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अंबानी की गोदी से उतारकर अडानी की गोदी में बिठाए जाने की एनडीटीवी की पूरी राम-कहानी कुछ यूँ है!

दिलीप मंडल-

एनडीटीवी की बर्बादी और लोन में डूबने की कहानी मीडिया शहंशाह रुपर्ट मर्डोक, बदनाम इंडियाबुल्स और भगोड़े विजय माल्या से जुड़ी है। एनडीटीवी हमेशा कॉरपोरेट गोदी में बैठता रहा। अब अंबानी की गोदी से उतारकर अडानी उसे ख़रीद रहा है। पूरी कहानी कुछ यूँ है:

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ये कहानी 1990 के मध्य में शुरू होती है, जब दूरदर्शन ने प्राइवेट कंपनियों से न्यूज़ शो बनवाने शुरू किए। इस पॉलिसी परिवर्तन के दौर में प्रणय रॉय और राधिका रॉय दूरदर्शन के लिए करेंट अफ़ेयर के प्रोग्राम बनाने लगे।

प्राइवेट न्यूज़ चैनलों को डाउनलिंकिंग की छूट मिली तो ज़ी न्यूज़ के पीछे एनडीटीवी भी न्यूज़ चैनल लेकर आ गया। लेकिन इसमें पैसा प्रणय राय ने नहीं, दुनिया के सबसे बड़े मीडिया शाहंशाह रूपर्ट मर्डोक ने लगाया। मर्डोक का पैसा और एनडीटीवी का कंटेंट।

इस तरह 1998 में बना चैनल एनडीटीवी-स्टार। चैनल का नाम स्टार न्यूज़ था। प्रणय राय को महँगी गोदी मिल चुकी थी।

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पाँच साल का करार था। आगे भी बढ़ सकता था। लेकिन एनडीटीवी के कंटेंट से चल रहा स्टार न्यूज़ चैनल कभी ढंग से चला नहीं। ज़्यादातर अफ़सरों के बच्चे-बच्चियों को नौकरी पर रखा गया, जो फ़ील्ड रिपोर्टिंग करते नहीं थे। सब स्टूडियो में बैठकर प्रवचन देते। जनता थक गई।

2001 में एनडीटीवी का हिंदी चैनल आया। जो पहले दिन से ही आलसी नज़र आया। कोई ऊर्जा नहीं। एकदम थकेला। एंकर के लंबे लंबे प्रवचन।

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ये चैनल आजतक और ज़ी की गर्मी झेल नहीं पाया। एनडीटीवी इंग्लिश का खून पीकर ज़िंदा रहा। लेकिन एनडीटीवी इंग्लिश के शरीर में भी ज़्यादा खून नहीं था। तीसरा चैनल एनडीटीवी प्रॉफिट भी सीएनबीसी के सामने कभी टिक नहीं पाया।

रुपर्ट मर्डोक का एनडीटीवी के साथ करार 2003 में ख़त्म होता। लेकिन चैनल की हालत देखकर मर्डोक की बेचैनी बढ़ गई। पैसा बेहिसाब जा रहा था। चैनल में मौज चल रही थी। लेकिन पब्लिक उन चैनलों को देख नहीं रही थी।

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आख़िरकार मर्डोक ने कह दिया- हमारे आपके रास्ते अलग। करार ख़त्म होते ही मर्डोक ने भारत में अपना स्टार न्यूज़ लॉन्च कर दिया। वहीं चैनल अब एबीपी न्यूज़ है। एनडीटीवी को अपना चैनल बनाना पड़ा। इस तरह एनडीटीवी के दर्शक और घट गए।

ये पहला मौक़ा था जब एनडीटीवी को अपना बिजनेस खुद करना था। अब तक वह कभी भारत सरकार तो कभी रुपर्ट मर्डोक के पैसे से चल रहा था। गोदी-गोदी खेल रहा था।

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इस मोड़ पर प्रणय रॉय की कारोबारी क्षमता की पोल खुल गयी। मर्रोक से करार ख़त्म होने के तीन साल में कंपनी इतनी पस्त हो गई कि 2006 में उसे इंडियाबुल्स से चार सौ करोड़ का लोन लेना पड़ा। इस समय कंपनी की कुल हैसियत भी इतने की नहीं थी। इंडियाबुल्स के पास कोई ग़लत पैसा था। वह दोनों हाथ से लुटा रहा था।

कंपनी पस्त थी पर खर्च घटाने की जगह एनडीटीवी खर्च बढ़ाया जा रहा था। 2007 में शराब व्यापारी विजय माल्या से करार करके प्रणय रॉय ने एक और चैनल एनडीटीवी गुड टाइम खोल दिया। विजय माल्या से एनडीटीवी को 100 करोड़ रुपए के विज्ञापन मिले। मौज मस्ती का कंटेंट चल नहीं पाया। लोग फ़ॉरेन का फ़ैशन टीवी देख रहे थे। एनडीटीवी इमेजिन भी फेल हो गया।

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फिर भी एनडीटीवी बच जाता अगर ग्लोबल मंदी न आती। विज्ञापन इस दौर में बिल्कुल सिंकुड़ गए और आसानी से मिलने वाले रुपयों का रास्ता बंद हो गया। एनडीटीवी बर्बादी के रास्ते पर था।

आगे की कहानी छोटी है।

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इंडियाबुल्स का लोन चुकाने के लिए एनडीटीवी ने आईसीआईआई से लोन लिया और वह लोन चुकाने के लिए अंबानी की फ़्रंट कंपनी VPCL से लोन लिया। लेकिन एनडीटीवी लोन चुकाने के मूड में नहीं थी। चैनल लोग देख भी नहीं रहे थे तो विज्ञापन भी नहीं आए। VPCL का मालिकाना इस बीच तीन बार बदला। आख़िरी बार VPCL को नाहटा से अडानी ने ख़रीद लिया।

यानी जो लोन कभी अंबानी का था, वह अडानी का हुआ। लोन देने वाली कंपनी के साथ ही एनडीटीवी भी अब अडानी की होने वाली है। सेबी को लगता है इस मामले में अडानी सही हैं।

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इस कहानी में एकमात्र रहस्य ये है कि अंबानी ने अपना लोन यानी अपने हाथ में आया हुआ चैनल अडानी को क्यों बेचा। पहली थ्योरी ये है कि अंबानी को इस चैनल में मज़ा नहीं आया। न लोग देख रहे थे, न पैसा आ रहा है। पैसा जा रहा था। ऊपर से चैनल काँ इंडिपेंडेंट होने का नाटक।

थ्योरी दो। सरकार या बीजेपी से किसी ने अंबानी को समझाया कि देश का एक तिहाई मीडिया पहले ये आपके पास है। ये छोटे से दो चैनल अड़ानी को लेने दीजिए। कोई भी सरकार नहीं चाहती कि एक ही कंपनी के पास सारा मीडिया चला जाए।

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जब अंबानी ने पर्दे के पीछे रहकर ज़ी एंटरटेनमेंट पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश की, तब भी उसे कामयाबी नहीं मिली। ज़ी का करार सोनी से हुआ और कंपनी अंबानी के पास नहीं गई।

तो सिर्फ गोदी बदली है। इसलिए रोना नहीं चाहिए।

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