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द एवरेस्ट गर्ल : एक लड़की की जिद और जुनून का जीवंत चित्रण है बृजेश राजपूत की ये किताब!

प्रवीण दुबे-

मारे मित्र Brajesh Rajput ठाकुर साहब की नई किताब आई है “द एवरेस्ट गर्ल.” एमपी के सीहोर जिले की विशुद्ध ग्रामीण इलाके की लड़की मेघा परमार के एवरेस्ट फ़तेह की कहानी. इसे उनकी आत्मकथा तो नहीं कह सकते लेकिन उनके संघर्षों की. जीवटता की…ज़िद की…जूनून की कहानी को बहुत अच्छे से शब्दों में पिरोया है ठाकुर साहब ने.

परकाया प्रवेश करके लिखना बहुत आसान नहीं होता. क्यूंकि जब आप किसी महिला के बारे में आत्मकथ्य शैली में लिख रहे होते हैं, तो आपकी संवेदनाओं, भावनाओं, जज्बातों, विचारों का क्रम यानी आपका पूरा मानसिक स्तर उसी महिला/ लड़की जैसा होना चाहिए. इसमें कोई दो राय नहीं है कि ठाकुर साहब ने इस विधा में बहुत अच्छा न्याय किया है.

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लड़कियों के साथ कितनी तरह की दैनंदिन मुश्किलें सिर्फ इस वजह से आती हैं, क्यूंकि वे लड़की हैं, इसको समझने के लिए भी ये किताब पर्याप्त है.

मेघा कैसे पहली बार कॉलेज के टूर में जबलपुर जाती हैं, फिर गुवाहाटी. फिर कानपुर की सड़कों में कैसे लड़का बनके घूमना क्यूंकि लड़कियों वाली दिक्कतें उनके साथ न हों, इसका बड़ा जीवंत चित्रण ठाकुर साहब ने आत्मकथ्य शैली में किया है. मेघा परमार के बारे में मैंने सिर्फ पढ़ा-सुना है, रूबरु कभी नहीं मिला. एक बार जब मैं नेटवर्क 18 में था तो हमारे किसी इवेंट में आई ज़रूर थीं लेकिन इवेंट के वक्त मेरी हालत शादी वाले घर के लड़की के पिता की तरह होती थी व्यस्तता के मान से, लिहाज़ा कोई संवाद उनसे नहीं हुआ.

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मुझे भी इस किताब से ही पता चला कि उन्होंने एवरेस्ट की चढ़ाई का यूँ ही अचानक सोचा. कोई उनका सपना बचपन में नहीं था या उन्होंने कोई प्रयास इसके लिए पहले से नहीं सोच रखे थे. उन्होंने ढेरों विकल्पों में से कोई ऐसा रोमांचक विकल्प अचानक चुन लिया जो मौजूदा विकल्पों से उन्हें आगे ले जा सकता था. बहरहाल अच्छी किताब लिखी है ठाकुर साहब ने. मेघा की ज़िद के लिए जावेद अख्तर साहब का एक शेर बड़ा मौंजू है…

“कोई मंजिल बहुत दूर ही होती है मगर, रास्ते वापसी के लम्बे नहीं होते हैं”

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वो चाहती तो आसानी से लौट सकती थीं लेकिन उन्होंने ज़िन्दगी के सफ़र में चलना जारी रखा और मुक़ाम पाया. इस किताब पर फिल्म बन सकती है. यदि मैं इस फिल्म को बनाता तो यकीनन मेघा के किरदार के लिए कंगना रनौत से बेहतर अभिनेत्री कोई दूसरी नहीं होती. यद्यपि मेरे पास न पैसा है और ना सामर्थ्य लेकिन सोचने में क्या नुकसान होता है. अच्छी किताब लिखी है ठाकुर साहब आपने.

….किताब की भी बधाई और आपकी नई भूमिका के लिए भी बहुत बहुत बधाई!

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