-हरिशंकर व्यास-
अंबानी-अडानी का आइडिया नहीं तो किसका?
किसान बनाम मोदी-अडानी-अंबानी : सवाल है डिजिटल इंडिया, आत्मनिर्भर भारत, मेड इन इंडिया की बातें करते-करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कैसे ‘किसानों को उड़ने की छूट’ देने वाला कानून बना बैठे? मोटे तौर पर खेती में सब ठीक है। भारत आत्मनिर्भर है। तब नरेंद्र मोदी को अचानक क्या हुआ, जो नए कानून की सोची? क्या किसानों ने, किसान संगठनों ने, संघ-भाजपा परिवार के किसान विशेषज्ञों, किसान संघ ने ऐसा कहा या उनके कहने के ऐसा किया? नहीं। क्या भारत के राजनीतिक दलों यथा कांग्रेस, एनसीपी के शरद पवार आदि के घोषणापत्र, उनकी मांग से प्रभावित हो कर मोदी ने बिल बनाए? कतई नहीं। यदि ऐसा होता तो नरेंद्र मोदी संसद में सर्वदलीय सहमति बनवाते।
सरकार के कई मंत्री मीडिया में यह प्रायोजित हल्ला बना रहे हैं कि कांग्रेस ने, शरद पवार ने घोषणापत्र में या पत्र लिख कर मंडियां खत्म करने का वादा किया या मांग की। इसलिए इन्हें विरोध का हक नहीं। कितनी बेहूदा बात है यह! इन नेताओं-पार्टियों, विपक्ष ने मंडी सुधार के लिए भले कहा हो लेकिन खेती को कॉरपोरेट का गुलाम बनाने, कांट्रेक्ट खेती के लिए कब कहा? फिर जब विपक्ष ने किसानों के विरोध को बूझते हुए संसद में विरोध-हंगामा किया, बहस-विचार-स्टैंडिंग कमेटी आदि की मांग पर अड़े तो नरेंद्र मोदी ने उसे क्या गंभीरता से लिया? उनसे क्या बात की?
कलंकित कार्रवाई
तथ्य है कि सरकार ने संसद से पहले ही आनन-फानन में कृषि के कथित सुधारों को अध्यादेश के जरिए लागू कर दिया था। फिर महामारी को अवसर में बदलने की हल्लेबाजी में संसद सत्र बुला कर नए कानूनों पर ठप्पा लगवाया। विपक्ष के पुरजोर विरोध और राज्यसभा के इतिहास की सर्वाधिक कलंकित कार्रवाई में विपक्ष का गला घोंट कर बिल पास कराए। मंडी की जगह खरीद की नई व्यवस्था को एक सामान्य सुधार मान सकते हैं लेकिन भारत की खेती, 60 प्रतिशत आबादी को अंबानी-अडानी कंपनियों के धंधे के मजदूर में बदलने वाली कांट्रेक्ट खेती का आइडिया तो न कांग्रेस, राहुल गांधी या शरद पवार ने अपने घोषणापत्र में लिखा है और न किसानों ने इसके लिए कभी कहा। फिर सवाल यह भी कि नरेंद्र मोदी राहुल गांधी और शरद पवार के एजेंडे को फॉलो कर रहे हैं, उस पर अमल करा रहे हैं?
नोटबंदी जैसी सनक
हकीकत है कि जैसे नोटबंदी नरेंद्र मोदी की निजी सनक थी वैसे ही नए कृषि कानून नरेंद्र मोदी की निजी जिद्द हैं। उन्होंने बिना आगा-पीछा सोचें जैसे नोटबंदी की वैसे ही कृषि कानूनों से भारत की खेती के मूल चरित्र को अंबानी-अडानी की कॉरपोरेट खेती में बदलने, सोना पैदा होने का ख्याल बनाया और कृषि कानून बनाए। मोदी ने किसी को भरोसे में नहीं लिया। सोचें अकाली दल तक से बात करने की जरूरत नहीं मानी। अकाली दल की मंत्री ने इस्तीफा दिया तो इस हिकारत में परवाह नहीं की कि ये किसान की राजनीति वाली दो कौड़ी की बुद्धि रखते हैं। सो, सरकार या कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर या गृह मंत्री अमित शाह या मोदी कैबिनेट, संघ एजेंडे आदि का इन कृषि कानूनों से वैसा ही नाता है, जैसे नोटबंदी से था।
अब सवाल है नरेंद्र मोदी का फैसला तब किसकी बदौलत? जाहिर है मौजूदा हिंदू राष्ट्र के गुजराती सेठ अंबानी-अडानी ने मोदी को समझाया कि देश की साठ प्रतिशत आबादी, उसकी खेती का यदि आधुनिकीकरण नहीं हुआ तो भारत सोने की चिड़िया नहीं बनेगा। हां, तीनों कृषि कानून खेती से मुनाफा, मोनोपॉली बनाने के बिजनेस मॉडल की दीर्घकालीन समग्रता में बने हैं और वह बिना अंबानी-अडानी के आइडिया के संभव नहीं है। और अंबानी-अडानी के नरेंद्र मोदी पर प्रभाव, उनके रिश्तों की दास्तां पिछले बीस साला अनुभव में जगजाहिर है।
फकीरी और सेठ से याराना
नरेंद्र मोदी का मुख्यमंत्री सत्ता के प्रारंभ से ही गौतम अडानी का साथ है तो अंबानी खानदान नरेंद्र मोदी के लिए वैसी ही आदर्श सक्सेस स्टोरी है, जैसे औसत गुजराती मानस में प्रेरणादायी है। धंधा और अमीरी क्योंकि गुजराती मनोविश्व में परमसिद्धि का संतोष है तो बिड़ला की कोठी में गांधी का सुकून याद करें या नरेंद्र मोदी की फकीरी का अंबानी-अडानी से याराना सब सहज वृत्ति से है। कौम और नस्ल के डीएनए का, मनोविज्ञान का आप कुछ नहीं कर सकते हैं। तभी साढ़े छह साल इधर सुरसा रफ्तार से नरेंद्र मोदी की सत्ता बढ़ी तो चक्रवर्ती रफ्तार में अंबानी-अडानी की संपत्ति बढ़ी। दोनों दुनिया की निगाह में आज भारत को अपनी मुट्ठी में दबाए हुए खरबपति हैं।
डरावना
चाहें तो इसे नरेंद्र मोदी का जादू कहें कि देश के चप्पे-चप्पे में भाजपा और हिंदूशाही की सत्ता बनी या बन रही है तो साथ ही देश की संपदा-पैसे पर अंबानी-अडानी सहित चंद गुजरातियों का एकाधिकार भी उत्तरोत्तर चक्रवर्ती रफ्तार में बढ़ रहा है। पिछले साढ़े छह सालों में चंद गुजराती डायरेक्टरों के बिजनेस मॉडल से देश का वह ईस्ट इंडिया कंपनीकरण हुआ है जिससे 17-18वीं सदी से भी अधिक भयावह असमानता भारत में बनी है। गरीब महागरीब बन रहे हैं तो चंद अमीर खरबपति से शंखपति बनने की तरफ हैं। हाल में ‘द इकोनॉमिस्ट’ में इस शीर्षक से एक रिपोर्ट थी कि भारत की आर्थिकी भले दसवें हिस्से जितनी सिकुड़ी लेकिन सुपर रिच यानी महाअमीर और अमीर हुए हैं।
हां, देश में अस्सी करोड़ लोग आज पांच किलो अनाज व एक किलो चने पर गुजर करने, बेरोजगारी, बरबादी के महामारी काल में हैं लेकिन अंबानी-अडानी का कुबेरी खजाना मोदी की उत्तरोत्तर बढ़ती सत्ता के अनुपात से भी कई गुना तेज रफ्तार महामारी काल में भी बढ़ते हुए है। ‘द इकोनॉमिस्ट’ रिपोर्ट के अनुसार गौतम अडानी का साम्राज्य बंदरगाहों से कोयला खानों व खाद्यान से फैलता हुआ उसकी निजी संपदा, वेल्थ को दोगुना (कोई तीन अरब डॉलर) बढ़ा गया है। वहीं मुकेश अंबानी की संपदा 25 प्रतिशत बढ़ी, 75 अरब डॉलर! और दुनिया की इस प्रतिष्ठित पूंजीवाद समर्थक पत्रिका के भी अनुसार यह डरावना (intimidating) है।
चक्रवर्ती रफ्तार
अंबानी-अडानी वाली सुपररिच एक प्रतिशत आबादी की कमाई-संपदा पिछले साढ़े छह सालों में जिस चक्रवर्ती रफ्तार में बढ़ी है वह आजाद भारत का रिकार्ड होगा। ‘द इकोनॉमिस्ट’ रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल देश की 21.4 प्रतिशत कमाई इन एक प्रतिशत लोगों की जेबों में गई। मतलब रूस से ज्यादा अब भारत के क्रोनी पूंजीवादी सेठ विश्व असमानता के आंकड़ों में कमाई-लूट का वैश्विक रिकार्ड बनाए हुए हैं। स्विट्जरलैंड के क्रेडिट स्विस बैक के ‘वर्ल्ड असमानता डाटाबेस’ के अनुसार अंबानी-अडानी वाली एक प्रतिशत जमात की तिजोरियों में 138 करोड़ आबादी की कुल धन संपदा का 39 प्रतिशत हिस्सा है। मतलब अमेरिका और चीन के सुपर रिच लोगों को भी भारत के इन महाअमीरों ने मात किया हुआ है। ‘द इकोनॉमिस्ट’ के शब्दों में भारत में खतरनाक बात है जो चंद सुपररिच अपनी ताकत से छोटे कंपीटिटरों (मतलब मोदी दरबार के बाहर के अमीरों को) को कुचल कर आर्थिकी का मल्टीपल हिस्सा हड़पते जा रहे हैं। ऐसा कोई इन सुपररिच की काबलियत, तकनीकी इनोवेशन, उत्पादकता बढ़ने या नए बाजार खुलने से नहीं है, बल्कि राजनीतिक प्रभाव, पूंजी की आसान एक्सेस व बाजार को कब्जाने की दादागिरी से है।
ईस्ट इंडिया कंपनी का मॉडल
कैसे? जवाब सीधा है। नरेंद्र मोदी ने मार्केटिंग-ब्रांडिंग की गुजराती तासीर में जब देश की सत्ता बना ली तो उनके सखा अंबानी-अडानी क्यों धंधे-पैसे में एकाधिकार नहीं बनाएंगें? अंबानी-अडानी ने पिछले छह सालों में भारत की 138करोड़ लोगों की भीड़ को अपने पर आश्रित, गुलाम बनाने का वहीं मॉडल अपनाया है, जो ईस्ट इंडिया कंपनी का था। आज दुनिया में भीड़, ग्राहक संख्या, और बाजार का मोल है वह बिकता है। सोचें जियो की दास्तां पर। अंबानी ने बैंकों से बेइंतहा कर्ज लेकर जियो को लांच किया। नरेंद्र मोदी के फोटो से ब्रांडिग-मार्केटिग हुई। सस्ती, लगभग मुफ्त सेवा से भीड़ को ग्राहक बनाया। इससे करोड़ों ग्राहक बने तो दुनिया की कंपनियों को अंबानी ने आइडिया बेचा कि तुम हमारी कंपनी में इतने शेयर ले कर इतनी पूंजी दो तो तुम्हें इतने करोड़ ग्राहक हमसे मिलेंगें। तु्म्हारे लिए भारत में धंधा आसान होगा। हमसे ज्यादा रसूखदार, सत्ता से मनचाहा कराने वाला दूसरा कोई नहीं, चाहो तो नरेंद्र मोदी से बात कर लो। और देखते-देखते नरेंद्र मोदी के वेलकम के साथ गूगल, फेसबुक जैसी वैश्विक कंपनियों ने जियो में पूंजी उड़ेली और जहां कर्ज निपटा तो मुकेश अंबानी दुनिया के अमीरों की रैकिंग में कई पायदान ऊपर पहुंचे।
विदेशी निवेश का सच
दूसरी ओर, नरेंद्र मोदी ने हिंदुओं को मूर्ख बनाने के लिए ढिंढ़ोरा पीटा कि महामारी के वक्त में भी उनकी नीतियों से इतना भारी विदेशी निवेश आया है! जबकि सत्य बताते हुए ‘द इकोनॉमिस्ट’ की रिपोर्ट में लिखा है कि अप्रैल से अगस्त 2020 के मध्य में आए 36 अरब डॉलर विदेशी निवेश में आधे से ज्यादा पैसा मुकेश अंबानी की जेब में फेसबुक, गूगल जैसी संचार कंपनियों से है। सब इसलिए ताकि 138 करोड़ लोगों की भीड़ अंबानी के जियो और उसके विभिन्न प्लेटफार्म, मीडिया आदि की गुलाम बने। बाजार के बाकि कंपीटिटर मतलब वोडाफोन, एयरटेल को सुप्रीम कोर्ट से मार तो सरकार से भी मार!
सोचे कितना आसान है नरेंद्र मोदी, अंबानी-अडानी का यह बिजनेस मॉडल। 138 करोड़ लोगों की बेसिक जरूरत में कमाई के, लूटने के जितने अहम क्षेत्र हैं, जैसे कपड़ा, बिजली, परिवहन, ईंधन, संचार, पंसेरी दुकान और अब खाद्यान सबमें अंबानी-अडानी का वर्चस्व या तो बन चुका है या बनने वाला है। देश के बंदरगाहों में मोनोपॉली तो हवाईअड्डों पर भी मोनोपॉली और आगे रेलवे में भी। किसी और सेठ की इन दरबारी गुजराती सेठों के आगे औकात ही नहीं है, जो धंधे में टिके रहें या कंपीटिशन करें। आंध्रप्रदेश के सेठ को मुंबई का अपना एयरपोर्ट अडानी को ही बेचना पड़ा क्योंकि गौतम अडानी हैं नरेंद्र मोदी के सपनों के वाहक!
क्या यह सब गलत है? दरअसल 138 करोड़ लोगों का लोकतंत्र क्योंकि चौदह सौ साल की हिंदू गुलामी की भय, कुंद-मंद बुद्धि की विरासत लिए हुए है तो भीड़ उसी तरह लुटेगी जैसे लुटती आई है। भारत में न पूंजीवाद है न समाजवाद है जो है वह राजा माईबाप, सरकार माईबाप और राजा के नगरसेठों, कोतवालों याकि क्रोनी पूंजीवादी सेठों व लाठी तंत्र का संजाल है। सत्ता से धंधा है तो धंधे से, पैसे की ताकत से सत्ता योग भी है। याद करें उस ईस्ट इंडिया कंपनी को जिसने जहांगीर के दरबार को चांदी की जूतियां पहना अपना धंधा फैलाया और पूरी भीड़, पूरे बाजार को फिर गुलाम बना डाला। उसी की तासीर में अंबानी-अडानी धंधे की अपनी भूख में अपने प्रधानमंत्री से वे कृषि कानून बनवा बैठे हैं, जिससे भारत की किसान आबादी, पूरी किसानी याकि ‘उत्तम खेती’ के सूकून को चाकरी में बदलवाने का मिशन दो टूक है। हां, मुकेश अंबानी और गौतम अडानी का खेती से धंधा करने का निश्चय पुराना और गहरा है।
(संपादित। अगर पूरा मामला और अच्छी तरह समझना चाहें तो नया इंडिया में पहले और आगे की किस्तें देखें।)
प्रस्तुति- संजय कुमार सिंह