आशीष मिश्रा-
लगभग दो दशक पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में सत्यप्रकाश मिश्रजी ने एक गोष्ठी आयोजित की थी। विषय था – आलोचना का लोकतन्त्र। उसमें हर धारा के प्रतिष्ठित लोग शामिल थे और वैसी वैचारिक गहमा-गहमी की अब बस कल्पना कर सकते हैं।
मेरे जीवन में इस गोष्ठी की भूमिका बहुत डिपार्चरस है। मैंने पहलीबार महसूस किया कि आलोचना का हर वैचारिक संघर्ष सामाजिक संघर्ष भी है। मेरे मन में पहली बार यह प्रश्न पैदा हुआ कि इन वैचारिक- सामाजिक संघर्षों में मैं कहां हूं?
उस गोष्ठी में मैंने दुबले-पतले, ढील ढाल पैंट-बुशर्ट पहने साही जैसे बालों वाले एक व्यक्ति को देखा। मिस यूनिवर्स की तरह कंधे से कमर तक खिंची हुई झोले की डोरी, साफ-प्रभावी आवाज़, आवेग, आत्मविश्वास से दीप आँखें और उसके एक लय में उठते- गिरते हाथ- कभी तलवार, कभी चप्पू तो कभी पंख लगते थे। उसके बाहरी विन्यास, तर्कशीलता और नितांत व्यावहारिक दृष्टांतों से ऐसा लगता था कि जैसे यह आदमी किसान मजदूरों के किसी धरना प्रदर्शन से समय निकालकर यहां आ गया हो और जल्दी से सबको निबटाकर फिर वहीं चला जाएगा। उसने पहले यह बताया कि कौन कहां खड़ा है और किसकी क्या राजनीति है और फिर खुद के तर्कों और उसके सामाजिक जरूरतों को समझाया। ऐसा लगा जैसे युद्ध के मैदान में खड़ा कोई योद्धा हो। वैसी जनसंग ऊर्जा मैंने बहुत कम लोगों में देखी। मेरे ऊपर तमाम भद्र लोगों के बजाय इस व्यक्ति का सबसे गहरा प्रभाव पड़ा।
जानते हैं, वह कौन थे? रामजी राय।
उसके बाद कई बार रामजी राय को बोलते हुए सुना। मेरे कई दोस्त और सीनियर उनसे बहुत क़रीब से जुड़े हुए थे। लेकिन मैं उन्हें दूर-दूर से देखता था और वैसा बोलने की कोशिश करता था। कभी मिलने का साहस नहीं हुआ। शायद इसलिए भी कि मेरे मन का यह प्रभाव टूट न जाए। रामजी राय से ज्यादा महत्त्वपूर्ण मेरे लिए उनका यह प्रभाव था। आपको शायद आश्चर्य हो कि मैं रामजी राय से अबतक नहीं मिला! एकाध बार यों ही सबके बीच में कहीं हाथवाथ मिलाया हो तो मिलाया हो।
फिर 2010 या 11 की बात होगी। मैं इलाहाबाद से बनारस जाता-आता रहता था। मेरे मेंटोर प्रो. बलिराज पाण्डेय जी ने मुझे 1200 रुपए दिये और कहा कि इलाहाबाद जा रहे हैं तो इसे मीना राय को से दीजिएगा। वह यह जानकर आश्चर्यचकित हुए कि मुझे मीना राय का घर नहीं पता! फिर उन्होंने पता लिखकर दिया।
मैं कटरा में खोजते और पूछते हुए उनके घर पर पहुंच गया। मैंने देखा कि सामने बैठी हुई एक महिला सब्जी काट रही हैं। मैं उन्हें देखकर अचंभित हुआ कि यह तो वही हैं जो इलाहाबाद में होने वाले कार्यक्रमों में गेट के सामने किताबों की दूकान लगाती हैं! इन्हें हमारे प्रोफ़ेसर जानते हैं और ये जनमत की प्रबंध संपादक हैं और ये किताबों की दूकान लगाती हैं!! मैंने कितनी ही बार देखा था कि एक महिला स्कूटी पर किताबें लाती हैं। उतरती हैं, सजाती हैं और कार्यक्रम समाप्त होने के बाद खुद समेटकर ले जाती हैं। कोई कैसे सोच सकता है कि ये जनमत जैसी पत्रिका की प्रबंध संपादक होंगी! मुझे विश्वास नहीं हो रहा था। मैंने कहा, मुझे प्रो. बलिराज पाण्डेय ने भेजा है। मीना राय जी को पैसे देने हैं। उन्होंने कहा, मैं ही हूं मीना राय, दे दीजिए।
मुझे झटका लगा!
लेकिन यह तो कुछ भी नहीं। उसी बीच मैंने देखा कि बाथरूम से नहाकर अपने साही जैसे बाल पोछते हुए रामजी राय जी आ गये हैं! मैंने किसी तरह उनसे नमस्ते किया और भाग निकला वहां से। लेकिन धीरे -धीरे सब साफ़ होता गया।
फिर मैं मीना राय जी को भूल गया और दशकों तक मैंने उन्हें नहीं देखा। लेकिन धीरे-धीरे रामजी राय और मीना रायजी के परिवार के प्रति मेरी श्रद्धा बढ़ती गई। मुझे इस परिवार की प्रतिबद्धता, साहस और सपनों से ताकत मिली। मैं उनकी बेटी समता राय को बड़े सम्मान से देखता रहा। मैं कभी किसी संगठन से नहीं जुड़ा, न मुझे अपनी प्रतिबद्धता साबित करने की कभी ज़रूरत महसूस हुई। मेरे लिए हमेशा ऐसे लोग ज्यादा मायने रखते हैं। ऐसे अनेक लोग हैं जिन्हें मैं बहुत सम्मान करता हूं। उनमें से कई तो ऐसे हैं जो जानते भी न होंगे। और कई लोगों से अपने जीवन पर उनके प्रभाव के बारे में बताता हूं तो वे मेरे कहे पर विश्वास भी नहीं करते। जानते हैं, मैं अपने दिमाग के साथ जितना खेलता हूं और जितना उच्छृंखल हूं उसमें मेरी इंटेग्रिटी विचार-धारा से बनी ही नहीं रह सकती। मुझे हमेशा लगता है कि मेरी इंटीग्रेटी न विचारधारा, न अपने हित, बल्कि ऐसे अनेक लोगों के स्नेह और उनके प्रति मेरी अबौद्धिक श्रद्धा से बनी है।
दशकों तक मीना राय जी को भी भूले रहने के बाद कुछ महीने पहले मैंने मैंने संजय जोशी की पोस्ट पर उनका नाम देखा। उसपर एक लिंक था – समर न जीते कोय। मुझे मानस का यह हिस्सा पसंद है। मुझे लगा कि उसपर ही कुछ होगा। लेकिन पढ़ने लगा तो यह मीना राय जी का संस्मरण था। यह वही हिस्सा था जिसमें वह तेलियरगंज वाले घर और मकान मालिक और अपने सास का वर्णन करती हैं। पूरा पढ़ गया। फिर पीछे का लिखा भी पढ़ गया और फिर जब तक आगे का भी पढ़ता रहा।
पहली बार उनके लिखे से उनके साहस, स्वप्न और संघर्ष की पुख्तगी से परिचित हुआ। मीना राय जी के इस परिचय से उनके और उनके परिवार के प्रति और सम्मान पैदा हुआ। अभी यह सब दो-तीन महीने पहले से शुरू ही हुआ था मैं मीना राय को समझ ही रहा था कि सुबह-सुबह अनुपम ने किसी ह्वाट्सएप ग्रुप से एक मैसेज पढ़ा –
यह कहते हुए मेरी जीभ कट जाए, लेकिन मीना भाभी नहीं रहीं!
यह अविश्वसनीय था लेकिन आदमी एक दिन सबकुछ मान लेता है। लेकिन उस पूरे दिन वह दिमाग में रहीं। इसका कारण उनका लिखा ही था। वर्ना उन्हें मैं बहुत जानता न था।
कल भाकपा माले के पार्टी ऑफिस में उनकी श्रद्धांजलि सभा थी। मैं आजतक कभी लक्ष्मीनगर इस पार्टी ऑफिस में नहीं गया। अनुपम ने कितनी ही बार कहा लेकिन मैं नहीं गया। लेकिन कल मीना राय जी के चलते गया। उनके सम्मान में गया। मुझे आश्चर्य हुआ कि इतनी पतली सी गली में उस पार्टी का ऑफिस है जिसका बिहार से झारखंड तक में और स्टूडेंट पॉलिटिक्स में इतना प्रभाव है। यह वह पार्टी है जिसके आज के डेट में इतने विधायक बिहार में हैं और जो सरकार में शामिल है। इससे बड़े तो प्रधानों के घर होते हैं आजकल!
जिस सामान्य से हॉल में यह आयोजन हुआ वह जरूरत पड़ने पर लोगों के सोने के काम भी आता होगा। कुर्सियां बहुत सामान्य – सी, प्लास्टिक की थीं लेकिन अलमारियां किताबों से भरी थीं। मैंने देखा कि उन्हीं में से दो भूरे रंग की किताबों को टेबल पर रखकर प्रोजेक्टर सेट किया गया है। दोनों मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स के कलेक्टर वर्क्स के दो वेल्युम हैं। मार्क्सवाद के लिए ज्ञान पूजा का विषय नहीं, समाज बदलने का उपकरण है। परदे कुछ भारी नीले और लाल रंग के थे। मुझे यह कॉम्बिनेशन भारत के राजनीतिक भविष्य जैसा लगा।
प्रोजेक्टर के परदे पर ही पहले पोस्टर लगाया गया और फिर मीना जी का एक विडियो दिखाने के लिए रवि राय ने उसे हटाया। वीडियो खत्म होने के बाद उसे फिर लगाया गया। और जब श्रद्धांजलि सभ समाप्त हुई तो संजय जोशी और आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी उसका क्लिप निकाल रहे थे। मुझे लगा कि मुझे भी इसमें मदद करनी चाहिए। मैंने कॉमरेड मीना राय जी की श्रद्धांजलि सभा के उस पोस्टर को तहाना शुरू किया तो बजरंग जी ने कहा उलटी तरफ से तहाइए तो दुबारा भी उपयोग में आने लायक रहेगा, इधर से घिस जाता है। मुझे लगा कि इस किफायातसारी से जनसंगठन चलते हैं।
मैं उस पोस्टर को लपेटकर इस असमंजस में खड़ा रहा कि अब इसका क्या करना है? मेरे मन में आया, क्या मैं इसी क्षण मीना राय की स्मृतियों को तहाकर छोड़ दूंगा। थोड़ी देर तक इधर उधर देखता रहा। मुझे लगा कि जबतक मैं इसे छोड़ता नहीं तबतक मुक्त नहीं हो पाऊंगा इसलिए उसी टेबल पर रख दिया जहां मीना राय की तस्वीर और कुछ गुलाब की पंक्तियां बिखरी हुई थीं।