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निष्पक्ष दिखने के दबाव में ‘स्वतंत्र’ पत्रकारिता

जो किसानों की मांग और उसकी राजनीति के ‘रत्नों’ के मामले को छिपाने-दबाने में बिल्कुल बेशर्म है

संजय कुमार सिंह

मैंने कल लिखा था कि अखबारों ने कतर से पूर्व नौसैनिकों को रिहा किये जाने और उसके साथ सरकार तथा प्रधानमंत्री के प्रचार को महत्व दिया जबकि किसानों का मामला बड़ा था। आज मेरे सभी अखबारों में किसानों की खबर लीड है। पर उनकी मांग या सरकार की लापरवाही या उसकी उपेक्षा नहीं, हिंसा। इस तरह किसानों को खलनायक के रूप में पेश किया गया है जबकि वे मजबूर हो सकते हैं। एक पुरानी तस्वीर से दोबारा बदनाम करने की असम के मुख्य मंत्री हिमंत बिस्व सरमा की कोशिश सोशल मीडिया में पर कल ही चर्चा में थी, तब भी।

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आज की खबरों की प्रस्तुति पर आने से पहले यह याद करना जरूरी है कि मामला नया नहीं है। ये बताना भी जरूरी है कि नरेन्द्र मोदी की सरकार 2020 में किसानों से संबंधित ऐसे कानून ले आई थी जिसका किसानों ने जमकर विरोध किया, करीब एक साल आंदोलन पर डटे रहे, कोई 700 किसान शहीद भी हुए और तब जाकर उन कानूनों को वापस लिया गया। इसके बाद सरकार को अपने कानून और किसानों के हित में काम करना चाहिये था, आश्वासन पर कायम रहना चाहिये था पर जो हुआ उससे किसान संतुष्ट नहीं हैं। अब फिर आंदोलन पर हैं तो उसे रोकने और बदनाम करने के लिए वही सब हो रहा है जो पहले हुआ था, उनके और देश हित की बातें गौण हो गई हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि देश के लाखों किसानों को असंतुष्ट, दुखी और नाराज रखकर देश की राजनीति और अर्थव्यवस्था को दुरुस्त नहीं रखा जा सकता है और चुनाव जीतना तो मुश्किल है ही।

ऐसे में चुनावी वर्ष में कर्पूरी डिविजन वाले कर्पूरी ठाकुर और रथ यात्रा वाले लाल कृष्ण आडवाणी को दो भारत रत्न देने के बाद अगर किसान राजनीति के पुरोधा चौधरी चरण सिंह तथा कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन को कांग्रेस नेता पीवी नरसिंह राव के साथ एक साथ अधिकतम तीन भारत रत्न दिये जाने के रिवाज को 2019 के बाद तीन साल किसी को नहीं देने के बाद दोहराया गया है तो इसकी राजनीति समझना मुश्किल नहीं है। इसे मंडल मंदिर और मार्केट यानी बाजार की राजनीति कहा गया है। इससे किसानों की मांगें पीछे छूटती लगती हैं और आज की खबरों को इसी आलोक में देखा जाना चाहिए। खास कर इसलिए कि एमएस स्वामीनाथन की बेटी मधुरा स्वामीनाथन ने कहा है कि प्रदर्शनकारी किसान हमारे अन्नदाता हैं और उनके साथ अपराधियों जैसा व्यवहार नहीं किया जा सकता है। इंडियन एक्सप्रेस ने आज यह खबर किसानों को दिल्ली सीमा पर रोकने के लिए किये गये उपायों की खबर के साथ छापा है (जो किसी और अखबार में पहले पन्ने पर नहीं दिखी)। इसका शीर्षक है, अगर हम स्वामीनाथन को सम्मानित करते हैं तो किसानों को साथ रखना होगा।

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आज के अखबारों में इस और दूसरी खबरों की प्रस्तुति की चर्चा से पहले बता दूं कि मेरी राय में किसानों का मामला देश की राजनीति और अर्थव्यवस्था से जुड़ा एक गंभीर मामला है। सरकार इससे निपटने के लिए क्या, कैसे कर रही है यह उसकी राजनीति है और जनता इस आधार पर तय कर सकती है कि उसे किसका समर्थन करना है। जनता के निर्णय के कारण और आधार कई अन्य हो सकते हैं पर इसका महत्व कम नहीं है। चुनाव की घोषणा से ठीक पहले इस मामले का फिर खड़ा होना भी राजनीति हो सकती है, किसानों को बांटने की कोशिश हो सकती है, राजनीति से संबंध नहीं है कहना भी राजनीति हो सकती है लेकिन किसानों को सरकार का विरोध करने का अधिकार है और उनके साथ जबरन, अनावश्यक हिन्सा नहीं होनी चाहिये इसमें भी कोई दो राय नहीं है। अगर किसानों को लगता है कि यह सरकार उनका हित नहीं करेगी या कर रही है तो उन्हें सरकार का विरोध करने का भी अधिकार है। अखबारों का काम खबर देना है किसी का पक्ष लेना नहीं।

अगर किसी को लगे कि कोई किसानों का काम करने में सक्षम है तो उसका समर्थन किया जाना चाहिये जो अयोग्य, अक्षम या अनिच्छुक है उसके समर्थन का कोई मतलब नहीं है। फिर भी अगर आप मौजूदा सरकार को अयोग्य, अक्षम या अनिच्छुक नहीं मानते हैं तो तथ्यों की रिपोर्टिंग निष्पक्षता से ही की जानी चाहिये ताकि जो काम कर सकता है, करना चाहता है उसे भी मौका मिले। उसके दादा-नाना के काम के आधार पर निर्णय नहीं होना चाहिये और दादा नाना का काम अगर मायने रखता है तो वह दूसरों के मामले में भी रखेगा। दूसरों के मामले में कहा जा सकता है कि वे बेपरवाह थे, क्योंकि उनका मतलब ही नहीं था। इंडियन एक्सप्रेस ने आज इस खबर को फोटो के साथ पांच कॉलम में छापा है। इसके साथ मुख्य खबर का इंट्रो तथा दो और खबरें हैं। इनमें एक एमएस स्वामीनाथन की बेटी का है दूसरा कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा की किसानों से अपील – वार्ता के लिए आइये, पैनल बनाने को तैयार हूं। मुख्य खबर का इंट्रो है, नहीं मानेंगे …. किसान नेताओं ने लोगों से बड़ी मात्रा में आगे आने की अपील की।

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इन खबरों में सबसे महत्वपूर्ण है कृषि मंत्री की अपील। तथ्य यह है कि अब पैनल बनाने और वार्ता के लिए बुलाने का क्या मतलब है जब मामला चार साल पुराना है। यही नहीं, कुछ दिन पहले भी किसान दिल्ली सीमा तक आकर लौट चुके हैं। इसके अलावा टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर का शीर्षक है, केंद्र ने किसानों से कहा- वार्ता के लिए तैयार पर मुद्दे मत जोड़िये (बढ़ाइये)। द हिन्दू  की लीड का शीर्षक है, केंद्र ने एमएसपी कानून से इनकार किया, किसानों से वार्ता की पेशकश की। उपशीर्षक है, संयुक्त किसान मोर्चा ने प्रधानमंत्री से हस्तक्षेप और किसानों के खिलाफ ताकत का उपयोग नहीं करने की अपील की। हिन्दुस्तान टाइम्स की खबर का शीर्षक है, गतिरोध जारी, मंत्री ने कहा कि जल्दबाजी में कानून नहीं बन सकता है। दूसरे सभी अखबारों की तरह अमर उजाला में भी दिल्ली सीमा पर किसानों की हिंसा की खबर मुख्य शीर्षक है। यहां उपशीर्षक है, “टकराव : प्रदर्शनकारियों के पथराव में डीएसपी समेत 27 पुलिसकर्मी घायल, कई किसान हिरासत में”।

द टेलीग्राफ में लीड का फ्लैग शीर्षक है, दिल्ली के रास्ते में 60 जख्मी (नवोदय टाइम्स ने 100 घायल और 19 पुलिसकर्मी भी लिखा है) , प्रदर्शनकारियों ने युद्धविराम की अपील की। लीड का मुख्य शीर्षक है, किसानों को नाकाम करने के लिए इजराइली ड्रोन टैकटिक। यह तथ्य किसी और अखबार के शीर्षक में नहीं है। कल आपने पढ़ा होगा कि कतर से रिहा होने वाले पूर्व नौसैनिकों पर आरोप स्पष्ट नहीं है और मीडिया में इजराल के लिए कतर की जासूसी के आरोप हैं। इन आठ में से सात के रिहा होने के बाद कल के अखबारों में प्रधानमंत्री और सरकार की प्रशंसा तो थी पर यह नहीं बताया गया कि उन्हें जल्दबाजी में कतर क्यों जाना पड़ा। अब पता चल रहा है कि किसानों के खिलाफ इजराल के ड्रोन का उपयोग किया गया और यह सब अखबारों में प्रमुखता से नहीं है। यही नहीं, अमर उजाला की एक खबर के अनुसार कांग्रेस ने कहा है, हम देंगे एमएसपी की कानूनी गारंटी।

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नवोदय टाइम्स ने किसानों ने तोड़े बैरिकेड्स, पुलिस ने छोड़ी आंसू गैस, दिल्ली में सतर्कता और सीजेआई ने लिया जाम का संज्ञान जैसी खबरों से ‘जैसे को तैसा’ जैसा मामला लगता है पर एक साथ छपी तीन खबरों से किसानों की समस्या और उपलब्ध विकल्प भी बता दिया है। पहली खबर का शीर्षक है, “जल्दबाजी में नहीं लाया जा सकता है एमएसपी कानून: मुंडा”। दूसरी खबर है, “सरकार के साथ बातचीत में शामिल हों :अनुराग ठाकुर” और तीसरी, “हमारी सरकार बनी तो देंगे एमएसपी:राहुल”। कहने की जरूरत नहीं है कि एमएसपी की मांग आज की नहीं है, बातचीत तो आंदोलन की सुगबुगाहट शुरू होते ही शुरू हो गई थी और नाकाम रही है तथा राहुल गांधी ने एमएसपी की गारंटी दी है तो उसे अखबारों ने महत्व नहीं दिया जबकि गारंटी के मामले में कई बार फेल हो चुके नरेन्द्र मोदी की गारंटियों को न सिर्फ प्रशंसा मिलती है, सरकारी पैसे से विज्ञापन के रूप में भी प्रचारित किया जा रहा है।

निष्पक्ष दिखने का दबाव

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यही नहीं, पत्रकारों पर निष्पक्ष दिखने का दबाव (और इसलिए कोशिश) राजदीप सरदेसाई के एक ट्वीट में भी नजर आता है। अंग्रेजी में उन्होंने जो लिखा है उसका अनुवाद इस प्रकार है, “कांग्रेस का कहना है कि अगर वह सत्ता में आई तो न्यूनतम समर्थन मूल्य पर स्वामीनाथन समिति की रिपोर्ट लागू करेगी। तो यहाँ मेरा प्रश्न है: रिपोर्ट 2006 में तैयार हो गई थी, मनमोहन सिंह सरकार ने इसे लागू क्यों नहीं किया? 3 राज्यों में कांग्रेस सरकारें हैं: वे इसे लागू क्यों नहीं करते? फिर, मोदी सरकार ने वादा किया कि 2022 तक कृषि आय दोगुनी हो जाएगी। मेरे प्रश्न: वादे का क्या हुआ? शुद्ध नतीजा : चुनाव के समय किसानों से दिखावा। कई लोगों के लिए खेती जारी रखने से संबंधित समस्याओं का कोई वास्तविक समाधान नहीं है।“ कहने की जरूरत नहीं है कि यहां भी राजदीप राहुल से सवाल कर रहे हैं, सरकार से नहीं। सरकार के खिलाफ दिखने के लिए यह जरूर कहा है कि मोदी सरकार ने वादा किया था कि किसानों की आय दूनी हो जायेगी। पर वह सब तो जुमला घोषित किया जा चुका है। मुद्दा किसानों के पिछले आंदोलन के बाद दिये आश्वासन का है। उसपर यह ट्वीट शांत हैं।

राहुल गांधी ने और एमएस स्वामीनाथन की रिपोर्ट की बात यूं ही नहीं की है, उन्हें भारत रत्न देने के संदर्भ में कहा है और कहने की जरूरत नहीं है कि किसानों की मांग सिर्फ एमएसपी नहीं होगी। यही नहीं, किसानों के भले की बात एमएस स्वामीनाथन की बेटी ने भी उन्हें भारत रत्न दिये जाने के संदर्भ में कही है। जहां तक 2006 में मनमोहन सिंह की सरकार और राज्यों में कांग्रेस सरकार द्वारा इसे लागू किये जाने की बात है, पूरा मामला तो स्वामीनाथन को भारत रत्न दिये जाने के बाद का है पहले का होता तो सवाल यह होना चाहिये कि रिपोर्ट लागू किये बगैर स्वामीनाथन को भारत रत्न देने का क्या मतलब? वह भी एक साल में दो देने के बाद दो पूर्व प्रधानमंत्रियों के साथ? अगर राज्यों में लागू करने की बात है तो अभी कितने दिन हुए हैं और राहुल गांधी ने कहा है कि दिल्ली में सरकार बनने पर लागू करेंगे तो सिर्फ दिल्ली के लिए थोड़े कहा होगा।

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यही नहीं, राजदीप ने लिखा है, कई लोगों के लिए खेती जारी रखने से संबंधित समस्याओं का कोई वास्तविक समाधान नहीं है। मुझे लगता है कि यही तो मुद्दा है, यही चिन्ता की बात होनी चाहिये। क्या खेती छोड़कर हम रह सकते हैं, अच्छा कर सकते हैं। शायद नहीं। ऐसे में रास्ता तो निकालना ही होगा पर कोशिश भी नजर नहीं आ रही है। ऐसे में सवाल या मुद्दा बदलना मजबूरी नहीं होना चाहिये। अगर सिफारिशों को आज ही लागू करने की बात हो तो दिल्ली में आम आदमी पार्टी के निर्णयों को लागू करने में खड़ी की जाने वाली बाधाएं कौन नहीं जानता है। ऐसे में राहुल गांधी से इस सवाल का कोई मतलब नहीं है। उनकी घोषणा की प्रशंसा आप चाहें तो नहीं करें, उसके लिए स्वतंत्र हैं लेकिन उसपर सवाल उठाकर किसानों को प्रभावित करने के उनके तरीके को बेअसर करने की कोशिश जरूर दिख रही है। फिर भी पत्रकार हैं कि मानते नहीं। कारण चाहे जो हो – पहले तो राज्य सभा की सीटें ही हुआ करती थीं अब तो भारत रत्न भी है। 

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