मन बहुत दुखी होता है सुनकर जिन छात्र-छात्राओं ने पत्रकारिता को चुनकर अपनी मंज़िल को तलाशना चाहा आज वो छात्र एक छोटी सी नौकरी की आस लगाए बैठें हैं…हर रोज़ संघर्ष कर रहे हैं कि उन्हें कोई तो नौकरी मिले जिसके सहारे वो अपनी छोटी सी ज़िन्दगी के सपने पूरे कर सकें। बात कड़वी ज़रूर है लेकिन 100 फीसदी सच है जिसे इनकार नहीं किया जा सकता।
संघर्ष…बहुत सुना है ये शब्द और नज़दीक से देखा भी है। बहुत सारे दोस्त ऐसे हैं जो आज भी इसी संघर्ष में कहीं गुम हो गये हैं।
हर रोज़ इस संघर्ष से लड़ रहे हैं लेकिन मंज़िल की एक सीढ़ी भी उन्हें दिखाई नहीं दे रही…अब ये समझ नहीं आता कि इस संघर्ष के पीछे कौन ज़िम्मेदार है….वो छात्र-छात्राएं की लापरवाही जो पत्रकारिता की पढ़ाई को अच्छे ढंग से नहीं पढ़ पाए या फिर वो महंगे-मंहगे प्राइवेट संस्थान जो झूठ-फरेब के ताने-बाने बुनकर नये-नवेले पत्रकार बनने वाले उन बच्चों को ऐसे-ऐसे सपने दिखाते हैं कि एडमिशन के दिन ही उन्हें Aaj Tak और Zee न्यूज़ में एंकर बना देंगे….
लेकिन असलियत तो कुछ और ही होती है और वो असलियत तब सामने आती हैं जब बच्चे फाइनल का रिज़ल्ट हाथ में लेकर संस्थानों से ये आस लगाते हैं कि उन्हें किसी न्यूज़ चैनलों में ही नहीं किसी छोटे-मोटे वेब पोर्टल में ही कोई प्लेसमेंट करा दे, और फिर प्लेसमेंट जैसे शब्द को संस्थान ऐसे इग्नोर करता है जैसे इस शब्द को कभी उसने बड़े-बड़े पोस्टरों व बैनरों में प्रकाशित ही ना किया हो… दहाड़े मार-मार कर एडमिशन के टाइम इस ढकोसले का उल्लेख ही ना किया हो। बात सच है लेकिन कड़वी है।
आज जब एक साथ में पढ़ने वाले दोस्त से फोन पर बात हुई तो वह मन से इतना दुखी था जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता… बहुत समझाया, साहस बढ़ाया लेकिन क्या फ्यादा सच तो उसे भी पता है। जिस कामयाबी के उसने 5 साल तक पढ़ाई करके सपने देंखे आज वो कामयाबी दूर-दूर तक भी उसे दिखाई नहीं दे रही। मां-बाप का सहारा बनने की बजाय वो आज भी परिवार पर बोझ बना हुआ है। और सच तो ये है कि ये एक दोस्त की नहीं सैंकड़ों दोस्तों की ये ही दास्तां है।
विकास कुमार
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Sunil Kumar
October 8, 2020 at 6:43 pm
ये हिंदी नॉवेल इसी धंधे को बड़ी अच्छी तरह नंगा करता है। वक्त से या लुट जाने पर भी मरहम का काम करेगा
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