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मैंने हमेशा मंगलेश जी को वीरेन दा की निगाहों से देखा

दिनेश श्रीनेत-

दो दोस्तों की दास्तान !

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कालेज से निकलकर पत्रकारिता शुरू करते ही वीरेन डंगवाल मिले- कभी कवि, कभी संपादक और कभी एक सह्रदय इंसान के रूप में। मगर इससे भी अभूतपूर्व थी उनकी दुनिया। वीरेन जी के साथ-साथ एक पूरा संसार चलता था। जाने कितने लोग, कितनी बातें, किस्से, किताबें उनके साथ चलते थे। मंगलेश डबराल उनके किस्सों से निकलकर सामने आए। हर फुरसत वाली मुलाकात में उनके पास इलाहाबाद, लखनऊ के किस्से होते थे और उन किस्सों में मंगलेश डबराल।

वीरेन डंगवाल और मंगलेश डबराल

इससे पहले मैं मंगलेश जी को ‘पहाड़ पर लालटेन’ की अविस्मरणीय कविताओं के जरिए जानता था। मुझे याद है जब वीरेन जी के बड़े बेटे की शादी हुई थी तो वीरेन जी ने मेरा परिचय मंगलेश जी और पंकज बिष्ट से कराया था। समय बीतता गया, जब मैं दिल्ली एनसीआर पहुँचा तो मंगलेश जी मेरे पड़ोसी बन गए। उन्हीं दिनों कैंसर से लड़ रहे वीरेन जी भी इंदिरापुरम रहने लगते थे। वीरेन जी की जिंदादिली मेरे लिए आजीवन प्रेरणा रहेगी। कैंसर के दौरान भी वे उसी बेफिक्री और मस्ती में रहते थे।

मैंने हमेशा मंगलेश जी को वीरेन दा की निगाहों से देखा। वीरेन जी वाचाल, हंसोड़ और मुंहफट थे। मंगलेश जी इसके विपरीत अंतर्मुखी लगे। पड़ोसी होने के नाते हमारी मुलाकात कभी सीढ़ियों पर होती थी, कभी आती-जाती मेट्रो या फिर दिल्ली में आयोजित किसी प्रोग्राम में। अपने जीवन के इस उत्तरार्ध में उन्होंने अपनी कविताओं को वैश्विक विस्तार दिया था। विश्व कविता के बेतरीन अनुवाद मंगलेश जी की वजह से ही संभव हो सके।

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मुझे निजी तौर पर उनकी दो कविताएं अपने शांत में लहजे में बहुत सशक्त लगती है। पहली ‘तानाशाह’ और दूसरी ‘गुजरात के एक मृतक का बयान’। दोनों का निःसंग बयान देश में तेजी से बदलती राजनीति का मजबूत प्रतिरोध बनकर सामने आया। ‘एक मृतक का बयान’ को निसंदेह हिंदी की कुछ सबसे बेहतरीन कविताओं में रखा जा सकता है। इस कविता की बहुत सी पंक्तियों को पढ़कर भाषा में निहित संभावनाओं को समझा जा सकता है –

“जब मुझे जलाकर पूरा मार दिया गया
तब तक मुझे आग के ऐसे इस्तेमाल के बारे में पता नहीं था”

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या फिर –

“और जब मुझसे पूछा गया तुम कौन हो
क्या छिपाए हो अपने भीतर एक दुश्मन का नाम
कोई मज़हब कोई तावीज़
मैं कुछ कह नहीं पाया मेरे भीतर कुछ नहीं था
सिर्फ़ एक रंगरेज़ एक मिस्त्री एक कारीगर एक कलाकार”

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इसी तरह से ‘तानाशाह’ सपाट गद्य की शैली में लिखी गई कविता है, मगर भाषा का यही प्रयोग अपने समय की राजनीतिक हिंसा को पहचानने का टूल बन जाता है –

“तानाशाह मुस्कुराता है भाषण देता है और भरोसा दिलाने की कोशिश करता है कि वह एक मनुष्य है लेकिन इस कोशिश में उसकी मुद्राएं और भंगिमाएं उन दानवों-दैत्यों-राक्षसों की मुद्राओं का रूप लेती रहती हैं जिनका जिक्र प्राचीन ग्रंथों-गाथाओं-धारणाओं- विश्वासों में मिलता है।”

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विष्णु खरे, वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल का अचानक जाना इसलिए भी दुःखद है क्योंकि यह वो समय है जब भाषा की ताकत की सबसे अधिक जरूरत थी। भाषा का सबसे ज्यादा दुरुपयोग हो रहा है। टीवी चैनलों, अखबारों, वेबसाइट और हर कहीं… चारो तरफ। कविताएं तो लिखी जाती रहेंगी मगर ये दोनों कवि हमेशा हमेशा याद रहेंगे, एक कवि को भाषा में जरूरी तोड़फोड़ करते हुए उसे मृत होने बचाने के लिए, तो दूसरे कवि को उसी भाषा के संतुलित इस्तेमाल के लिए।

मेरे लिए वीरेन दा और मंगलेश डबराल को अलग अलग करके देखना संभव नहीं है। मालूम नहीं मगर वे इसी रूप में मेरी स्मृति में पैठे हैं। दो चेहरे, दो दोस्त, दो कवि। कुदरत की गोद से उतर कर अपनी दुनिया को परखते-सहेजते हुए। वीरेन दा के जाने का आधा अंधेरा जैसे काफी नहीं था, मंगलेश जी के जाने से यह एक मुकम्मल अंधेरे में बदल गया।

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वीरेन दा की कविता ‘रात-गाड़ी (मंगलेश को एक चिट्ठी)’ याद आ रही है। जो इन पंक्तियों पर खत्म होती है –

“फिलहाल तो यही हाल है मंगलेश
भीषणतम मुश्किल में दीन और देश।
संशय खुसरो की बातों में
ख़ुसरो की आँखों में डर है
इसी रात में अपना घर है।”

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पलाश विश्वास-

मंगलेश दा से 1979 में इलाहाबाद में पहली मुलाकात हुई।

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मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शोध के लिए गया था और वे अमृत प्रभात में साहित्य सम्पादक थे।

खुसरो बाग में मंगलेश दा और वीरेन दा डंगवाल एक साथ रहते थे सुनील श्रीवास्तव के घर में। मैं 100 लूकरगंज में शेखर जोशीजी के घर रहता था। खुसरो बैग में ही उपेन्द्रनाथ अश्क रहते थे। उनका बेटा नीलाभ वीरेनदा और मंगलेश दा के खास दोस्त थे।

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वीरेनदा नैनीताल आते जाते थे। शुरू से वे नैनीताल समाचार से जुड़े थे। मंगलेश दा तभी से हमारे प्रिय कबि थे।

मंगलेश दा ने पहले मुझे अमृत प्रभात में रखने की कोशिश की तो बात नहीं बनी। मेरे पास इलाहाबाद Mइन रुकने का कोई आर्थिक आधार नहीं था। इसलिए उन्होंने ही जेएनयू जाने और वहां फ्रीलांसिंग करने का सुझाव दिया। इलाहाबाद में गाइड से मेरी बनी नहीं।इसलिए मैंने भी दिल्ली जाने तय किया।तब रामजी राय भी इलाहाबाद में थे। हमारे इलाहाबाद छोड़ने के बाद मंगलेश दा लखनऊ गए।

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इलाहाबाद की सड़कों पर मंगलेश दा और वीरेनदा के साथ पैदल घूमना हर रोज का किस्सा था। फिर मंगलेश दा हमें सिविल लाइन्स में खाना खिलाते । साथ साथ हम रेलवे जंक्शन का पल पार करके खुसरो बाग और लूकरगंज पहुंचते।

में शोध किये बिना धनबाद दैनिक आवाज चला गया 1980 में। जनसत्ता निकला तो मंगलेश दा नई दिल्ली चले गए।1984 में मैं फिर दैनिक जागरण मेरठ आ गया। तबसे महीने में एक बार जरूर दिल्ली जाना होता था।

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मंगलेश डबराल,आनन्दस्वरूप वर्मा और पंकज बिष्ट इन तीनों से अभी तक सम्बन्ध निरन्तर बने हुए थे। 1991 में में भी जनसत्ता कोलकाता चला गया।

वीरेनदा तो पहले ही चल दिये। अब मंगलेश दा।

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कोरोनकाल में अनेक प्रिय लोगों को इसतरह खोना पड़ा।लेकिन चार दशक की अंतरंगता के इतने दुःखद अंत से स्तब्ध हो गया हूँ। चार दशक की यादें दिलोदिमाग में उमड़ घुमड़ रही है।

दो साल हुए अल्मोड़े में शमशेरदाज्यू गुजर गए।
एक के बाद एक प्रतिबद्ध लोग उस वक्त साथ छोड़कर जा रहे है,जिनकी इस दुस्समय में सबसे ज्यादा जरूरत थी।

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कुछ दिनों पहले देशबन्धु के सम्पादक ललित सुरजन भी चले गए।

क्रमशः हम लोग अलग थलग पड़ते जा रहे हैं।

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यह सामाजिक सांन्स्कृतिक क्षति जितनी बड़ी है,उसके आगे हमारी यादों और निजी क्षति का कोई मतलब नही है।

लेकिन भीतर से अपना वजूद किरचों की तरह बिखर रहा है। कोरोना काल का यह सबसे जहरीला दंश है।

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अरविंद कुमार सिंह

सादर नमन- मंगलेशजी… साहित्य में अमर रहेंगे मंगलेशजी…

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2020 जाते जाते मंगलेशजी को भी हमसे दूर कर गया। एक बेहतरीन रचनाकार और बेहतरीन इंसान थे मंगलेशजी। मेरी उनकी एक मुलाकात पढ़ाई के दिनों में इलाहाबाद में हुई थी। लेकिन दूसरी मुलाकात एक चिट्ठी के जरिए हुए। वे चाहते थे कि मैं इलाहाबाद में संगम पर रविवारी जनसत्ता में एक फीचर लिखूं। विषय था भोर का संगम। वह लेख छपा नहीं, कहीं गायब हो गया। बेहतरीन फोटो और आलेख तैयार किया था बड़ी मेहनत के साथ। लेकिन उसके बाद कोई लेख गायब नहीं हुआ।

मंगलेशजी का ही सुझाव था कि जब लिख रहे हो तो कार्बन लगा लिया करो। एक कापी तो आपके पास सुरक्षित रहेगी। लेकिन उस लेख के लिखने के क्रम में बहुत कुछ नया देखने समझने को मिला। संगम पर भोर के चार से पांच बजे का वह नजारा आज तक मैं नहीं भूल पाया हूं। कभी विस्तार से लिखूंगा। उसके बाद मंगलेशजी का एक पत्र शैलेश मटियानी जी किसी समस्या को लेकर आया था, जिसके बारे में मेैं न केवल जानता था बल्कि उस पर लिखा भी था। वे चाहते थे कि इसकी जानकारी भी मटियानी जी को न हो और मदद हो जाये।

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दिल्ली आने के बाद मंगलेश जी के लगातार संपर्क में रहा। कई बार उनके कहने पर रेलवे और अन्य विषयों पर लिखा। उनकी विराट यात्रा और बहुत ताकतवर रचनाएं हमेशा मुझे प्रभावित करती रहीं। बीते साल मेरे एक मित्र की बेटी की शादी में मनोहर नायकजी के साथ उनसे भी लंबी मुलाकात और बातचीत हुई थी। बहुत सी बातें। फिर मिलना नहीं हुआ। उनके जैसे बेहतरीन इंसान और लेखक कवि का जाना भारत के साहित्य और पत्रकारिता की एक बड़ी क्षति है। मेरा सादर नमन…

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