सन 1992 मेरे लिए बड़ी भागदौड़, बदलाव और चुनौतियों का साल था। हाईकोर्ट की अवमानना के मुकदमे के साथ ही ये मेरे विवाह का साल भी था। अक्टूबर में मेरी शादी हो गई और मेरी आवारगी, मस्तमौलापन सब तिरोहित हो गया। जिम्मेदारियां बढ़ गईं। घर के खूंटे से जो बंध चुके थे। पत्नी का आग्रह था कि अकेले नाटक नहीं देखूं, तो मेरा आग्रह था कि वे शाम को रवीन्द्र मंच पर पहुंच जाएं। मैं भी ऑफिस से सीधे रवीन्द्र मंच पहुंच जाऊंगा। फिर साथ में नाटक या कोई और कल्चरल प्रोग्राम देखते हुए घर लौट आएंगे, पर वो तैयार नहीं थीं।
अंततः जीत उन्हीं की हुई। अब मुझे शाम को एक बार उन्हें लेने घर जाना पड़ता। फिर हम नाटक वगैरहा देखते हुए, या यूं ही घूमते हुए घर लौट आते। मैं बिल्कुल अच्छा बच्चा जैसा बन गया था। ऐसा बनूंगा यह कभी सोचा भी न था। शादी के बाद मकान घर में बदल जाता है और फिर यह तय होता है कि वह स्वर्ग बन रहा है या नरक। मेरा घर भी बन रहा था। पत्नी अच्छी दोस्त साबित हुईं। मेरे लिखे की पहली आलोचक वो ही होती।
वैसे मेरे लिखे की तो नहीं पर मेरे किए नाटकों की आलोचना करने मैं मेरी मां भी पारंगत थीं। इन बेबाक टिप्पणियों से दिशा भी मिलती और शायद हौसला भी। पर निजी जिंदगी में तेजी से होते ये बदलाव एक कटु सच थे। समय अपनी गति से भाग रहा था और जिंदगी मंथर गति से बदल रही थी। मेरे बस में कुछ भी नहीं था, सिवाय घटनाओं को देखने के। उस समय तो सबक लेने की भी समझ नहीं थी। हां इस बीच अवमानना मामले का मुकदमा भी चला। मेरी तरफ से मजदूरों के पैरोकार प्रेमकिशन शर्मा ने पैरवी की तो माया प्रकाशन के संपादक और प्रकाशक की तरफ से महेश दौसावाला ने। मुकदमे की सुनवाई पूरी कर जजों ने फैसला रिजर्व कर दिया।
इधर, मैं एक बच्चे का पिता बन चुका था, जिम्मेदारियां बढ़कर आकार लेने लगीं थीं पर शायद मैंने उनकी आहट ही नहीं सुनी। मेरी सारी ऊर्जा दोस्तों से मिलने, मिलकर बतोले करने, माया के लिए अच्छी स्टोरी ढ़ूंढ़ने या फिर शाम को नाटक की रिहर्सल करने में लग रही थी। उन दिनों हम अशोक राही के साथ मिलकर जयपुर इप्टा को मजबूत बनाने में लगे थे। प्रेस क्लब भी खुल चुका था और अब कॉफी हाउस को दिया जाने वाला समय प्रेस क्लब के साथ बंटने लग गया था। कुल मिलाकर लाइफ और लाइफ स्टाइल दोनों में, दबे पांव ही सही, परिवर्तन आ चुका था।
वरिष्ठ पत्रकार धीरज कुलश्रेष्ठ के एफबी वॉल से