीवन यापन के लिए चाहिए ही कितना।
मैं एक दिन कोई कार्यक्रम देख रही थी टीवी में कोई साध्वी हैं जया किशोरी। उनसे कोई पूछ रहा था कि आप पैसे लेती है प्रवचन के ? वो बोलीं हां मैं तो पैसे लेती हूं क्योंकि मेरा घर कैसे चलेगा और मैं इतना बड़ी व्यवस्था बना कर रखती हूं वह कैसे चलेगी तो इसलिए पैसे लेना जरूरी है । ये प्रोफेशन है मेरा। मैं पैसे लूं इसमें क्या बुराई है! लेकिन कवि या लेखक ऐसा नहीं कह पाता, क्या लेखन फालतू ही है?

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Vaibhav Singh
‘मानदेय’ एक सुंदर शब्द है। हिंदी ने जिस शब्दावली को अपनाया है, उसमें अंग्रेजी की व्यवसायिकता की तुलना में अधिक आत्मीयता व सम्मान है। मानदेय शब्द सम्मान और पारिश्रमिक दोनों का संयुक्त अर्थ ध्वनित करता है। मानदेय में 500 रु है तो 25 हजार रु भी शामिल है। वैसे पारिश्रमिक, मेहनताना, रिम्यूनरेशन, पेमेंट आदि शब्दों का प्रयोग कर भी शोषण व अपमान किया जा सकता है और इन शब्दों के इस्तेमाल भर से लेनदेन में पारदर्शिता नहीं आ जाएगी।

Vijay Sharma
मानदेय अथवा किसी अन्य शब्द का प्रयोग किया जाए, क्य पत्रिकाओं या प्रकाशकों का रुख बदलेगा?
एक रचना के पीछे कितना श्रम होता है क्या यह बताने की बात है? देना नहीं है, क्या कर लोगे आप

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Pramod Tambat
मानदेय शब्द के इस्तेमाल से शोषण करने की छूट मिल जाती है। 10 हज़ार का काम लेकर पाँच सौ रुपट्टी मानदेय के नाम से टिपा दो और चलते बनो।

डॉराजेन्द्र गौतम
1968 में मुझ जैसे 15 साल के लड़के को एक छोटी-सी गद्य रचना के लिए ‘नवनीत’ ने 10 रुपये ‘मानदेय’ भेजा था। यदि आनुपातिक रूप में देखें तो हिन्दी के लेखक को मिलने वाला पारिश्रमिक कम ही हुआ है। जनवरी 2004 की बात है, मैं मॉरीशस में था तो एक दिन अभिमन्यु अनत (अब स्वर्गीय) ने भोजन पर आमंत्रित किया। बातों के दौरान उन्होंने बताया–” देखिए गौतम जी, कितना अजीब है। आज ‘लाल पसीना’ के फ्रेंच अनुवाद के लिए चेक आया है। उन्होंने सिर्फ अनुवाद अधिकार देने के लिए जितनी राशि भेजी है, उतनी मुझे भारत में प्रकाशित अपनी बीसियों कृतियों की कुल रॉयल्टी नहीं मिली है।”

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Rajendra Upadhyaya
मानदेय कौन देता है?सब मुफ्त में लिखते हैं, 50,100 का पत्र पुष्प मिलता है ,केवल इंद्रप्रस्थ भारती एक रचना का 5 हजार देती है, इतना तो साहित्य अकादमी भी नहीं देती, किताबों की Royalti तो देनी नहीं है क्योंकि किताबें बिकती नहीं है

मीनाक्षी मिश्र ·
अंग्रेज़ी का एक term है commercial viability.. नॉर्वे जैसे देशों में एक लेखक commercially viable इसलिये भी है चूँकि वहाँ लेखन उस occupation की तरह है, जिसमें passion तो शामिल है साथ ही उसके प्रति self esteem भी जुड़ा हुआ है.. लेखक पूरी ईमानदारी से अपना काम करे तो trajectory ऊपर की ओर ही जाएगी, और “मानदेय” शब्द के प्रति उसकी sensibility बढ़ेगी..

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Nihal Parashar
अंग्रेज़ी में ‘honorarium’ का प्रयोग होता है। हम ही करते हैं। थोड़ा सोफिस्टीकेटेड एक्सप्लोइटेशन के लिये।

डॉराजेन्द्र गौतम
जहां तक मुझे स्मरण आ रहा है, धर्मयुग ‘पारिश्रमिक’ शब्द का प्रयोग करता था। उस युग मे धर्मयुग का ‘मानदेय’ ‘पारिश्रमिक’ जैसा लगता भी था। सरकारी और गैरसरकारी पत्रिकाओं में मुफ्तखोरी या नाम-मात्र ‘मानदेय’ का चलन एक दशक से ज्यादा बढ़ा है। एक दशक से आकाशवाणी तक का पारिश्रमिक फ्रिज कर दिया गया है। ऑनलाइन कार्यक्रमों ने तो सरकार से भरपूर अनुदान पाने वाली शिक्षण-संस्थाओं को भी मुफ्तखोरी का चस्का लगा दिया।

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Manoj Bharti Gupta
शब्दो में अर्थ व्यक्ति भरता है… मेरे लिय प्रोफेशनल एक अश्लील शब्द है मेने इसकी आड़ में लोगो को पैसे के लिए आत्मा गिरवी रखते हुए पाया। काम का उचित मूल्य लेना आना चाहीए,और हर बार मूल्य पैसा ही नहीं होता। पैसे से पहले भी ( बार्टर सिस्टम में ) समझदार लोग मूल्य निर्धारण कर लेते थे। नए शब्दो का निमार्ण और चलन इसमें सहायक हो सकता है लेकिन उच्च गुणवक्ता पूर्वक काम,काम करने के ख़ास तरीके और व्यक्ति के चरित्र पर सबकुछ निर्भर है। मेने फोटोग्राफी में कस्टमर्स को अपनी बारी के लाईन उतवाला खड़ा पाया है। बड़े पुलिस अधिकारी को काम पर अपडेट होता पाया। घमंडी, चालाक,धुर्त और चोर भी मिले लेकिन उनके ये अवगुण उनको ज्यादा ढगते हैं। बाकि उनसे उचित दूरी एक अचूक हल है।

Manisha Kulshreshtha
अंजुम लेखक अपने श्रम की कीमत मांगते तक तो पता नहीं किस स्यूडो नैतिकता में घिर जाता है। मैं जब भी रॉयल्टी के अधिकार की बात करती हूं एक चुप्पी पसर जाती है। छपना बंद हो जाने का डर…. इस संदर्भ में प्रियंवद आदर्श प्रस्तुत करते हैं उन्होंने राजधानी के प्रकाशकों के कॉन्ट्रेक्ट की अटपटी और लेखक के अधिकार कतरती बातों को खारिज किया और दिल्ली से छपना बंद कर दिया। पर उनकी लोकप्रियता कभी कम नहीं हुई।

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