हदों-सरहदों की घेराबन्दी से परे कविता होती है, या यूं कहे आपस की दूरियों को पाटने, दिवारों को गिराने का काम कविता ही करती है। शायर नजीर बनारसी अपनी गजलों, कविताओं के जरिए इसी काम को अंजाम देते रहे है। एक मुकम्मल इंसान और इंसानियत को गढ़ने का काम करने वाली नजीर को इस बात से बेहद रंज था कि…
‘‘न जाने इस जमाने के दरिन्दे
कहा से उठा लाए चेहरा आदमी का’’
एक मुकम्मल इंसान को रचने-गढ़ने के लिए की नजीर की कविताएं सफर पर निकलती है, हमे हमारा फर्ज बताती है, ताकीद करते हुए कहती है-
‘‘वहां भी काम आती है मोहब्बत
जहा नहीं होता कोई किसी का’’
मोहब्बत, भाईचारा, देशप्रेम ही नजीर बनारसी की कविताओं की धड़कन हैं। अपनी कहानी अपनी जुबानी में खुद नजीर कहते है, ‘‘मैं जिन्दगी भर शान्ति, अहिंसा, प्रेम, मुहब्बत आपसी मेल मिलाप, इन्सानी दोस्ती आपसी भाईचारा…. राष्ट्रीय एकता का गुन आज ही नहीं 1935 से गाता चला आ रहा हूं। मेरी नज्में हो गजलें, गीत हो या रूबाईया….. बरखा रूत हो या बस्त ऋतु, होली हो या दीवाली, शबेबारात हो या ईद, दशमी हो या मुहर्रम इन सबमें आपको प्रेम, प्यार, मुहब्बत, सेवा भावना, देशभक्ति कारफरमा मिलेगी। मेरी सारी कविताओं की बजती बासुरी पर एक ही राग सुनाई देगा वह है देशराग…..मैंने अपने सारे कलाम में प्रेम प्यार मुहब्बत को प्राथमिकता दी है।
हालात चाहे जैसे भी रहे हो, नजीर ने उसका सामना किया, न खुद बदले और न अपनी शायरी को बदलने दिया कही आग लगी तो नजीर की शायरी बोल उठी-
‘‘अंधेरा आया था, हमसे रोशनी की भीख मांगने
हम अपना घर न जलाते तो क्या करते?’’
25 नवम्बर 1925 में बनारस के पांडे हवेली मदपुरा में जन्में पेशे से हकीम नजीर बनारसी ने अंत तक समाज के नब्ज को ही थामे रखा। ताकीद करते रहे, समझाते रहे, बताते रहे कि ये जो दीवारे हैं लोगों के दरमियां, बांटने-बंटने के जो फसलफे हैं, इस मर्ज का एक ही इलाज है, कि हम इंसान बनें और इंसानियत का पाठ पढ़ें, मुहब्बत का हक अदा करें। कुछ इस अंदाज में उन्होंने इस पाठ को पढ़ाया-
‘‘रहिये अगर वतन में तो इन्सां की शान से
वरना कफन उठाइये, उठिये जहान से’’
नजीर का ये इंसान किसी दायरे में नहीं बंधता। जैसे नजीर ने कभी खुद को किसी दायरे में कैद नहीं किया। गर्व से कहते रहे मैं वो काशी का मुसलमां हूं नजीर, जिसको घेरे में लिये रहते है, बुतखाने कई। काशी यानि बनारस को टूट कर चाहने वाले नजीर के लिए बनारस किसी पारस से कम नहीं था। घाट किनारे मन्दिरों के साये में बैठ कर अक्सर अपनी थकान मिटाने वाले नजीर की कविता में गंगा और उसका किनारा कुछ ऐसे ढला-
‘‘बेदार खुदा कर देता था आंखों में अगर नींद आती थी,
मन्दिर में गजर बज जाता था, मस्जिद में अजां हो जाती थी,
जब चांदनी रातों मं हम-तुम गंगा किनारे होते थे।‘‘
नजीर की शायरी उनकी कविताएं धरोहर है, हम सबके लिए। संर्कीण विचारों की घेराबन्दी में लगातार फंसते जा रहे हम सभी के लिए नजीर की शायरी अंधरे में टार्च की रोशनी की तरह है, अगर हम हिन्दुस्तान को जानना चाहते है, तो हमे नजीर को जानना होगा, समझना होगा कि उम्र की झुर्रियों के बीच इस साधु, सूफी, दरवेष सरीखे शायर ने कैसे हिन्दुस्तान की साझाी रवायतों को जिन्दा रखा। उसे पाला-पोसा, सहेजा। अब बारी हमारी है, कि हम उस साझी विरासत को कैसे और कितना आगे ले जा सकते है। उनके लफजों में…
‘‘जिन्दगी एक कर्ज है, भरना हमारा काम है,
हमको क्या मालूम कैसी सुबह है, शाम है,
सर तुम्हारे दर पे रखना फर्ज था, सर रख दिया,
आबरू रखना न रखना यह तुम्हारा काम है।‘‘
बनारस से युवा और तेजतर्रार पत्रकार भाष्कर गुहा नियोगी की रिपोर्ट. संपर्क: 09415354828