केपी सिंह-
केन्द्र सरकार के सबसे बेहतर नतीजों में शीर्षस्थ केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी को भाजपा के संसदीय बोर्ड से अलग किये जाने का मुद्दा राजनीतिक हलकों में आजकल बहुत गरमाया हुआ है और इसे लेकर अलग-अलग तरह की धारणायें प्रतिपादित की जा रही हैं। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह द्वारा इस मामले में लागू किये गये निश्चय ने रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के लिए खुश किस्मती का काम किया है क्योंकि संतुलन साधने की गरज के कारण भाजपा के इन भाग्य विधाताओं को संसदीय बोर्ड में उन्हें बरकरार रखना पड़ा वरना उनका पोस्टमार्टम पहले हो जाता।
नितिन गडकरी की छवि खरी-खरी बोलने वाले नेता के बतौर बन गई है जिसे लोग बहुत पसंद कर रहे हैं। भाजपा के फायदे के आंकलन से देखें तो नितिन गडकरी के बारे में यह अंदाजा लगाने वाले कि उनके कारण मोदी की बखिया जाने अनजाने में उगड़ जाती है जिससे भाजपा को नुकसान हो रहा है, नादान हैं। असलियत यह है कि मोदी के कारण भाजपा के विरोध का जो स्पेस है गडकरी के सहारे उसे भी भाजपा की झोली में रखने में मदद मिलती है। जिन्हें देश के राजनीतिक इतिहास की जानकारी है वे अवगत होंगे कि एक जमाने में सोशलिस्टों ने इस रणनीति का बखूबी इस्तेमाल किया। वे शाश्वत विरोध की मुद्रा तब भी ओढ़े रहते थे जब उनके लोग सत्ता में होते थे और एक दूसरे को बेनकाब करने का मौका भी नहीं चूकते थे। लोगों को सोशलिस्टों की यह अदा बहुत पसंद आती थी और आंतरिक लोकतंत्र की अपनी इसी शैली की वजह से कांग्रेस का सत्ता में मजबूती खंभा हिलाने का श्रेय बहुत कुछ सोशलिस्टों को मिला। भले ही बाद में सत्ता सुन्दरी के आलिंगन पाश में पतित होकर बाद के समय में उन्होंने अपयश भी खूब कमाया।
नितिन गडकरी नागपुर से चुनकर आते हैं और संघ के बेहद नजदीकी हैं। हर सप्ताह संघ प्रमुख के दरवार में हाजिरी बजाना उनके लिए अनिवार्य कर्तव्य जैसा है। अगर यह बात सही है कि सामाजिक न्याय के ज्वार को थामने की मजबूरी के चलते संघ ने आपाद धर्म के तौर पर एक शूद्र को सत्ता के सिंहासन पर बैठाने का समझौता अंतरिम व्यवस्था के तौर पर स्वीकार कर लिया हो लेकिन उसका अल्टीमेट लक्ष्य वर्ण व्यवस्था की बहाली है। इसलिए मौका आने पर आडवाणी के संघर्ष और तपस्या को दर किनार कर उसने प्रधानमंत्री की कुर्सी अटल बिहारी वाजपेयी के हवाले कर दी थी जबकि वाजपेयी राम जन्म भूमि आंदोलन से लेकर कई अन्य बातों में न केवल संघ से अलग चलते थे बल्कि अगर संघ की फजीहत हो जाये तो भी उन्हें गम नहीं होता था।
जनता पार्टी के समय मोरार जी की कैबिनेट में जन संघ घटक के लिए चार का कोटा आवंटित किया गया था जिनमें अटल जी ने दो चेहरे मुसलमान चुनवा दिये थे। खुद और लालकृष्ण आडवाणी के साथ मोरार जी की कैबिनेट में जनसंघ घटक के मंत्रियों में सिकंडर बख्त और आरिफ बेग थे। अटल जी के पास विदेश विभाग था लेकिन विदेश नीति में संघ का मार्गदर्शन स्वीकार करने की बजाय उन्होंने कांग्रेस की अरब देशों को वरीयता देने की नीति को बरकरार रखा था। जब अटल जी प्रधानमंत्री थे और रायपुर में भाजपा का राष्ट्रीय अधिवेशन होने वाला था अशोक सिंहल उस समय जिंदा थे और विश्व हिन्दू परिषद के अतरराष्ट्रीय अध्यक्ष की बागडौर संभाले हुए थे। वे साधु संतों का प्रतिनिधि मंडल लेकर अटल जी से मिलने प्रधानमंत्री आवास पहुंचे तो अटल जी ने उनका पानी उतारने के लिए आधा घंटे का इंतजार करा दिया।
इसके बाद जब मुलाकात शुरू हुई तो अशोक सिंहल ने उन्हें निर्देशित करने के अंदाज में कहा कि आप रायपुर अधिवेशन में अयोध्या में विवादित स्थल पर ही राम मंदिर बनाने का प्रस्ताव पेश करें भले ही इसके कारण राजग के सहयोगी दल उनसे छिटक जायें और उनकी सरकार चली जाये लेकिन मध्यावधि चुनाव हुए तो उन्हें इस पैंतरे से भारी बहुमत से वापिसी का अवसर मिल जायेगा। पर अटल जी ने उनके मशविरे को सिरे से नकार दिया यह कहकर कि रणनीतिक दृष्टि से यह कदम भले ही कितना भी अचूक हो लेकिन उनके सिद्धांतों के खिलाफ है। उन्होंने संविधान की शपथ ली है जिसमें धर्मनिरपेक्षता के लिए प्रतिबद्धता की बात कही गई है। इस कारण उनके लिए इस शपथ से मुकरना संभव नहीं है। सिंहल और साधु संत इससे इतने बिफर गये कि उन्होंने शीघ्र ही होने वाले तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा के खिलाफ बिगुल फूंकने की घोषणा कर डाली। यह दूसरी बात है कि सिंहल के कोप के बावजूद उक्त राज्यों में भाजपा को बजाय नुकसान के आशातीत सफलता मिली।
तब संघ को लगता था कि अटल जी उसके लिए शक्तिवाण हैं क्योंकि उनकी सभी समाजों में स्वीकार्यता के कारण ही संघ को सत्ता के पायदान में आगे बढ़ने का मौका मिल रहा है। पर बहुत जल्द ही अटल जी की सीमायें सामने आने लगी। कल्याण सिंह ने उनसे विवाद के कारण पार्टी छोड़ी। हालांकि बाद में वे भाजपा में वापस आ गये थे लेकिन पिछड़ों में अटल जी की छवि दरकाने में वे बहुत बड़ा रोल अदा कर चुके थे। उनके बाद अटल जी ने उत्तर प्रदेश में किसी पिछड़े नेता को मौका देने की बजाय पहले रामप्रकाश गुप्ता और इसके बाद राजनाथ सिंह को आजमाया। जाहिर है कि सवर्ण राज की वापिसी के उनके इस प्रयास से भाजपा का बेड़ा गर्क हो गया। अपनी तमाम उपलब्धियों के बावजूद अटल जी 2004 के लोकसभा चुनाव में विदेशी महिला सोनिया गांधी के मुकाबले सत्ता की पिच पर आउट हो गये। ध्यान रखने वाली बात है कि 2004 का चुनाव अटल जी बनाम सोनिया गांधी का चुनाव था भले ही बाद में सोनिया गांधी ने स्वयं प्रधानमंत्री न बनकर डा0 मनमोहन सिंह का राजतिलक करा दिया।
इसके बाद संघ को अपने उतावलेपन को लेकर पुनर्विचार के लिए मजबूर होना पड़ा। इसके चलते 2014 में संघ ने सवर्ण मोह छोड़कर शूद्र समाज की ओर कौटिल्य नीति की अग्रसरता दिखायी और यह पत्ता कामयाब रहा क्योंकि नरेन्द्र मोदी ने बार-बार कांग्रेस के उस समय थिंक टैंके में अग्रणी मणिशंकर अययर के अंग्रेजी में दिये गये इंटरव्यू का अपने तरीके से अनुवाद करके स्वयं की कथित नीची जाति की इतनी दुहाई दी कि पूरा बहुजन समाज उनकी इस हिलोर से आप्लावित हो गया और कांग्रेस को चारों खाने चित हो जाना पड़ा।
मोदी की प्रत्युत्पन्न मति और वाक पटुता का कोई जबाव नहीं है। इस कारण एक बार वे सत्ता में पहुंच गये तो उन्होंने केन्द्र में भी गुजरात जैसा रिकार्ड दोहराने की स्थिति पैदा कर दी और सत्ता के आंगन में अपने अंगद पांव जमाकर मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की वह हालत कर दी है कि अगले चुनाव में अगर वह दहाई के नीचे ही सिमटकर रह जाये तो आश्चर्य न होगा। हालांकि इस विश्लेषण से अधिकांश राजनीतिक पंडित सहमत नहीं होंगे क्योंकि वे कांग्रेस के लिए अभी बेहतर संभावनायें देख रहे हैं कि वे कांग्रेस के चरम सत्यानाश को देख नहीं पा रहे हैं।
मोदी साम्राज्य के चक्रवर्ती विस्तार का श्रेय अभी तक संघ को मिलता रहा इसलिए संघ गाहे बगाहे सरकार को निर्देशित करते रहता था और मोदी व शाह विनीत होकर उनका अनुपालन करते थे। पर अब स्थितियां बदल चुकी हैं। मोदी और शाह को किसी का निर्देश मंजूर नहीं है। वे संघ को उत्सव मूर्ति की हद तक समेटने पर आमादा हो चुके हैं। संघ नितिन गडकरी को जो ब्राह्मण हैं मोदी के उत्तराधिकारी के रूप में तराशने में लगा था ताकि उसका अभीष्ट सिद्ध हो सके। पर इसके पहले ही मोदी शाह ने नितिन गडकरी को ठिकाने लगाने का दुस्साहस कर डाला, संघ की नाराजगी की परवाह के बगैर। हालांकि दूसरे कुछ लोगों का मत यह भी है कि गडकरी की बेसुरी बयान बाजी से संघ की भ्रकुटियां भी उनके प्रति तन गई थी और मोदी ने संघ की सहमति लेकर ही संसदीय बोर्ड में उनका मान मर्दन किया है। पर यह सही नहीं है। संघ के पास दूसरा सवर्ण पद था उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हैं लेकिन उनका भी क्या हश्र हो इसकी चर्चायें शुरू हो गई हैं।
हाल में उत्तर प्रदेश में शीर्ष प्रशासन में फेरबदल हुए जिसमें साफ दिखायी देता है कि योगी के पंख ऊपर के निर्देश से कतरे गये हैं। विधानसभा चुनाव के पहले ही उन पर केन्द्र ने सीधे अपने मुख्य सचिव को उत्तर प्रदेश में थोपा था। मिश्रा जी रिटायर हो गये थे पर उन्हें एक साल का सेवा विस्तार देकर दिल्ली से लखनऊ भेज दिया गया और योगी कोई प्रतिवाद नहीं कर पाये। फिर योगी के प्रतिद्वंदियों केशव मौर्य और बृजेश पाठक को केन्द्र ने डिप्टी चीफ मिनिस्टर बनवा दिया जबकि मौर्य चुनाव हार चुके थे। उधर शपथ ग्रहण के दिन बृजेश पाठक ने उन्हें मिले पद के लिए सिर्फ मोदी और शाह का आभार जताया और योगी की अवहेलना कर डाली जिससे योगी को खून का घूंट पीकर रह जाना पड़ा। इतना ही नहीं दोनों उप मुख्यमंत्रियों को योगी के समकक्ष जाहिर करने के लिए सीएम सहित प्रत्येक को 25-25 जिले आवंटित करने का हुकुमनामा भी केन्द्र का ही बताया जाता है।
अब उत्तर प्रदेश में नौकरशाही में हुए ताजा फेरबदल की चर्चा। योगी चाहते थे कि उनके सबसे प्रिय अधिकारी एसीएस होम अवनीश अवस्थी को सेवा विस्तार मिले पर योगी के आग्रह को झटक दिया गया। उन्होंने कथित तौर पर अपना कमीशन रिटायरमेंट के पहले वसूल लेने के लिए जुलाई में ही बुन्देलखण्ड एक्सप्रेसवे का उदघाटन करा दिया जिसमें स्वयं नरेन्द्र मोदी आये थे पर यह एक्सप्रेसवे उदघाटन के एक सप्ताह बाद ही जगह-जगह टूट गया और कई हादसे हो गये जिसमें जाने भी चली गई। मीडिया में यह मामला जमकर उछला जिससे मोदी को अपनी फजीयत महसूस हुई। इसके बाद उनसे अवनीश अवस्थी के प्रति रहम की गुंजाइश की ही नहीं जानी चाहिए थी।
योगी बृजेश पाठक को परेशान रखने के लिए एसीएस हेल्थ अमित मोहन प्रसाद को भी नहीं हटाना चाह रहे थे जबकि वे अत्यंत विवादित हो चुके थे पर केन्द्र ने उनको भी हटवा दिया। डा0 हरिओम जिन्होंने गोरखपुर में रहते हुए योगी को गिरफ्तार किया था उन्हें लूप लाइन से निकालकर समाज कल्याण का महत्वपूर्ण चार्ज भी केन्द्र ने दिलाया। इससे अनुमान होता है कि योगी को हैसियत में रहने का संदेश सम्प्रेषित करने की प्रक्रिया भी गतिमान कर दी गई है।
संघ को इससे छटपटाहट तो बहुत है लेकिन वह बौनेपन के एहसास से घिर जाने के कारण मोदी और अमित शाह को टोकने की जुर्रत नहीं कर पा रहा है। दरअसल मोदी की जीत संघ के कारण नहीं अकूत चुनावी खर्चों और मार्केटिंग के लोगों की टीम के वितंडावाद से हो रही है और इसका एहसास मोदी शाह ने उनको करा दिया है। मोदी जब तक कुर्सी पर हैं तभी तक राजनीतिक हथकंडों के लिए भाजपा को अनाप शनाप संसाधनों की व्यवस्था संभव है और यह व्यवस्था खतम हो जाये तो सरकार को ढ़हते देर नहीं लगेगी।
संघ को जहां मोदी से इस बात की प्रसंन्नता है कि वे राष्ट्रीय सुरक्षा का मोर्चा इन्दिरा गांधी से भी आगे बढ़कर संभाल रहे हैं साथ ही साथ संघ को उनके कारण हिन्दुओं की देश में सर्वोच्च प्रतिष्ठा का सपना साकार करने का अवसर मिल रहा है वहीं संघ कई बातों में उनसे बहुत दुखी भी है। दरअसल जो लोग संघ के विरोधी है वे भी मानते हैं कि संघ सौम्य है, लोकलाज को लेकर उसमें छुईमुईपन है और नैतिक मूल्यों की बहाली की तड़प भी। संघ की प्रेरणा से ही अटल आडवाणी की जोड़ी ने पार्टी विथ ए डिफरेंस का नारा लगाया था लेकिन आज क्या हो रहा है।
ईडी व इन्कम टैक्स विभाग जनरल छापेमारी छोड़कर केवल राजनीतिक विरोधियों पर निशाना लगा रहे हैं यह संघ की शील धर्मिता के खिलाफ नीति है जिसे संघ को हजम करना कितना मुश्किल हो रहा होगा। प्रधानमंत्री जिस तरह से अपने कुछ उद्योगपति मित्रों को फायदा पहुंचाने के लिए सरकार उपक्रमों को बेचने से लेकर सारी बैंकों को उन्हें कर्जा देने के लिए लुटाने में लगे हैं यह भी संघ के लिए असहजकर स्थिति है। संघ स्वदेशी का नारा लगाती थी लेकिन मोदी के मित्र उद्योगपति भारत के शत्रु चीन के माल की असेम्बलिंग कर बेचने का काम मात्र कर रहे हैं जिससे आस्तीन में सांप पालने की कहावत चरितार्थ हो रही है। भारत के पैसे से ही भारत की जड़ें खोदने का अवसर चीन को मिल रहा है। उत्तर प्रदेश में जब भाजपा की सरकार आयी थी तो वृंदावन में संघ और सरकार की समन्वय बैठक हुई थी जिसमें नये नवेले विधायकों की तृष्णा को लेकर संघ ने काफी नाराजगी प्रकट की थी। पर संघ का नैतिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने का सपना आज कहां चला गया है। ऊपर से ही भाजपा नेताओं को लूटने का अवसर दिया जा रहा है तो उत्तर प्रदेश में उन्हें रोककर योगी अपनी आफत क्यों करायें। वैसे भी योगी के पिछले कार्यकाल में उनके खिलाफ विधायकों को विद्रोह सामने आ चुका है।
जाहिर है कि संघ इसे लेकर बड़ी कशमकश में है। उसे समझ में नहीं आ रहा कि मोदी शाह की उपयोगिता को ज्यादा मानें या यह स्वीकार कर लें कि वे अपनी भूमिका पूरी कर चुके हैं इसके आगे उन्हें प्रोत्साहित रखने से कहीं बेड़ा गर्क की स्थिति न आ जाये। आगे का घटनाक्रम इस कशमकश के चलते क्या रूप लेगा यह देखने वाली बात होगी।
केपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं. संपर्क- Mob.No.09415187850