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सुख-दुख

रजनीश ने समझ लिया था कि नाम में ‘भगवान’ जोड़ने के इस नए प्रपंच में रस आने वाला है!

सुशोभित-

बम्बई में रजनीश… रजनीश के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण शहर कौन-से थे? अनेक मित्र कहेंगे- पुणे, जबलपुर और रजनीशपुरम्। पुणे में उन्होंने अपना कम्युन बनाया था, जो आज भी संचालित हो रहा है। जबलपुर में वो 19 साल रहे और यहीं वे आचार्य रजनीश बने। अमेरिका के ओरेगॉन में रजनीश के शिष्यों-संन्यासियों ने जो रजनीशपुरम् बसाया था, वह उनके जीवन की सर्वाधिक विवादित परिघटना थी, जिसने उन्हें अंतरराष्ट्रीय सुर्ख़ियाँ दिलाईं। कुछ मित्र सागर का भी नाम लेंगे, जहाँ रजनीश छात्र के रूप में दो साल रहे। गाडरवारा तो शहर नहीं था, छोटा क़स्बा था, लेकिन रजनीश के जीवन में बहुत महत्व का है। यहीं उनकी स्कूली पढ़ाई हुई और आरम्भिक जीवन बीता- 1939 से 1951 तक। वहीं 1931 में जन्म से 1939 तक वे मध्यप्रदेश के रायसेन ज़िले के कुचवाड़ा गाँव में रहे थे।

लेकिन एक और शहर है, जिसका रजनीश के जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रहा। यह था बम्बई। रजनीश 1970 से 1974 तक बम्बई में रहे, अलबत्ता व्याख्यान आदि के सिलसिले में वे 1960 से ही निरंतर बम्बई की यात्रा करते आ रहे थे। 1966 में उन्होंने जबलपुर विश्वविद्यालय में प्राध्यापक की नौकरी से त्यागपत्र दिया था, लेकिन जबलपुर नहीं छोड़ा। वे 1970 तक जबलपुर में ही रहे। 30 जून 1970 को उन्होंने जबलपुर को अलविदा कह दिया। 28 जून को जबलपुर के शहीद स्मारक में उनके लिए एक विदाई समारोह आयोजित किया गया, जिसमें जबलपुर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति और समादृत विद्वान डॉ. राजबलि पांडे भी बोले। तब नवभारत अख़बार ने शीर्षक दिया था- ‘और सुकरात चला गया!’ 21 मार्च 1974 को अपनी सम्बोधि की 21वीं वर्षगाँठ पर रजनीश पुणे स्थित आश्रम चले गए थे। लेकिन 1970 से 1974 तक के जो चार वर्ष उन्होंने बम्बई में बिताए, वे ‘द मिथ ऑफ़ रजनीश’ के निर्माण में केंद्रीय महत्व के थे।

इन्हीं वर्षों में रजनीश को विश्व-ख्याति मिली, विदेशी साधक बड़ी संख्या में आकर उनसे जुड़े, इन्हीं वर्षों में उन्होंने नवसंन्यास का सूत्रपात किया, इन्हीं वर्षों में वे आचार्य से भगवान कहलाने लगे।

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इस भगवान उपाधि की भी बड़ी रोचक कथा है। मई 1971 में रजनीश ने अपने सचिव स्वामी योग चिन्मय से कहा कि अब वे आचार्य उपाधि त्यागना चाहते हैं, वे उन्हें कोई नया नाम सुझाएँ। योग चिन्मय ने अनेक नाम सुझाए, जिनमें से भगवान एक था। रजनीश जानते थे कि नाम के आगे भगवानश्री जोड़ने की देश में तीखी प्रतिक्रिया होगी, लेकिन वे ठीक यही तो चाहते थे। गाँधी और समाजवाद पर प्रहार करते समय और सम्भोग से समाधि की बात करते समय वे सजग होकर तीखी प्रतिक्रियाओं को ही न्योता दे रहे थे। रजनीश ने समझ लिया कि इस नए प्रपंच में उन्हें रस आने वाला है।

मई 1971 के अंत तक उनके कुछ शिष्यों ने उन्हें भगवान कहकर सम्बोधित करना शुरू कर दिया था। इससे कुछ अन्य श्रोता विचलित हुए। 26 मई 1971 को बम्बई में ही गीता ज्ञान-यज्ञ पर प्रवचनों के दौरान रजनीश ने कहा कि कुछ मित्र उन्हें भगवान कहकर सम्बोधित करने लगे हैं, जिस पर कुछ अन्य मित्रों ने घोर आपत्ति जताई है और कहा है कि इसे तुरंत रुकवाएँ, वरना हम आपको सुनना बंद कर देंगे। रजनीश ने चिर-परिचित शैली में कहा, तब तो मुझे सुनना बिलकुल ही बंद कर दें। इतने वर्षों से मैं श्रोताओं के भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता रहा था, तब तो किसी ने आपत्ति नहीं ली। अब मुझे भगवान कहने पर आपत्ति क्यों? कहीं इसलिए तो नहीं कि इससे उनके अभिमान को चोट लगती है?

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और सच में ही रजनीश अपने नाम के आगे भगवानश्री लगाने लगे। इससे अनेक जन नाराज़ हुए और उनका साथ छोड़ दिया। विवादित व्यक्तित्व के जीवन में विवाद का और एक प्रकरण जुड़ा। 1972 में ‘ताओ उपनिषद्’ पर चर्चा के दौरान किसी ने उनसे पूछा कि आप स्वयं को भगवान क्यों कहते हैं? रजनीश ने उत्तर दिया, क्योंकि मैं भगवान हूँ। तुम भी भगवान हो। अंतर यह है कि अभी तुम्हें इसका पता नहीं चला, मुझे पता चल गया है। वास्तव में सभी कुछ भगवत्ता है। भगवान के सिवा कुछ और हो ही नहीं सकता।

फिर एकान्त में योग चिन्मय से कहा, अभी कुछ दिन यह खेल चलने दो, फिर भगवान नाम को त्याग दूँगा, कोई और नाम ग्रहण कर लूँगा। कुछ दिन तो नहीं, कुछ वर्ष लगे, जब जीवन की सान्ध्यवेला में रजनीश ने भगवान को त्याग दिया और ओशो कहलाने लगे।

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बम्बई आने के चंद ही महीनों बाद सितम्बर 1970 में रजनीश ने मनाली कैम्प में नवसंन्यास का सूत्रपात कर दिया था। इसमें संन्यासियों को नए नाम दिए गए, गैरिक वस्त्र और 108 मनकों की माला दी गई, जिसमें रजनीश का चित्र था। इसने भी अनेक जनों को भड़काया। रजनीश से बौद्धिक रूप से जुड़े मित्र सशंक हो गए। धर्मगुरुओं और धार्मिक संस्थाओं के विरोधी रजनीश इस संन्यास-पर्व के माध्यम से क्या स्वयं का एक पंथ चलाना चाहते हैं- यह पूछा जाने लगा। रजनीश को इस सबसे भी रस ही मिला होगा। अनन्य प्रतिमाभंजक स्वयं की प्रतिमाओं को खण्डित करने से भी चूकता नहीं था। वास्तव में बम्बई आकर रजनीश का आत्मविश्वास दूसरे ही स्तर पर चला गया था। महानगर ने उन्हें संकेत दे दिए थे कि इतिहास में उनका नाम दर्ज होने जा रहा है और अब कोई भी उन्हें रोक नहीं सकेगा। उनकी कीर्ति देश की सीमाओं को लाँघकर विदेश तक पहुँच चुकी थी।

बम्बई में आकर रजनीश ने अपनी यात्राओं को आंशिक विराम दिया। पूर्णकालिक विराम तो पुणे में स्थिर होने के बाद ही दिया, लेकिन जबलपुर के दिनों जैसी सघन यात्राएँ अब वे नहीं करते थे। बम्बई के दिनों में वे साल में दो या तीन साधना शिविर अवश्य लेते रहे और इसके लिए पर्वतीय-निर्जन क्षेत्रों की यात्राएँ करते रहे, लेकिन इस अवधि में उनके व्याख्यान मुख्यतया बम्बई में ही होते थे- पाटकर हॉल, षण्मुखानंद सभागृह, गोवालिया टैंक मैदान, पारसी कुंआ और क्रॉस मैदान में। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण थीं 40 से 50 निकटतम मित्रों-साधकों-संन्यासियों के साथ वुडलैंड्स अपार्टमेंट या सीसीआई चैम्बर्स में हुई निजी वार्ताएँ, जो गुह्यविज्ञान, कुण्डलिनी जागरण, तंत्रविधियों और आध्यात्मिक रहस्यों पर केंद्रित होती थीं। ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ’, ‘तंत्र सूत्र’ (द बुक ऑफ़ सीक्रेट्स), ‘द साइकोलॉजी ऑफ़ द एसोटेरिक’, ‘मैं मृत्यु सिखाता हूँ’, ‘द अल्टीमेट अल्केमी’ (आत्म पूजा उपनिषद्) जैसी विलक्षण पुस्तकें इसी कालखण्ड की देन हैं! ‘गीता दर्शन’ और ‘ताओ उपनिषद्’ जैसी वृहद प्रवचनमालाओं के कुछ सत्र भी वुडलैंड्स में चुनिंदा श्रोताओं के सम्मुख ही हुए थे। बम्बई- जो अब मुम्बई कहलाता है- के पेडर रोड पर आज भी वह वुडलैंड्स अपार्टमेंट मौजूद है।

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21 मार्च 1974 को जब रजनीश पुणे चले गए तो उनके जीवन के इस महत्वपूर्ण बम्बई-प्रकरण का अंत हो गया।

किन्तु बम्बई के साथ रजनीश के जीवन का अंतिम अध्याय शेष था और वह बहुत सुखद न था। अमेरिका से अवमानित, निष्कासित होकर लौटने और दुनिया के 20 से अधिक देशों के द्वारा प्रवेश की अनुमति नहीं देने के बाद वे जुलाई 1986 में बम्बई पहुँचे और यहाँ अपने जीवन के अंतिम हिंदी व्याख्यान दिए। ये ‘कोंपलें फिर फूट आईं’ और ‘फिर अमरित की बूँद पड़ी’ पुस्तकों में संकलित हैं। वे पाँच माह जुहू में रहे। जनवरी 1987 में वे पुन: पुणे लौट गए। लेकिन 1970 में जबलपुर से बम्बई आने वाले रजनीश और 1986 में विश्व-यात्रा से बम्बई लौटने वाले रजनीश में बहुत अंतर था। वह अंतर कैसा था और क्यों था, वह पृथक से विवेचना का विषय है। हमारा बम्बई-प्रकरण तो यहाँ पूर्ण हो जाता है।

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लेख के साथ दिया गया चित्र मम्बई के मरीन ड्राइव का है। रजनीश खुले में व्याख्यान दे रहे हैं। उनके समीप गैरिक वस्त्रों में मा योग लक्ष्मी हैं। एक बहुत महत्वपूर्ण व्यक्तित्व- जिन्होंने आरम्भिक काल में रजनीश का पूरा काम सम्भाल लिया था। योग लक्ष्मी उनकी निष्ठावान सचिव, सम्पादक, संकलनकर्ता थीं। शीला को सचिव बनाने की भूल रजनीश ने पुणे में की।

पत्रकार और चिंतक सुशोभित इन दिनों रजनीश पर पुस्तक लिख रहे हैं। किताब का प्रकाशन जल्द होगा। उसी किताब से एक अंश यहाँ प्रकाशित है।

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