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सुख-दुख

ऐसा कब होगा जब महिलाओं के परिधान से उनका चरित्र नहीं नापा जाएगा?

क्या यह एक सोडावाटरी उबाल है?… प्रसिद्ध पत्रकार ऋतुपर्णा चटर्जी ने देश में “मी-टू” अभियान को शक्ल दी और कई बड़े-बड़े नाम इसकी गिरफ्त में आये। केंद्रीय विदेश राज्यमंत्री रह चुके नामी संपादक एम. जे. अकबर भी इसकी जद में आये और उन्हें अपना पद गंवाना पड़ा। जब यह अभियान अपने चरम पर था तो बड़े-बड़े पत्रकारों, संपादकों, फिल्मकारों और अभिनेताओं पर आरोप लगे। विवशतावश अपमान सह चुकी महिलाओं ने खुलकर बोलना शुरू किया। यह एक शुभ संकेत था कि महिलाओं ने एक-दूसरे का साथ दिया और उनमें हिम्मत आई। वे शोषण के खिलाफ बोलने के लिए तैयार हुईं और उनका शोषण करने वाले पुरुषों में डर समाया। इस बीच कई महिलाओं पर भी आरोप लगे कि उन्होंने व्यक्तिगत रंजिश के चलते किसी का नाम ले दिया है, पर ऐसे आरोप लगाने वाले यह भूल गए कि अन्याय करने वाला व्यक्ति जब अन्याय के बावजूद बच निकलता है तो उसकी हिम्मत इतनी बढ़ जाती है कि अन्याय करना उसकी आदत में शामिल हो जाता है और फिर वह हर किसी पर अन्याय करता चलता है। यही कारण था कि जब किसी महिला पर झूठे आरोप लगाने के इल्जाम लगे तो तुरंत कई और महिलाओं ने सामने आकर शोषक पुरुष की पोल खोली। इससे “मी-टू” आंदोलन को बल मिला, यहां तक कि बहुत से पुरुष भी इन महिलाओं के समर्थन में सामने आये।

यह संयोग ही है कि आज 8 मार्च का दिन है जिसे अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है। हर साल की तरह इस वर्ष भी बहुत से आयोजन होंगे, महिलाओं के योगदान के गीत गाए जाएंगे, उन्हें माता, धर्मपत्नी, प्रेयसी और बहन के रूप में आदर देने की बातें की जाएंगी। लेख छपेंगे, चर्चाएं होंगी और हम भूल जाएंगे कि “मी-टू” आंदोलन लगातार कमजोर पड़ता जा रहा है। शोषण का शिकार हुई महिलाओं को तो न्याय नहीं मिला, कइयों को तो काम मिलना भी बंद हो गया, लेकिन शोषण करने वाले पुरुषों की मांग अपने-अपने क्षेत्र में लगातार बनी हुई है। यह हमारे समाज का खोखलापन है कि धीरे-धीरे सभी आरोपित पुरुषों को वही पुराना रुतबा और सम्मान हासिल होना शुरू हो गया है जो उन्हें पहले मिलता था।

जी हां, आज 8 मार्च है जिसे अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसका मतलब क्या है? मैं समझता हूं कि इसका एक ही मतलब है कि हमारे समाज में हम पुरुष लोग आज भी महिलाओं को वह स्थान और सम्मान देने के लिए तैयार नहीं हैं, जिसकी कि वे हकदार हैं, अन्यथा हमें 8 मार्च को महिला दिवस के रूप में मनाने की आवश्यकता ही न होती। कभी सोचा है कि अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस क्यों नहीं होता? कब ऐसा होगा जब हमें महिला दिवस की आवश्यकता नहीं रहेगी? कब ऐसा होगा जब महिलाओं के परिधान से उनका चरित्र नहीं नापा जाएगा? कब ऐसा होगा जब महिलाओं के खान-पान से उनका चरित्र नहीं नापा जाएगा? कब ऐसा होगा जब किसी पुरुष सहकर्मी के साथ खड़े होने पर उनके चरित्र पर उंगली नहीं उठाई जाएगी? कब ऐसा होगा जब उनकी प्रगति का श्रेय उनकी “हज़ार वॉट की मुस्कान” के बजाए उनकी मेहनत और प्रतिभा को दिया जाएगा? कब ऐसा होगा जब कोई महिला भी किसी पुरुष को “प्रपोज़” करे तो उसे स्वाभाविक माना जाएगा और चरित्रहीनता का लेबल नहीं लगाया जाएगा? कब ऐसा होगा कि दिन हो या रात, महिलाओं को अपनी सुरक्षा की चिंता नहीं करनी पड़ेगी? कब ऐसा होगा कि “मिलन” की प्राकृतिक नैसर्गिक क्रिया को “लेने” या “देने” के असभ्य जुमलों से परिभाषित नहीं किया जाएगा? कब ऐसा होगा कि हम अपने पुत्र को यह सिखाना आरंभ करेंगे कि यदि वह ऐसी पत्नी चाहता है जिसे किसी परपुरुष ने रौंदा न हो तो आवश्यक है कि वह स्वयं महिलाओं को सम्मान देना शुरू करे? हां, जब ऐसा होगा तो हमें किसी महिला दिवस का मोहताज नहीं रहना होगा।

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प्रकृति ने महिलाओं को बहुत सी खूबियां दी हैं तो उनके साथ बहुत सी सीमाएं भी हैं। आज भी हमारे समाज में मासिक स्राव एक हौवा है। महिलाओं को यह प्रकृति का वरदान है जो उन्हें “जननी” बनने के काबिल बनाता है। यह वह कारण है जिसके कारण उनकी पूजा होनी चाहिए लेकिन पुरुष समाज ने इसे कलंकित कर दिया। मासिक स्राव कोई दुर्घटना नहीं है, यह कोई कमी नहीं है, यह प्रकृति की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जो हर महिला को उसकी सार्थकता का अहसास देती है, लेकिन पुरुष समाज की अज्ञानता के कारण महिलाएं शर्म में घुटती रह जाती हैं। महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं तथा मन:स्थितियों (फेमिनाइन नीड्स एंड मूड्स) के बारे में पुरुष लगभग सारी उम्र पूर्णत: अनजान रहते हैं। सार्वजनिक स्थानों पर टायलेट की समस्या हो, या माहवारी और गर्भावस्था के दौरान महिलाओं की देखभाल का मुद्दा हो, पुरुष इससे अनजान ही रहते हैं। जिन घरों में मां नहीं है, वहां बहनें या पुत्रियां अपने भाइयों और पिता को अपनी समस्या बता ही नहीं पातीं और अनावश्यक बीमारियों का शिकार बन जाती हैं। पिता, भाई एवं पति के रूप में पुरुष, महिलाओं की आवश्यकताओं को समझ ही नहीं पाते। इसमें उनका दोष नहीं है क्योंकि भारतीय समाज में पुरुषों को स्त्रैण आवश्यकताओं के बारे में शिक्षित ही नहीं किया जाता। सेक्स एजुकेशन अभी भारतीय समाज और शिक्षा तंत्र का हिस्सा नहीं बन पाया है, यही कारण है कि इस बारे में बात भी नहीं की जाती।

स्वच्छ भारत अभियान के कारण खुले में शौच और इससे जुड़ी स्वच्छता का पहलू पहली बार मुद्दा बना अन्यथा सन् 2008 को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अंतरराष्ट्रीय स्वच्छता दिवस घोषित होने के बावजूद आया और चला गया। वंचित वर्गों के लिए टायलेट की सुविधा और सस्ते सैनिटरी पैड की उपलब्धता उन ग्रामीण महिलाओं के लिए बड़ी राहत की बात है जिन्हें अपनी प्राकृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए या तो सुबह-सवेरे या फिर सांझ गए घर से निकलना पड़ता था या गंदे लिथड़ों से लिपट कर बीमारियों का शिकार हो जाना पड़ता था।

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“मी-टू” आंदोलन आज शायद कमजोर दिखाई देता है, पर जिन बहादुर महिलाओं ने आगे बढक़र आवाज़ उठायी और शोषक पुरुषों को बेनकाब करना शुरू किया उसका एक लाभ तो अवश्य होगा। पुराने मामलों में न्याय हो न हो, उन पर कार्यवाही हो न हो, उन शोषक पुरुषों को सज़ा मिले न मिले, सारे समाज को एक बात तो समझ आ ही गई है कि अब किसी महिला का शोषण अनसुना और अनदेखा नहीं रह जाएगा। महिलाएं अब शर्म से घुटने के बजाए उसी वक्त आवाज़ उठायेंगी और समाज का एक बड़ा वर्ग उनकी आवाज़ में अपनी आवाज़ मिलाएगा। आततायी पुरुष वर्ग को यह समझ लेना चाहिए कि “मी-टू” आंदोलन कोई सोडावाटरी उबाल नहीं था कि बोतल खुली तो गैस का उबाल सारे पानी को बाहर ले आया, और फिर बोतल खाली हो गई। यह एक शुरुआत है, और अच्छी शुरुआत है और इस आंदोलन ने महिलाओं को जो मजबूती दी है, वह समय के साथ और बढ़ेगी।

शोषण का शिकार होने वाली महिलाओं की एक और किस्म भी है जिसके पुनरुत्थान के लिए “राष्ट्रीय एकल नारी अधिकार मंच” नामक महिलाओं का एक संगठन कार्यरत है। इस संगठन की सदस्या महिलाओं में विधवाएं, परित्यक्ताएं, तलाकशुदा महिलाएं व ऐसी अविवाहित महिलाएं शामिल हैं जो अपने परिवार और समाज से उपेक्षापूर्ण व्यवहार का दंश झेल रही हैं। इनमें से अधिकांश ग्रामीण पृष्ठभूमि की साधनहीन महिलाएं हैं जिनके पास अपनी कठिनाइयां बताने का कोई उपाय नहीं था। यह संगठन ऐसी महिलाओं के अधिकारों की वकालत ही नहीं करता बल्कि उन्हें अधिकारों के प्रति शिक्षित भी करता है। इससे भी बड़ी बात, यह सिर्फ ऐसी वंचिता महिलाओं के अधिकारों की वकालत करने के साथ-साथ उनके ससुराल पक्ष के परिवारों को काउंसलिंग के माध्यम से उनके बीच की गलतफहमियां दूर करके परिवारों को जोडऩे का प्रयत्न भी करता है। यानी, “राष्ट्रीय एकल नारी अधिकार मंच” अधिकारों की वकालत करते हुए सिर्फ झगड़ा बढ़ाने का ही काम नहीं करता, बल्कि झगड़ा निपटाने का रचनात्मक प्रयत्न भी करता है।

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अपने ममतामयी दृष्टिकोण के लिए जानी जाने वाली महिलाएं विपरीत स्थितियों में खुद कितनी उपेक्षा का शिकार होती हैं, इसकी कहानी सचमुच अजीब है। पुरुष प्रधान समाज में अकेली महिलाओं की स्थिति अक्सर शोचनीय होती है और उन पर कई और नए बंधन लाद दिये जाते हैं। विधवा महिलाएं ससुराल में शेष सदस्यों के अधीन हो जाती हैं, परित्यक्ताएं और तलाकशुदा महिलाएं तो कई बार अपने मायके में भी दूसरे दर्जे की नागरिक बनकर रह जाती हैं। घर में सारा दिन काम करते रहने पर भी उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता, स्वतंत्रता नहीं मिलती और अपेक्षित सम्मान नहीं मिलता। विधवाओं की कठिनाइयों के बारे में तो फिर गाहे-बगाहे बात होती रहती है लेकिन परित्यक्ताओं, तलाक शुदा एकल महिलाओं, किसी भी विवशतावश अविवाहित रह गई महिलओं की समस्याओं के बारे में हम शायद ज्य़ादा जागरूक नहीं हैं।

एकल महिलाओं को हिंसा, शोषण, उपेक्षा, तिरस्कार, अवैतनिक कामकाज के अलावा यौन शोषण की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। गांवों में उन्हें सहारा देने वाला कोई नहीं होता, समाज की रूढि़वादिता और संस्कार उन्हें विरोध करने से रोकते हैं और वे असहाय पिसती रह जाती हैं। देश में ऐसी महिलाओं की संख्या भी करोड़ों में है।

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यही नहीं, जिन परिवारों में मर्द लोग कामकाज के सिलसिले में शहर से बाहर रहने को विवश हैं वहां उनकी पत्नियां घर में अकेली पड़ जाती हैं और कई तरह की समस्याएं झेलती हैं लेकिन ज़ुबान नहीं खोल पातीं। घर से बाहर रह रहा मर्द अगर कठिनाइयां झेल कर पैसे कमाता है तो घर में अकेली पड़ गई उसकी पत्नी भी कई तरह से अपमान और उपेक्षा का शिकार हो रही हो सकती है। महिलाओं की शारीरिक बनावट के कारण उनकी समस्याएं अलग हैं। यही नहीं, उनकी भावनात्मक सोच भी पुरुषों से अलग होती है और अक्सर पुरुष उसे नहीं समझ पाते। इसके कारण भी कई बार महिलाओं को कई तरह की कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं। इससे भी ज्य़ादा बड़ी समस्या तब आती है जब रोज़गार के सिलसिले में मर्द शहर से बाहर जाता है और वहीं पर दूसरा विवाह कर लेता है या विवाहेतर संबंध बना लेता है। ऐसे बहुत से पुरुष अपनी पहली पत्नी को अक्सर पूरी तरह से बिसरा देते हैं या फिर दोनों महिलाओं से झूठ बोलते रह सकते हैं।

हिमाचल प्रदेश निवासी “राष्ट्रीय एकल नारी अधिकार मंच” की सदस्या निर्मल चंदेल इस पहाड़ी राज्य की महिलाओं की इस व्यथा का बखान करते हुए कहती हैं कि हिमाचल प्रदेश में रोज़गार की बहुलता न होने के कारण मर्दों का राज्य से बाहर प्रवास जितना आम है, नये शहर में बस कर आधुनिका महिलाओं अथवा महिला सहकर्मियों से दूसरी शादी भी कम आम नहीं है। हिमाचल प्रदेश जैसे कम आबादी वाले छोटे से राज्य से ही “राष्ट्रीय एकल नारी अधिकार मंच” की सदस्याओं की संख्या हज़ारों में है। इसीसे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कितनी बड़ी संख्या में महिलाएं शोषण और उपेक्षा का शिकार हो रही हैं।

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महिलाओं की एक अन्य समस्या को भी पुरुष अक्सर नहीं समझ पाते और अक्सर उसका परिणाम यह होता है कि पूरा परिवार बिखर जाता है। करियर के जाल में फंसा पुरुष वर्ग पत्नी और परिवार की उपेक्षा की गंभीरता को समझ ही नहीं पाता, कई बार तो तब तक जब परिवार टूट ही न जाए या टूटने के कगार पर ही न पहुंच जाए। तब भी पुरुष लोग यह नहीं समझ पाते कि वे कहां गलत थे। वे तो तब भी यही मान रहे होते हैं कि वे जो कुछ भी कर रहे थे वह परिवार की भलाई, खुशी और समृद्धि के ही लिए था। यहां पतियों और पत्नियों का नज़रिया एकदम अलग-अलग नज़र आता है। पत्नियां पैसा कम और पति का साथ ज्य़ादा चाहती हैं और पति यह मानते रह जाते हैं कि यदि उनके पास धन होगा तो वे पत्नी के लिए सारे सुख खरीद सकेंगे। बिना यह समझे कि उनकी पत्नी की भावनात्मक आवश्यकताएं भी हैं और उनकी पूर्ति के लिए उन्हें पति के पैसे की नहीं, बल्कि पति के संसर्ग और भावनात्मक सहयोग की आवश्यकता है।

हमारा देश तेजी से विकास कर रहा है, हमारे जीवन स्तर में सुधार हो रहा है लेकिन सोच बदलने में समय लग रहा है, खासकर ग्रामीण इलाकों में अभी भी रुढि़वादिता का बोलबाला है। अब समय आ गया है कि हम पुरुष समाज को महिलाओं की आवश्यकताओं के बारे में शिक्षित करें और महिलाओं के प्रति ज्य़ादा सौहार्दपूर्ण रवैया अपनाएं ताकि समाज के दोनों अंगों का समान विकास संभव हो सके और समाज में संतुलन बना रहे।

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लेखक पीके खुराना वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और राजनीतिक रणनीतिकार हैं।

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