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सुख-दुख

मांसाहार भी एक तरह का एडिक्शन है!

Yashwant Singh-

ओशो को कहीं पढ़ा या सुना था… सौ बात की एक बात कही थी उनने… प्रेम और करुणा की मूल भावना के बिल्कुल विपरीत छोर पर है जीव हत्या… इसलिए मांसाहार किसी सूरत में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता, खासकर जो enlightenment के रास्ते का राही हो!

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मुझे ये तर्क हर तर्क पर भारी लगता है

हम अगर थोड़े भी आध्यात्मिक हों, आंतरिक यात्रा पर थोड़ा सा भी चल निकले हों तो साक्षात जीव हत्या से जुड़ा कुछ भी न करेंगे।

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सदगुरु को मछली खाने की वकालत करते देख ये ख़याल आया। सच्चा उपासक पक्का साधु ज़रूरत पड़ने पर अपनी देह को भोजन के रूप में किसी भूखे जानवर को पेश कर सकता है। पर कितना भी भूखे रहने पर दूसरे किसी जानवर को नहीं खा सकता।

मांसाहार असल में हमारे डीएनए में है, नशे की तरह कनेक्ट है अपन से, सदियों से इसका एडिक्शन है। हम बेहोशी में खाते हैं। ये छूटते छूटते छूटेगा।

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बस ध्यान रखिए… प्रेम और करुणा के चरम पर पहुँचा आदमी किसी की भी हत्या से खुश प्रसन्न नहीं हो सकता। मरे का मांस ख़ाना तो बड़ी दूर की बात है।

चित्र- हरिद्वार जाते वक़्त एक चिड़िया को मरते गिरते देखा। गार्ड ने भी देखा मैंने भी देखा। बिजली के खंभे से लुढ़कते देखा। आसमान की तरफ़ पाँव फैलाए धरती से मुक्त होते देखा… अंबर ने देखा धरती ने देखा एक नन्ही जान को जाते देखा …

ये पोस्ट Sushobhit को समर्पित जो हमारे दौर के एक अदभुत महापुरुष हैं… सच में!

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भड़ास एडिटर यशवंत की एफबी वॉल से.

कुछ प्रतिक्रियाएं-

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Vinod Nautiyal
ओशो ने कहा जो व्यक्ति अपने खाने के लिए जीवन का नष्ट करता हो वह कभी आध्यात्मिक नही हो सकता क्योंकि उसमें करूणा नही है।

Yashwant Singh
हाँ एक्जेक्टली यही कहा था। शुक्रिया ठीक ठीक याद दिलाने के लिए।

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Shambhu Dayal Vajpayee
स्वामी राम कृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद और गौतम बुद्ध आदि को क्या कहेंगे …. साधु-संत ,आध्यात्मिक साधक शायद हर देश-काल में हुए हैं ,मांसाहारी देशों में भी। छठे गुरू हर गोविंद से लेकर उनके पौत्र गुरू गोविंद सिंह तक मांसाहार भी करते थे।

Yashwant Singh
संपूर्ण कोई भी नहीं होता भाई साहब। हो सकता हो वो लोग गिल्ट के साथ खाते रहे हों। हो सकता है वो इसके लती हों, एडिक्शन हो उन्हें इसका… इसलिए हमें उनका अच्छा वाला पार्ट देखना है, कमजोर वाला पार्ट पकड़ कर नहीं बैठना है।

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Ratanjeet Singh
इतने बड़े बड़े महापुरुष भी गिल्ट रखते होंगे ?

Yashwant Singh
हर महापुरुष एक पुरुष भी होता है…

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Vinod Nautiyal
बुद्ध ने जीव हत्या पाप है का उपदेश किया पर माँस खाना पाप है इस पर चुपी रखी इस चुपी से बौद्ध दो भागों मे बट गया एक मांसाहारी और दूसरा शाकाहारी ,इसलिए बुद्ध के शरण मे गए अधिकतर मांस खाते हैं।

Sant Osh
बहुत सुंदर विषय और बहस – परन्तु जिस विकसित चेतना के साथ आपने मुद्दे को उठाया है उसके आसपास पहुंचे बहुत कम लोग हैं। जैसे-जैसे आप आध्यात्मिक होंगे प्रत्येक जीव के प्रति प्रेम और करुणा का भाव ही आपमें विकसित होगा मांसाहार कभी आध्यात्मिक नहीं हो सकता…!

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Smeer Sam
भाई मैं भी दोस्तों के साथ मीट खाना शुरू किया था, लेकिन एक बार जब उनके साथ मीट लेने दुकान पर गया, और मुर्गे को एक छुरी लगे हुए डिब्बे में फडफडाते देखा, कसम से मोह भंग गया मीट से

फूल सिंह
भौगोलिक परिस्थिति से परे मांसाहार बस आदतन और शौक का परिणाम है, वैसे अधिकांश मनुष्यों में किसी तर्क को समझने लायक बुद्धि होती ही नहीं। ऐसे में विरोधी विरोध करेगा, समर्थक वाहवाही, अपने कम्फर्ट से परे सोचना हर किसी के बस की बात नहीं

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Rajendra Singh
पिछले दिनों एक और आश्चर्य सामने आया, स्वामी विवेकानंद के मांसाहारी होने पर प्रश्न उठाने वाले इस्कान के स्वामी को ही कटघरे में खड़ा कर दिया गया, उनपर इस्कान ने प्रतिबन्ध तक लगा दिया। कोई व्यक्ति किसी कारण प्रसिद्ध हो जाये तो क्या उसके अवगुणों को सामने लाना अपराध है?

Ratanjeet Singh
जो अध्यात्मिक हो जाए और बिना किसी आडम्बर और दिखावे के सच में गति के करीब पहुंच जाए तो उसके लिये भोजन करना ही बहुत बड़ा बोझ बन जाता है।
आज तक के मानव इतिहास में शायद ही बुद्ध जैसा आत्म्दर्शी कोई हुआ हो, जो मरे हुए जानवर का मांस खाने को सही कहते हैं।

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Pushkin Kumar
माँसाहार करने वाले मनुष्य अहिंसा की बात करने का अपना नैतिक अधिकार खो देते हैं।

Satyendra PS
प्रेम और करुणा का खानपान से कोई सह सम्बन्ध नहीं है। कोई शाकाहारी व्यक्ति, बकरी या कुत्ता प्रेमी व्यक्ति सम्भव है कि कुत्ता को समर्पित हो और मनुष्यों का खून पीने को उतारू हो और अक्सर ऐसा देखा भी गया है। लोग कुत्ते बंदर को बिस्किट खिलाते हैं और वही बगल में कोई भूखा बच्चा ललचाई नजर से बिस्कुट देख रहा होता है कि काश मुझे भी मिल जाता।

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और अगर ओशो के कोट्स की बात करें तो उन्होंने एक भाषण में किसी शोध का हवाला देकर यह भी कहा है कि मांस खाने वालों की तुलना में शाकाहारी लोग ज्यादा खूंखार और हिंसक होते हैं।

मांस खाने वाले तो किसी दूसरे जीव की हत्या करके करुणा बोध कर लेते हैं लेकिन शाकाहारी लोग मनुष्यों के ही शत्रु बन जाते हैं। ओशो को पूरा सुनेंगे तो पाएंगे कि वह पक्के बाबा थे। जो मन हो बोल दीजिए, प्रभु की कृपा से जनता तो बैठी ही है ताली बजाने। उनके सैकड़ों बयान मिलेंगे जो एक दूसरे से कंट्राडिक्ट करते हैं। उसी में से एक मांस वाला बयान भी है।

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Yashwant Singh
ये विषय गणितीय नहीं है। भावना, करुणा और प्रेम से जुड़ा है जिसका एक ही फार्मूला है कि उच्चतर चेतना का जीव जो अपनी मेधा के ज़रिए प्रकृति प्रदत्त इंस्टिंक्ट को रेगुलेट कर सकता हो, कभी किसी को दुखी नहीं देख सकता। मारना और ख़ाना तो दूर की बात है। आप इफ बट किंतु परंतु को छोड़िए … दुनिया को छोड़िए… दुनिया वालों को छोड़िए… इस दुनिया में भाँति भाँति के लोग… कुछ तो… और कुछ …

Satyendra PS
if but कहाँ है? यह चेतना के लेवल की बात है। अगर आपकी करुणा आपकी फेमिली तक है तो उसी तक सहृदय रहते हैं। अगर वह चेतना विस्तृत होती है तो दायरा बढ़ता जाता है।

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Awanit Shukla
जीव दया और मांसाहार में सीधा संबंध है क्या ? दूध के लिए बांध रखने में हिंसा है या नही ….यदि नही तो अंडे के लिए पाले गए मुर्गी ? सनद रहे उन अंडों का निषेचन नही हो सकता… पेस्टिसाइड को कैसे जस्टिफाई कर पाएंगे ? छोटे जीव जैसे कॉकरोच , मच्छर , चींटी , घुन , दीमक, चूहे ये सब जीव है या नही….फिर एक नई परिभाषा आएगी नुकसान न पहुचाने वाले जीव… तब किसानों के फसल को नुकसान पहुचा रहे आवारा मवेशियों के क्या करे…? अपने अवधारणा के पूर्वाग्रह लादने का प्रयास व्यर्थ है…एनलाइटनमेंट एक अवधारणा है….प्रकृति का अपना तरीका है संतुलन…जहाँ जहाँ सभ्यता और प्रकृति का संघर्ष होगा अंतिम विजेता प्रकृति ही होगी…

Yashwant Singh
भई हम लाद नहीं रहे, अपनी सोच बयान कर रहे। आप अपनी अवधारणा बनाने के लिए स्वतंत्र हैं। मैं उच्चतर कोटि के मनुष्यों के गुण धर्म को लेकर चर्चा कर रहा था। पशु, जो कि मनुष्यों में भी बहुतायत में हैं, अपने नेचुरल इंस्टिक्ट के साथ ही जियेगा। वो इंस्टिक्ट को रेगुलेट करने लायक़ चेतना नहीं रखता न। 🙏🏼

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Awanit Shukla
खानपान से कोटि का निर्धारण भी पूर्वाग्रह है ईस्ट का …क्या हम जीसस से लेकर रामकृष्ण परमहंस , विवेकानंद तक के लोगो की आध्यात्मिक उपलब्धि को नकार दे क्योकि वे माँसाहारी थे….मैं खुद शाकाहारी हु क्योकि मेरा पोषण ही ऐसा है…पर मांसाहार और अध्यात्म को जोड़ने के अतिरेक से बचना चाहूंगा…आपके विचारों से असहमति के बाद भी सम्मान तो है ही …

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2 Comments

2 Comments

  1. Ravindra nath kaushik

    August 10, 2023 at 6:25 pm

    यशवंत जी, लोकोक्ति है -जैसा खावे अन्न,वैसा होवे मन। जहां तक शाकाहारी के हिंसक होने के तर्क हैं तो अपना आदर्श है – परित्राणाय च साधुनां,विनाशाय च दुष्कृताम। दुष्ट को दुष्टता से रोकना है और यह उसकी हत्या बिना संभव नहीं है तो बिना अपराध भावना पाले उसे पाप का साधन बनने वाले शरीर से मुक्त करने में कोई पाप नहीं। यह कोई तर्क नहीं कि बे ज़ुबान को मारकर खाना जायज है और जबान वाला भले हत्यारा, बलात्कारी और सब प्रकार का उत्पीड़क, अत्याचारी हो तो उसे शरीर मुक्त करना ज्यादा बड़ा अपराध है। अब यह न कहिए कि फिर शासन दंडित करेगा। अगर मैं अपने सिद्धांत का पक्का हूं तो दंड भी झेल लूंगा।

  2. Ajay Kumar

    August 13, 2023 at 4:48 pm

    आज घोर कलयुग का समय है । पाखंड का बोलबाला है । जिन साधुओं , पुजारियों या धार्मिक लीडरों ने हमें सीधी राह लगाना था, उनमें से अधिकांश मांस खाते व शराब पीते हैं, भांग, तंबाकू, सुल्फा, चरस, अफीम और अन्य नशीली वस्तुओं का प्रयोग करते हैं और दूसरे लोगों को भी इन वस्तुओं का प्रयोग करने का उपदेश देते हैं। वे लोग इस बात को साबित करने की पूरी कोशिश करते हैं कि हमारे धार्मिक रहनुमा भी अपने जीवन काल में इन वस्तुओं का प्रयोग करते रहे हैं। सारे धार्मिक नेता विशेषकर सिख गुरु साहिबान मांस खाने, शराब पीने, या किसी और नशीली चीज की प्रयोग करने के सदा कट्टर विरोधी रहे हैं। गुरु साहिबानो के कई हुक्मनामे इस बात की पुष्टि करते हैं। इसके अलावा सिख धर्म अते मांस शराब नामक पुस्तक (सरदार जे पी संगत सिंह) में पृष्ठ संख्या 121 पर लिखा है कि श्री गुरु गोबिंद सिंह साहिब एक दफा लंगर (community kitchen) के स्थान पर गए । वहां लोहे (भट्टियां) तप रही थी और प्रसादे बन रहे थे। आप एक लोह के पास जाकर खड़े हो गए, और हुक्म दिया कि इसको ठंडा कर दिया जाय। ईंधन झोंकने वाले ने जब लोह के नीचे से जलती हुई लकड़ीया निकाली तो क्या देखता है कि लोह के नीचे एक लकड़ी के साथ किसी जानवर की हड्डी का टुकड़ा भी चला गया है, और ईंधन के साथ वह भी जल भुन रहा है। इस पर गुरु साहिब ने ईंधन झोंकने वाले को डांटा और कहा कि इस बात का ख्याल रखा करे कि ईंधन के साथ मांस, हड्डी जैसी गंदी वस्तु लंगर में न जाने पाए। जो लंगर (भोजन) पक चुका था, वह सारा कुत्तों व कौवों के आगे फिकवा दिया, ताकि अपवित्र ईंधन से तैयार लंगर संगत में ना बांटा जाए। फिर सारे बर्तन साफ करवा के दुबारा लंगर तैयार करवाया। साथ ही सेवादारों को कड़ी हिदायत की कि आइंदा के लिए पूरी सावधानी से काम लें ताकि मांस हड्डी जैसी अपवित्र वस्तु लंगर की सीमा में न जाने पाए। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि लंगर में मांस जैसे भ्रष्ट ब अखाद्य पदार्थ का बनना तो दूर, गुरु साहिब मांस हड्डी से छू जाने वाले ईंधन से तैयार हुआ लंगर भी अपवित्र समझते थे।

    एक और बात जो विशेष ध्यान देने योग्य है कि संत निरंतर परोपकार के कार्य में व्यस्त रहने के कारण अपने जीवन के बारे में कुछ नहीं लिख पाते. ना तो इस कार्य के लिए उनके पास समय होता है, और ना ही वे ऐसी कोई इच्छा रखते हैं. उनके चोला छोड़ जाने के बाद उनके कुछ सेवक अपनी मन बुद्धि द्वारा उनके जीवन संबंधी बातें लिख देते हैं. कोई कुछ लिखता है और कोई कुछ. और यह सब बाद में विवाद और झगड़े का विषय बन जाता है. संतों की हर छोटी सी बात में भी एक अजीब राज छिपा रहता है, जिसकी असलियत कोई बिरला अभ्यासी ही समझ सकता है, बाकी सब तो अपनी अपनी मन और बुद्धि द्वारा उसमें से अपने स्वार्थ की बात निकाल लेते हैं. संतों के चोला छोड़ जाने के बाद मन और बुद्धि और मतलब परस्त जोर पकड़ लेते हैं, जिनके प्रभाव द्वारा निजी स्वार्थ के लिए लोग कई प्रकार की झूठी सच्ची बातें करने लग जाते हैं.

    भांग माछुली सुरा पानि जो जो प्रानी खांहि ॥
    तीरथ बरत नेम कीए ते सभै रसातलि जांहि ॥1371/4 म . 5॥

    गुरु नानक साहिब फरमाते हैं :-
    जो दीसे सो तेरा रूप (आदि ग्रन्थ 724 )
    सरब जीआ महि एको रवै ( २२८/७ म. १ )
    धौल धर्म दया का पूत (जपुजी)
    गुरु नानक साहिब दयाहीन साधु या सिद्ध को कसाई कहते हैं
    दया बिन सिद्ध कसाई (जपुजी)

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