उर्मिलेश-
महीनों बाद आज पार्क की तरफ गया था. कई परिचितो से रूबरू हुआ. इनमें कुछ ‘परम-भक्त’ थे. उनमें एक अपेक्षाकृत सहज दिखने वाले से पूछा: ‘भाई, क्या हाल हैं, सब लोग सकुशल हैं न! परिवार और मित्रमंडली में?’ कुशलक्षेम के बाद राजनीतिक परिदृश्य पर भी संक्षिप्त चर्चा कर ली!
मैने पूछा: ‘क्या सोचते हैं आप और आपके मित्र लोग, मौजूदा परिदृश्य और समाज की बेहाली को लेकर?’ इसके बाद उस ‘परम-भक्त’ ने जो कुछ कहा, वह मैं यहाँ उन्हें उद्धृत करके भी यहां बयां नहीं कर सकता! बस, एक शब्द में समझ लीजिये कि आज की तारीख में वह सिर्फ ‘पूर्व परम-भक्त’ ही नहीं हैं, पूरी तरह ‘प्रचंड विपक्षी’ हो चुके हैं! मजे की बात कि वह उच्च-वर्णीय पृष्ठभूमि से आते हैं.
मैने पूछा, ‘यह बदलाव सिर्फ आप में है या आपके अन्य साथियों में भी?’ उन्होंने बताया: ‘मेरे अस्सी-पचासी प्रतिशत से ज्यादा साथियों की भी अब यही राय है.’ मैने फिर कुरेदा: ‘लेकिन टीवी चैनल वाले दिन-रात जब फिर से उनका महिमामंडन करना और तेज कर देंगे तब?’
उनका जवाब था: ‘वो तो बस शुरू हो चुके हैं, 2024 से पहले 2022 के यूपी के लिए. पर अब लोगों पर टीवी का क़ोई असर नही होगा. सबको मालूम हो चुका है टीवी वाले राग-दरबारी बजाते हैं!’
‘परम-भक्त’ समूहों के अंदर हुए बदलाव की अगर यह एक प्रतिनिधि तस्वीर है तो टीवी वाले कुछ भी बजायें, उनके ‘परम परमेश्वर लोग’ चाहे जितना जोर लगायें और निर्वाचन कराने वाली नौकरशाही को चाहे जितना पटालें, गंगा-यमुना के मैदान में उनका भविष्य इस बार बहुत सुरक्षित नहीं नजर आता!
अगर सबकुछ ऐसा ही रहे तो उन्हें तो यूपी में सिर्फ किसान और नौजवान ही हरा देंगे! पर हम सब जानते हैं, आज के दौर के चुनाव किस तरह लड़े जाते हैं, एक पार्टी-विशेष किस तरह ‘कैश की कर्मनाशा’ बहा देती है! लोग उनके सारे ‘कर्म-कुकर्म’ भुला बैठते हैं. टीवी चैनल वाले उनकी दुन्दुभि बजाना तेज कर देते हैं! खैर, वे जो भी कर लें, यूपी की लड़ाई इस बार आसान नहीं नजर आती!
बस, एक पहलू है जो उन्हे जीतने में मदद कर सकता है: यूपी में उनके विरुद्ध कोई ‘जीतने वाला’ नहीं नजर आता. यूपी में न कोई ममता है, न विजयन है और न स्टालिन है! यूपी में दबे-डरे कुछ ‘जीव’ हैं, जिन्होंने बहुत पहले अपनी ‘जीवात्माएं’ बेच दी थीं. अगर वे अपनी-अपनी बिकी ‘जीवात्माएं’ वापस ला दें और जूझने को तैयार हो जायं तो यूपी ‘बंगाल-जैसा’ हो सकता है!