पंकज चतुर्वेदी-
आज 1940-41 में लिखा, निराला का लघु उपन्यास ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ बहुत याद आया। बिल्लेसुर जाति के ब्राह्मण हैं–एक सीधे-सादे, ग़रीब, हनुमान जी को मानने वाले ग्रामीण। आजीविका के अन्य मोर्चों पर नाकाम हो जाने के कारण आख़िर बकरियाँ पालते हैं और इस रूढ़ि की परवाह नहीं करते कि बकरी पालने से ब्राह्मण की जाति जाती है।
बिल्लेसुर बकरियों को चराने के लिए हार-खेत ले जाते हैं और एक दिन उनका एक बकरा चोरी चला जाता है। उस ज़माने में वह आठ रुपये का था–ग़रीबी में ऐसी चोट खाकर वह मन मसोसकर रह जाते हैं। रास्ते में महावीर जी का एक मन्दिर था, जहाँ उन्होंने प्रार्थना कर रखी थी कि ‘मेरी बकरियों को देखे रहना!’ लेकिन जब उन्हें एक जगह ख़ून मिलने पर शक हो जाता है कि उनका बकरा चोरी करके काट डाला गया है और अब लौटकर नहीं आएगा, तो वह क्षोभ से भरकर मन्दिर जाते और हनुमान जी की प्रतिमा पर डंडा चला देते हैं।
यह कितना महत्त्वपूर्ण है कि आज से लगभग पच्चासी बरस पहले निराला अपने नज़रिए में इतने आधुनिक थे कि एक औपन्यासिक चरित्र में ऐसी सेक्युलर जातीयता को सम्भव कर सके! प्रस्तुत है इस रचना का एक प्रासंगिक अंश :
“बिल्लेसुर डंडा लिये धीरे-धीरे गाँव की ओर चले। ढाढ़स अपने आप बँध रहा था। दूसरे काम के लिए दिल में ताक़त पैदा हो रही थी। भरोसा बढ़ रहा था। गाँव के किनारे आए। महावीर जी का वह मन्दिर दिखा। अँधेरा हो गया था। सामने से मन्दिर के चबूतरे पर चढ़े। चबूतरे-चबूतरे मन्दिर की उल्टी प्रदक्षिणा करके, पीछे महावीर जी के पास गए। लापरवाही से सामने खड़े हो गए और आवेग में भरकर कहने लगे––”देख, मैं ग़रीब हूँ। तुझे सब लोग ग़रीबों का सहायक कहते हैं, मैं इसीलिए तेरे पास आता था, और कहता था, मेरी बकरियों को और बच्चों को देखे रहना। क्या तूने रखवाली की, बता, लिये थूथन-सा मुँह खड़ा है?”
कोई उत्तर नहीं मिला। बिल्लेसुर ने आँखों से आँखें मिलाए हुए महावीर जी के मुँह पर वह डंडा दिया कि मिट्टी का मुँह गिली की तरह टूटकर बीघे भर के फ़ासले पर जा गिरा।”
एक सीधा-सादा, ग़रीब और आस्तिक ग्रामीण भी इतना यथार्थनिष्ठ है कि दुनियावी निर्ममता की मार पड़ने पर वह सहसा एक क्षण में भगवान और भक्ति की निस्सारता या व्यर्थता को पहचान लेता है और बग़ैर किसी औपचारिक शिक्षा-दीक्षा के अपने नज़रिए में इतना आधुनिक और ‘सेक्युलर’, यानी लोकवादी है कि हनुमान जी की प्रतिमा पर भी डंडा चलाने का अप्रत्याशित साहस करता है।
Ajay
May 14, 2023 at 10:09 pm
80 साल पहले पिछड़े भारत मे निराला ने बिल्लेसुर लिख दिया, मगर आज के कथित अत्याधुनिक, विकसित, विश्वगुरु भारत मे आप बिल्लेसुर का जिक्र नही कर सकते, वरना सारे बकासुर उठ खड़े होंगे!
H.shanker shukla
May 15, 2023 at 6:40 pm
सत्य।