
सुशोभित-
जब भी किसी लड़की के साथ हिंसा की कोई घटना घटती है- जैसा कि हाल ही में दिल्ली में हुआ- तो माता-पिता के द्वारा अपनी लड़कियों पर अंकुश लगाए जाने के पैरोकार मुखर हो जाते हैं। पर आज किसी को घर में बांधकर रखना इतना सरल नहीं है!
लड़की है तो पढ़ाई करने घर से बाहर निकलेगी। जॉब करने जाएगी। उसका सामाजिक जीवन भी होगा, दोस्त होंगे और सर्किल होगा। और भले आपको यह सुनना अच्छा न लगे पर उसकी रोमांटिक लाइफ भी होगी, एरोटिक लाइफ भी होगी, वो किसी के साथ रिलेशनशिप में जायेगी। इसमें आप कुछ नहीं कर सकते, यह प्रकृति की व्यवस्था है और वह प्रकृति के नियमों के अधीन है।
अभी जो विचार प्रचलित है, उसके अनुसार आदर्श स्थिति यह मानी जाती है कि लड़की विवाह से पूर्व किसी के साथ संबंध में न जाए। विवाह अमूमन २५-२६ की उम्र में होगा। यानी उससे लगभग एक दशक के संयम की मांग की जा रही है। वह भी अगर वह कर ले तो यह तभी सम्भव है जब यह निश्चित हो कि विवाह आदर्श होगा।
लड़की से उम्मीद की जा रही है कि वह जिससे प्रेम करे उसी से विवाह भी करे या जिससे विवाह करे उसी से उसको प्रेम हो। पर प्रेम जीवन में एक ही बार घटेगा, ये आवश्यक नहीं है। कोई प्रेम का पात्र है या नहीं, यह तो उसके निकट जाकर ही पता चलेगा। तर्क तो यह है कि अनेक विकल्पों को आजमाने के बाद ही निर्णय लिया जाए कि कौन साथी उपयुक्त है। यह घर बैठे तो होगा नहीं।
एक पुरुष, जो लड़की को भी पसंद हो और उसके परिवार वालों को भी, जो अच्छे घर का भी हो, अच्छा कमाता हो, जो अच्छा प्रेमी, पति और पिता साबित हो, और जो लड़की की ही जाति, वर्ग का हो– यह तो बहुत सारी शर्तें हो गईं। सभी का पूरा होना सम्भव नहीं। किसी न किसी बिंदु पर समझौता करना होगा, और वो बिंदु कुंठा बन जाएगा।
समस्या यह है कि समाज अभी इतना सभ्य नहीं कि जब एक युवा लड़की बाहर निकलेगी और पुरुषों के सम्पर्क में आएगी तो वो सभी भले, सच्चे, ईमानदार हों। धोखे और छल की पूरी सम्भावना है, अलबत्ता इसका यह अर्थ नहीं कि हर प्रेमी फरेबी साबित होगा। युवावस्था में विवेक इतना परिपक्व होता नहीं कि उचित साथी का चयन कर सकें। वास्तव में कच्ची उम्र में साथी के चयन की जल्दी भी नहीं होती है! विवाह या दीर्घकालीन संबंध की योजना तब नहीं बनाई जाती है, उसमें तो स्वाभाविक ही लड़के-लड़कियां आकर्षण से खिंचकर एक-दूसरे के निकट आ जाते हैं। आप इन्हें रोक नहीं सकेंगे क्योंकि आपके माता-पिता भी आपको रोक नहीं सके थे!
बच्चे जब किशोर होंगे, युवा होंगे तो वो प्रेम संबंधों में जाएंगे, यह अपरिहार्य है। अधिक से अधिक आप इतना ही कर सकते हैं कि उनकी निजता को भंग किए बिना उनसे संवाद करें और उनसे सावधान रहने का अनुरोध करें। पर अगर प्रेम सावधानी और सूझ-बूझ से ही किया जा सकता तो फिर समस्या क्या थी?
एक लड़की को मैं जानता हूं। उसने मुझसे कहा कि उसे किसी से प्रेम हो गया है और परिवार की सहमति से वह उससे विवाह करने जा रही है। मैंने पूछा कि यह कैसे हुआ। उसने बताया कि परिवार ने कहा था जाति से बाहर विवाह की सोचना भी मत, तो मैंने जाति में ही प्रेमी की खोज की। एक विवाह समारोह में वह मुझे मिला और पसंद आया। मैंने उसी से प्रेम करने का निश्चय किया। वह मेरे परिजनों को भी अच्छा लगा है। अब हम विवाह कर रहे हैं।
ऐसी प्रतिभा हर किसी में नहीं होती कि जाति के भीतर ही प्रेमी की सफल तलाश कर ले! अकसर तो प्रेम जाति, उम्र, ओहदा, प्रतिष्ठा देखकर नहीं होता। प्रेम और यौनेच्छा का प्रबंधन एक बड़ी सामाजिक समस्या सदियों से रही है और अभी तक किसी को समाधान मिला नहीं है। विवाह एक मेकशिफ्ट उपाय भर ही है जो उपयोगी है।
जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने कुछ सोचकर ही कहा था, “जो तुम्हें पसंद है उसे पाओ। नहीं तो तुम उसको पसंद करने को मजबूर हो जाओगे जो तुम्हें मिला है!”
स्त्री को पुरुष के पैर क्यूं छूने चाहिए?
बहुत बुद्धि का उपयोग करने के बावजूद मैं यह समझ नहीं पा रहा हूं कि एक स्त्री को एक पुरुष के पैर क्यूं छूने चाहिए?
विशेषकर वह स्त्री, जो वय में छोटी नहीं, समवयसी है। बराबर की है। पत्नी है यानी जीवन-साथी है। जिससे संबंध का विन्यास प्रेम, मैत्री, सामंजस्य और चाहना का है। निश्चय ही आदर का भी होगा, पर आदर तो परस्पर भी हो सकता है! तब तो पुरुष भी सहचरी के पैर छू सकता है। और अगर नहीं छूता है तो क्या इसका यह अर्थ है कि वह उसका आदर नहीं करता? या उससे किन्हीं अर्थों में श्रेष्ठ है!
क्रिकेटर ने विजयी चौका लगाया। पत्नी, जो कि राजनीतिज्ञ हैं, गौरव से प्रफुल्लित मैदान पर दौड़ी चली आईं। स्वाभाविक है कि जब पूरा संसार विजय के क्षण में आपके साथी का नाम पुकार रहा हो तब कीर्ति के उस शिखर पर आप गर्व से भर उठें। दोनों ने आलिंगन किया, जो कि प्रेम की ऊष्मावान अभिव्यक्ति थी। वह क्षण तुरंत सर्वप्रिय हो उठा। मैं समझा प्रेम की अभिव्यक्ति ने जनसाधारण को अभिभूत कर दिया है।
पर मुझसे भूल हुई!
प्रेम ने नहीं, मेरे प्रिय देशवासियों को इस बात ने उत्फुल्ल किया कि स्त्री ने सिर को ढांक रखा था और उसने पति के पैर छुए!
तिस पर मेरा प्रश्न यह है कि स्त्री को सिर को क्यों ढांकना चाहिए और अपने जीवन-साथी के पैर क्यूं छूने चाहिए?
यह प्रश्न पूछने के लिए आपका मार्क्सवादी, नारीवादी, उग्रवादी, नक्सलवादी आदि होना आवश्यक नहीं है, यह एक साधारण-सी जिज्ञासा है कि दो वयस्क व्यक्ति, जो एक-दूसरे के साथ रिलेशनशिप में हैं, उनमें से एक को दूसरे के पैर क्यूं छूने चाहिए? अगर यह आदर है तो एकांगी क्यों है? और अगर यह व्यक्ति में देवत्व की प्रतिष्ठा है तो स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध लौकिक और सांसारिक धरातल पर होता है या पारलौकिक और आध्यात्मिक धरातल पर?
सच तो यह है कि जिससे आप प्रेम करते हैं, वह आपके पैर छू ले तो आप उलटे शर्मिंदा हो जाएंगे कि अरे यह क्या करती हो, ऐसा नहीं करो!
आप यह नहीं कह सकते कि यह हमारी संस्कृति है, आपको यह भी पूछना होगा कि यह संस्कृति क्यों है? क्योंकि यही तो झगड़े की जड़ है कि हम समझते हैं जो संस्कृति के रूप में प्रचारित है, वह अकाट्य और अपरिहार्य है! इसी का तो हवाला देकर हर धर्म में पाप, अनीति और शोषण की शृंखला चलती है।
सार्वजनिक स्थान पर स्त्री को पल्लू क्यों काढ़ना चाहिए, सिर क्यों ढांकना चाहिए? कोई तो तार्किक कारण होगा? सिवाय इसके कि यह हमारी परम्परा है। पर यह परम्परा क्यों है? क्या इस परम्परा से हिजाब की बदबू नहीं आती?
यह एक शोचनीय दशा है, जिसमें हम बुद्धि का प्रयोग और उचित-अनुचित का चिंतन करना बंद कर देते हैं और हर प्रश्न का एक ही उत्तर देते हैं कि यह हमारा धर्म है, यह हमारी संस्कृति है, यह हमारी परम्परा है! फिर मित्र, आपको मस्तिष्क किसलिए दिया गया था? संसार के दूसरे तमाम मामलों में तो मनुष्य अपनी बुद्धि का अतिशय उपयोग करता है, फिर धर्म, संस्कृति, परम्परा सुनते ही ठिठक क्यों जाता है?
दो बातें याद रखें :
१. सार्वजनिक रूप से कैमरे के सामने किया जाने वाला हर कृत्य एक संदेश देने के लिए होता है। वह एकांत में घटित होने वाली किसी बात की तरह स्वाभाविक, निष्प्रयोज्य और प्रत्युत्पन्न नहीं होता।
२. क्रिकेटर की पत्नी पॉलिटिशियन है और पॉलिटिशियन का एक एजेंडा होता है। वो जिस पार्टी की पॉलिटिशियन हैं, उसका एजेंडा क्या है?
Comments on “प्रेम और यौनेच्छा का प्रबंधन एक बड़ी सामाजिक समस्या सदियों से रही है!”
सही कहा आपने कि औरत को सर क्यों ढंकना चाहिए, लेकिन यहां तो बुर्का के पैरोकार भी बहुत बड़ी संख्या में हैं।
बहुत संतुलित लिखने की कोशिश। बस, मौलिक बात की जानकारी लेखक को होनी चाहिए,ऐसा विनम्र अनुरोध है।
‘हर धर्म ‘?
प्रिय सुशोभित, मानव धर्म सिर्फ एक है। पंथ/संप्रदाय/मज़हब/रिलीजन अनेक हैं और जितने अभी हैं,इतने ही और हो सकते हैं। धर्म वह है जो मानव को पशु और पशुता से अलग करता है। पंथ/संप्रदाय/मज़हब/रिलीजन मानव को मानव से अलग करता है। हाल में एक पीएचडी धारी जैन दंपति मुस्लिम बन गया। माता पिता को इसका पता तब चला जब इस्लाम दीक्षित भाई ने अपनी बहनों से रक्षा बंधन बंधवाने से मना कर दिया।
आप तो इसमें भी उच्चादर्श ढूंढोगें लेकिन उस युवक की बहनों और माता पिता की पीड़ा का अनुमान लगाना आप जैसे बुद्धिजीवियों की सामर्थ्य से बाहर है।
फर्जी और फट्टू लेखक है यह… बुर्के, हिजाब, हलाला और तीन तलाक पर लिखने में फटती है इन लोगों की। हे मोमिनों नंगई का समर्थन करने से पहले अपने घर की स्त्रियों का भी सोच लिया करो…