पत्रकारों और पत्रकारिता के बारे में
अखबार वाले वो भी होते हैं, जो अखबार निकालते हैं और वो भी जो अखबार में नौकरी करते हैं। मैंने दैनिक जागरण, अमर उजाला, दैनिक भास्कर और कुछ दीगर अखबारों में नौकरी की है। वहां पाये अनुभवों के आधार पर यह आलेख लिख रहा हूं। सच बुरा लगता है पर सच में दम होता है। अखबार का मालिक काम देता है और काम लेता है। दाम जितना चाहता है उतना ही देता है। खबरनवीस नौकरी पा जाने का अहसान मानते हैं। खटते रहते हैं। रात-दिन डटे रहते हैं। खबरनवीस समाज में एक रुतबा पा जाते हैं। यही उनके लिए बहुत होता है। वे अपनी इतनी कीमती नौकरी बचाये रखने के लिए कुछ भी करने को आतुर रहते हैं। यही खबर का धंधा करने वालों और खबरनवीसों की दुनिया होती है।
अखबार अब अखबार मालिकों के कमाई के साधन और उनमें काम करने वालों के जीवनयापन के साधन रह गये हैं। अखबारों को अब समाज से कोई लेना-देना नहीं है। कुछ अखबार सामाजिक सरोकार का ढोंग जरूर करते हैं। लेकिन यह ढोंग जगजाहिर हो जाता है। अधिकतर संपादक अखबार मालिकों के लाडले होते हैं। मोटा वेतन घर ले जाते हैं। मालिक और संपादक जब भी मिलते हैं तो अखबार की कमाई पर डिसकस करते हैं। खबरों की बात अगर होती है तो कमाई के दायरे में ही।
एमपी के एक नामी अखबार में नौकरी मांगने गया था। अखबार के मालिक ने ऐसा कठिन सवाल किया जिसका जवाब वह खुद ही नहीं जानता था। पूछा अखबार का एडिटोरियल पेज कितने परसेंट लोग पढते हैं। मैंने कहा- बहुत कम लोग। वह बोला- केवल दो परसेंट। असल में एडिटोरियल पेज विचार का पेज होता है। उसे बांचने की तकलीफ उठाना कोई नहीं चाहता। खबरनवीस भी कमजोर होता है। कौन सी होनी-अनहोनी अथवा घटना समाचार है, यह भी खबारनवीसों को नहीं पता होता। वे संपादक या अपने इंचार्ज के कहने पर किसी बात को समाचार का रूप दे देते हैं। समाचार अगर पाठकों को रोमांचित कर देता है तो अखबार की बिक्री और फिर उसका सरकुलेसन और फिर उसका विज्ञापन आसमान छूने लगता है। यही है अखबार वालों की दुनिया।
मैं मानता हूं कि अखबारनवीस नहीं, खबरें बिकाऊ होती हैं। बदनाम अखबारनवीस होता है। अखबार की शान बनी रहती है। अखबार बिकता रहता है। मामला सरकुलेसन का होता है। अखबार मालिक जो चाहता है, खबारनवीस अनजाने में या जानकर वही करता रहता है। उसको घर चलाने के लिए पैसों की जरूरत होती है। वह करना चाहें तो भी कुछ नहीं कर सकता। अगर करने लगें तो अमुक-तमुक अखबार में टिकने नहीं दिया जाएगा। खबरनवीस सब जानता है, सब समझता है। जैसे मालिक अपना हित वैसे ही नौकरी करने वाला अपना हित। जिन-जिन अखबारों में मैंने काम किया, वहां मैंने कुछ इसी तरह का अनुभव पाया।
कोई आवश्यक नहीं कि किसी न किसी मीडिया हाउस में समाचार और विचार से जुड़ी नौकरी या काम करने वाला व्यक्ति ही पत्रकार हो। ऐसे हजारों लोग हैं, जिनकी लेखनी उन्हें मीडियाकर्मी पत्रकारों से बेहतर पत्रकार साबित करती है। लाखों लोग ऐसे भी हैं, जिनकी सामाजिक दृष्टि पत्रकारों से कहीं अधिक पैनी है। किसी अखबार या टीवी चैनल से जुड़ा होना पत्रकार होने की अनिवार्य शर्त नहीं है। फिर भी यह धारणा रूढ़ हो चुकी है कि मीडिया कर्मचारी ही पत्रकार होता है। इस रूढ़ धारणा को स्वीकार करना अब हमारी मजबूरी भी है। देश-दुनिया को जानने-समझने और सामाजिक सरोकार रखने वाला कोई भी एक पत्रकार की भूमिका निभाने की योग्यता और क्षमता रख सकता है। इसके उलट, मैं अनेक ऐसे लोगों को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं जो किन्हीं न किन्हीं स्थापित मीडिया हाउस से जुड़े होने के बावजूद कहीं से भी पत्रकार कहलाने के योग्य नहीं है। दरअस्ल, पत्रकारिता एक तरह का प्रोडक्ट है। और समाज का कोई भी समझदार और जागरूक नागरिक यह प्रोडक्ट पेश कर सकता है।
जब से कैमरे-युक्त मोबाइल आ गये हैं, तब से किसी के भी पत्रकार की भूमिका में आ जाने की सहूलियत पैदा हो गयी है। आये दिन ऐसा होता रहता है कि किसी घटना या अनहोनी की तस्वीर मोबाइल कैमरे में कैद कर कोई व्यक्ति किसी अखबार या टीवी चैनल को मुहैया करा देता है। भले वह पेशेवर न हो पर उसका यह कर्म पत्रकारिता का ही अंग है। हालांकि किसी व्यक्ति के उत्सुकतावश किसी दुर्घटना की तस्वीरें खींच लेने भर से उसे पत्रकार नहीं कहा जा सकता। इसे पत्रकारिता से मिलता-जुलता शौक कहा जा सकता है। वास्तव में, एक पत्रकार से अपेक्षा की जाती है कि वह आम जनता की भलाई को सर्वोपरि रखकर किसी घटना के तथ्य अथवा जानकारी एकत्र करेगा और फिर उसे खबर का रूप देगा। पत्रकार अपने अनुभव से या फिर अपने वरिष्ठ साथियों सिखाये-बताये से धीरे-धीरे अपने इस कर्तव्य के प्रति प्रशिक्षित होते जाते हैं।
प्रिंट मीडिया के पत्रकारों की हालत पर गौर कीजिए। एक पत्रकार से उम्मीद यह भी की जाती है कि वह समय निकाल कर सामाजिक-राजनीतिक रूप से जागरूक रहने के लिए खुद को देश-दुनिया की हलचल से वाकिफ रखे और समय निकाल कर विभिन्न विषयों एवं दूसरे अखबार-पत्रिकाओं का अध्ययन भी करता रहे। लेकिन पत्रकार की हालत आज यह हो गयी है कि वह अपने दायित्व एवं काम से इतना बोझिल रहता है कि इन सब बातों के लिए समय ही नहीं निकाल पाता। वह अपनी प्रामिकताएं खुद तय करने की परिस्थिति में नहीं होता। आधुनिक तकनीक ने, विशेष रूप से कम्प्यूटर के आगमन से पत्रकारों की एक कर्मचारी के तौर पर जिम्मेदारियां बढ़ गयी हैं। कम्प्यूटर आने के बाद उन्हें कई भूमिकाएं अकेले निभानी पड़ रही हैं।
रिपोर्टर के रूप में खबर एकत्र करने के बाद खबर को टाइप करना, उसकी प्रूफरीडिंग करना, डेस्ककर्मी के बतौर खबर को सुधारना और हेडिंग लगाना तथा अंत में पेज बनाना। हालत यह हो गयी है कि आज पत्रकार को 12-14 घंटे अपने पेशे के दायित्वों को पूरा करने में ही खर्च करने पड़ते हैं। फिर, उसकी निजी लाइफ भी है। उसके लिए भी समय निकालना पड़ता है। ज्यादातर पत्रकार तो ऐसे हैं जो अपने ही अखबार के पन्ने पलटने का टाइम नहीं निकाल पाते। इन हालात में उनसे एक आदर्श पत्रकार होने की उम्मीद करना बेमानी है। इतने कुछ के बाद उन्हें वेतन के तौर पर जो पैसा मिलता है, उससे घर-परिवार का खर्च चलाना मुश्किल बना रहता है।
किसी मीडिया घराने में दम नहीं है कि वह पत्रकार पैदा करे। महान पत्रकार प्रभाष जोशी कहा करते थे— पत्रकार अलग प्रजाति है। हर कोई चाहकर पत्रकार नहीं हो सकता। जोशी जी का एक सपना था, इस देश में एक पत्रकारिता यूनिवर्सिटी हो। अभी एक दिन अखबार पढ़ रहा था। शायद नीतीश कुमार बिहार में ऐसा कुछ करना चाहते हैं। अभी बीजे और एमजे हिंदी विभाग के टीचर कराते हैं। दो-चार पत्रकारिता संस्थानों को छोड़ दें तो बकिया जगहों से बीजे और एमजे करने वालों को मीडिया में नौकरी करने लायक नहीं समझा जाता। अगर नीतीश ऐसा कुछ करते हैं तो यह पत्रकारों की आने वाली पीढ़ी के लिए एक बहुत बड़ा काम होगा। बिहार को इस मामले में देश को रास्ता दिखाना चाहिए।
लेखक विनय श्रीकर वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
rajkumar sahu, janjgir chhattisgarh
February 13, 2016 at 2:50 pm
chhattisgarh me patrakarita university hai, kai barson se sanchalit ho rahi hai.
manish rajan
March 14, 2017 at 4:55 am
Thank you sir ji for good news about journalism