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सुख-दुख

‘ओपनहाइमर’ ने अपनी अंतरात्मा को दिलासा देने के दो बहाने ढूंढे थे!

आशुतोष कुमार-

|| कालोऽस्मि || फिल्म ओपनहाइमर ने वैज्ञानिक की नैतिकता की बहस को फिर से जिंदा कर दिया है। इसे लेखक या कलाकार की नैतिकता की बहस से जोड़कर देखा जा सकता है।

ओपनहाइमर और उनके साथी वैज्ञानिक जानते थे हिटलर की मौत के साथ दूसरे विश्वयुद्ध का फैसला हो चुका है। यह भी सबके सामने साफ था कि जापान अकेले लड़ाई को लंबे समय तक जारी नहीं रख सकता था। इस सूरत में एटम बम बनाने और उसका इस्तेमाल करने की कोई रणनीतिक और राजनैतिक अपरिहार्यता नहीं थी। इसलिए उसका कोई नैतिक आधार भी नहीं था।

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एक बात पक्की है। उस समय अगर ओपनहाइमर की टीम ने एटम बम नहीं बनाया होता तो हिरोशिमा और नागासाकी के जनसंहार नहीं होते।

जिस तरह फासीवाद मानवता के विरुद्ध एक भीषण अपराध है उसी तरह परमाणु जनसंहार भी। दोनों अलग-अलग तरह के जरूर हैं, लेकिन इनमें से किसी को बड़ा या छोटा अपराध बताना मुश्किल है। सवाल है, क्या किसी एक अपराध को रोकने के लिए वैसे ही या उससे भी बड़े किसी दूसरे अपराध को न्यायोचित ठहराया जा सकता है?

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फिल्म दिखाती है कि पहले परमाणु विस्फोट के साथ यह आशंका भी जुड़ी हुई थी कि इससे एक ऐसा चेन रिएक्शन शुरू हो सकता है जिससे सारी धरती नष्ट हो जाए। विस्फोट के पहले ओपनहाइमर की नैतिक दुविधा के पीछे एक कारण यह भी था।

फिल्म दिखाती है कि ओपनहाइमर ने अपनी अंतरात्मा को दिलासा देने के दो बहाने ढूंढे थे। एक तो यह एटम बम के विनाशकारी नतीजों के लिए उसे बनाने वाले वैज्ञानिक नहीं, बल्कि उसका इस्तेमाल करने का फैसला लेने वाले राजनेता जिम्मेदार होंगे। दूसरा यह कि एटम बम की विनाशकारी क्षमता का पता चल जाने के बाद दुनिया में कोई बड़ा युद्ध नामुमकिन हो जाएगा।

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फिल्म यह भी दिखाती है कि एटम बम के वास्तविक इस्तेमाल से हुई जनहानि को देखने के बाद यह दोनों बहाने वैज्ञानिक के काम नहीं आए। उनका नैतिक अपराध बोध हावी होता गया और जिंदगी के आखिरी साल उन्होंने हथियारों की होड़ की राजनीति के खिलाफ प्रचार करते हुए बिताए। इस कारण अमेरिकी राजसत्ता की निगाह में उनकी देशभक्ति संदिग्ध हो गई।

फिल्म यह इशारा भी करती है कि एटम बम के इस्तेमाल ने राजनीतिक रूप से एक ऐसा चेन रिएक्शन सचमुच शुरू कर दिया जिसने दुनिया को शीत युद्ध में ढकेला और सर्वनाश की वास्तविक संभावना तक पहुंचाया। यह खतरा आज भी टला नहीं है।

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ओपनहाइमर की नैतिक दुविधा के संदर्भ में गीता के दर्शन की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो उठती है। ओपनहाइमर की दुविधा महाभारत के अर्जुन के विषाद से मिलती जुलती है। क्या धर्म और न्याय के नाम पर एक ऐसे युद्ध का समर्थन किया जा सकता है जिससे मानवीय महाविनाश की आशंका हो?

गीता का समाधान यह है के वास्तविक कर्ता मनुष्य नहीं ईश्वर है । इसलिए युद्ध से होने वाले महाविनाश का नैतिक दायित्व मनुष्य के सिर पर नहीं है। उसे फल की नहीं केवल कर्म की चिंता करनी चाहिए। मनुष्य का कर्म ही उसका धर्म है। अर्थात एक योद्धा, एक वैज्ञानिक, एक कलाकार या एक लेखक के रूप में व्यक्ति को केवल अपने विशिष्ट कर्म के प्रति समर्पित होना चाहिए।
इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए कि उसके कर्म का शेष मनुष्यता पर क्या प्रभाव पड़ता है!

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कर्म के नैतिक फल के दायित्व से मुक्त करने वाला यह दर्शन वैज्ञानिक को दुनिया के किसी अन्य धर्म या दर्शन से नहीं मिल सकता था। इसलिए ओपनहाइमर का
गीता प्रेम अकारण नहीं था। अब यह हमारे ऊपर है कि हम भारतीय लोग इस विषय को लेकर गौरवान्वित महसूस करें या किसी नैतिक अपराध बोध में उलझ जाएं।

कहा जाता है कि पहले परमाणु परीक्षण की सफलता के क्षण में वैज्ञानिक ने गीता की यह उक्ति दुहराईं थी:
“कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो/
लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।”
(मैं काल हूं, लोकों का संहार करने वाला।)

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ईश्वर की यह उक्ति मनुष्य को उसके अपराध के दायित्व से मुक्त कर देती है। इसे दोहराते हुए वैज्ञानिक अपने अपराध बोध को संयमित करने के साथ-साथ स्वयं को ईश्वर की विराट नैतिक भूमिका में भी प्रस्थापित करता है। यों मनुष्य को अपराध मुक्त करने वाले ईश्वर की आभा स्वयं को अपराध मुक्त महसूस करने वाले मनुष्य को भी मिल जाती है।

महाविनाश का हथियार बनाने जा रहे वैज्ञानिक के लिए यह केवल एक सैद्धांतिक और नैतिक सहारा मात्र नहीं था। इस बात पर जोर देने के लिए यह फिल्म दिखाती है कि वैज्ञानिक अपने सबसे अंतरंग क्षणों में भी श्लोक को याद करता है। संकेत स्पष्ट है। गीता का यह श्लोक उसके अंतरतम का हिस्सा बन चुका है।

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त्रासदी यह है गीता का ये ज्ञान न तो अर्जुन को उसके कर्म के दायित्व से मुक्त कर सका, न महाभारत के महाविनाश को रोक सका , न #ओपनहाइमर के मानसिक संतुलन को बनाए रखने में मददगार हो सका, ना ही दुनिया को एटॉमिक सर्वनाश के साए में जीने की नियति से बचा पाया।

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