मध्य प्रदेश में दो पार्टी सिस्टम के चलते बारी बारी से कांग्रेस और भाजपा की सरकारें आती जाती रहती हैं. केवल दो ही दल होने से एक दूसरे को साधने में दिक्कत नहीं आती है. दोनों दलों में एक दूसरे की सरकारों के भ्रष्टाचार पर लीपापोती करने को लेकर गजब का तालमेल रहता आया है. कभी-कभार आरोप प्रत्यारोप, एफ़आईआर और मानहानि के मुकदमों की गहमागहमी से लगता जरूर है की इस तालमेल पर ग्रहण लग रहा है पर हकीकत में ऐसा होता नहीं है.
कुछ समय तक एक दूसरे को गरियाने के बाद दोनो अपने-अपने दड़बे में घुस कर सत्ता के शोषण में मशगूल हो जाते हैं. इन दिनों मुख्यमंत्री कमलनाथ के नजदीकी लोगों पर छापे और फिर उसके तुरंत बाद शिवराज सरकार के कथित घोटालों पर मामले दर्ज होने को इसी ड्रामेबाजी का एपिसोड मानें.
ई टेंडर घोटाला रातोंरात सामने नही आया है. शिवराज राज में ही इसकी धमक सुनाई देने लगी थी. फिर सत्ता में आने के चार महीने बाद अचानक ऐसा क्या हुआ जो भरे चुनाव के बीच आनन फानन पांच एफ़आईआर दर्ज कर ली गईं? इसे भ्रष्टाचार के खिलाफ कमलनाथ का शंखनाद मामने की भूल हरगिज ना कर बैठिएगा. यदि पीछे जाएँ तो यह तब के मुख्यमंत्री शिवराज द्वारा आनन फानन में दिग्विजय सिंह और श्रीनिवास तिवारी के खिलाफ दर्ज कराई गई एफ़आईआर जैसा ड्रामा ही नजर आता है. सब मानते हैं की ई टेंडर में की गयी एफ़आईआर मुख्यमंत्री कमलनाथ के नजदीकी प्रवीण कक्कड़ और अश्विन शर्मा पर हुई कार्रवाई की प्रतिक्रिया भर है.
ठीक ऐसी ही आक्रामक प्रतिक्रिया तब के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की थी जब दिग्विजय सिंह ने ट्रांसपोर्ट आरक्षकों की भर्ती में ससुराल गोंदिया के लोगों की कथित हिस्सेदारी पर हल्ला बोल दिया था. फिर क्या था, बौखलाए शिवराज ने ऐसे ही किसी मौके के लिए बचा कर रखे विधानसभा भर्तियों के टाइमबम का विस्फोट कर दिया. तब उन्हें भी रातोरात इल्म हुआ की सोलह-सत्रह साल पहले दिग्विजय सिंह और स्पीकर श्रीनिवास तिवारी की मिलीभगत से विधानसभा में भर्ती घोटाला हुआ था. उन्होंने भी इसी अंदाज में एफ़आईआर दर्ज कर कागजी कार्रवाई की पर अगले चार साल कुछ नहीं किया. अलबत्ता श्रीनिवास तिवारी के निधन पर उनके गाँव जाने में शिवराज ने देर नहीं की थी. कारण यह कि विधानसभा चुनाव में पार्टी को विंध्य में ब्राहमण वोटों की दरकार थी!
भोपाल से वरिष्ठ पत्रकार श्रीप्रकाश दीक्षित की रिपोर्ट.