पूरा मई माह जैसे तरह तरह के आजादी के आंदोलनों की याद दिलाने के लिए आता है। यही महीना मजदूर दिवस का, जब काम के घंटे घटाने के लिए मेहनतकशों को शहीद होना पड़ा था। सन 1857 में इसी महीने की 10 तारीख को देश में पहला सशस्त्र स्वातंत्र्य युद्ध हुआ था। सन् 1993 में यूनेस्को महासम्मेलन के 26वें सत्र में इसी माह की ‘3 मई’ को ‘अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस’ घोषित किया गया था और आज इसी माह की 30वीं तिथि को हिंदी पत्रकारिता दिवस के रूप में मनाया जाता है। आज 190वां पत्रकारिता दिवस है। 30 मई को पंडित युगुल किशोर शुक्ल ने सन् 1826 में पहले हिन्दी समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ का बंगाल से प्रकाशन आरम्भ किया था। पर्याप्त धन न होने के कारण उन्हें बाद में इस अखबार को बंद करना पड़ा था।
यह महीना हमे कई तरह से याद आता है। इसी महीने देश को अब्दुल हमीद कैसर जैसे प्रसिद्ध क्रांतिकारी, नोबेल पुरस्कार प्राप्त बांग्ला कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर, एन. एस. हार्डिकर, गोपबन्धु चौधरी, सआदत हसन मंटो, क्रांतिकारी सुखदेव, कवि सुमित्रानंदन पंत, शरद जोशी, राजा राममोहन राय, अन्नाराम सुदामा, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, बिपिन चन्द्रा, हेमन्त जोशी, करतार सिंह सराभा, दाग़ देहलवी, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, अहिल्याबाई होल्कर, अण्णा साहेब किर्लोस्कर जैसी विभूतियां मिली थीं। यह महीना इसलिए भी अत्यंत स्मरणीय है कि इसी महीने देश ने पत्रकार बनारसीदास चतुर्वेदी, साहित्यकार कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, कैफ़ी आज़मी, शमशेर बहादुर सिंह, आर. के. नारायण, जगदीशचन्द्र माथुर, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, विपिन चन्द्र पाल, श्रीपाद अमृत डांगे, कानू सान्याल, चन्द्रबली सिंह, मजरूह सुल्तानपुरी, श्रीकांत वर्मा, जवाहरलाल नेहरू, गोपाल प्रसाद व्यास, द्वारका प्रसाद मिश्र और 30 मई को सुप्रसिद्ध आलोचक रामविलास शर्मा को अपने बीच से खो दिया था।
पत्रकारिता आज जिस तरह जन मीडिया बनाम धन मीडिया के दुष्चक्र में फंसा दी गई है, उसे आज से बहुत पहले आचार्य शिवपूजन सहाय ने जान लिया था। उन्होंने ‘संपादक के अधिकार’ शीर्षक लेख में लिखा था- ‘हिंदी के पत्र-पत्रिका संचालकों में अधिकतर पूँजीपति हैं, और जो पूँजीपति नहीं हैं, वे भी पूँजीपति की मनोवृत्ति एवं प्रवृत्ति के शिकार हो ही जाते हैं। यही कारण है कि वे संपादकों का वास्तविक महत्व नहीं समझते, उनका यथोचित सम्मान नहीं करते, उनके अधिकारों की रक्षा पर ध्यान नहीं देते। कहने को तो देश को आजादी मिल गयी है, लेकिन पत्रकारिता और पूँजीवाद तथा बाज़ारवाद का बेमेल गंठबंधन आज भी इस आजाद आबोहवा में सिर्फ हिंदी की ही नहीं, बल्कि पूँजीवादी मनोवृत्ति सभी भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के गले की फाँस बनी हुई है। पूँजीपतियों के दबाव में संपादकों-संवाददाताओं के पास आजादी नहीं है। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कही जाने वाली पत्रकारिता और उससे जुड़े लोग मालिकों के दबाव में इस कदर हैं कि वे अपने कर्तव्य का निर्वहन सही तरीके से नहीं कर पा रहे हैं। यद्यपि देश के जागरण में, स्वतंत्रता संग्राम में, राष्ट्रीय आंदोलन की सफलता में और लोकमत को अनुकूल बनाने में हिंदी पत्रों ने सबसे अधिक परिश्रम किया है, तथापि अंग्रेज़ी के पत्रों का महत्व आज भी हिंदी के पत्रों से अधिक समझा जाता है। आज भी जनसाधारण पर हिंदी पत्रों की धाक है, पर हिंदी पत्रकारों की दशा आज भी सोचनीय है।’
क्या यह पत्रकारिता का प्रश्नकाल है? सिर्फ पत्रकारिता दिवस को कर्मकांड के रूप में न देखा जाए तो ‘मजीठिया समय’ में यह महीना आज कई ताजा सवालों से भारतीय पत्रकारों को रूबरू करा रहा है। लगता है कि आज का ये दिन, जिसे जन से छीन लिया है धन वालो ने। हर पत्रकार को ये प्रश्न परेशान करने लगा है कि मीडिया पूंजी बटोरने का धंधा है या समाज को दिशा देने का मिशन? क्या भारत के गरीबों और वंचितों को मीडिया ने हाशिये पर फेक दिया है? क्या हिंदी मीडिया के लिए साहित्य गैरजरूरी हो गया है? क्या ज्यादातर मीडिया घरानों को अब पत्रकार नहीं, एचआर हेड चला रहे हैं? हिंदी मीडिया क्या गांव-देहात के पत्रकारों का सबसे ज्यादा शोषण कर रहा है? क्या मीडिया में महिलाओं, दलितों और मुसलमानों की संख्या नगण्य है?
ये प्रश्न भी पत्रकारों का पीछा कर रहे हैं कि आज ज्यादातर मीडिया हाउसों में एक भी मान्यता-प्राप्त महिला पत्रकार क्यों नहीं हैं? क्या हिंदी मीडिया के लिए पाठक केवल ग्राहक भर रह गया है? क्या ज्यादातर हिंदी अखबार पत्रकारिता के मूल्यों को रौंद रहे हैं? क्या फूहड़ता परोस कर मीडिया आधी आबादी की अस्मिता से खेल रहा है? क्या पत्रकारिता सामाजिक परिवर्तन का सबसे कारगर माध्यम है? क्या आज पत्रकारिता अपने मार्ग से भटक गयी है? क्या पत्रकारिता की शक्तियों का मीडिया हाउस दुरूपयोग कर रहे हैं? क्या मीडिया भारतीय समाज के तीन स्तंभों पर हावी होना चाहता है? क्या मीडिया हाउस भी बेरोजगारी और अशिक्षा का लाभ उठा रहे हैं? क्या भ्रष्टाचार के ज्यादातर मामलों पर मीडिया हाउस चुप्पी साध लेते हैं? क्या मीडिया किसानों और मजदूरों पर अत्याचार की खबरों को छिपाता है? क्या मीडिया गांवों की समस्याओं को नकार दिया है?
आज तीस प्रश्नों की इस कड़ी में ये सवाल भी खौल रहे हैं कि क्या मीडिया ने आजादी के आंदोलन में पत्रकारिता की भूमिका को भुला दिया है? क्या हिंदी मीडिया में अब लेखकों, साहित्यकारों की संख्या नगण्य हो गयी है? क्या सभी बड़े अखबार अपने को सबसे ज्यादा लोकप्रिय बताकर झूठ बोलते हैं? क्या ज्यादातर मीडिया हाउस संचालक पूंजीपति हैं? जनता को जगाने के लिए मीडिया को क्या करना चाहिए? क्या हिंदी अखबारों में पत्रकारों से बारह से सोलह घंटे तक काम लिया जाता है? क्या मीडिया हाउस श्रम कानूनों का उल्लंघन कर रहे हैं? क्या पत्रकार समाज का प्रहरी नहीं, केवल वेतनभोगी होता है? क्या ज्यादातर पत्रकार ईमानदार और अपने पेशे से संतुष्ट नहीं हैं? क्या अब स्वतंत्र पत्रकारिता के दिन लद चुके हैं?क्या ये प्रश्न जरूरी हैं? इनके समाधान की दिशा में अब क्या होना चाहिए?
जयप्रकाश त्रिपाठी
sanjeev singh thakur
May 31, 2015 at 9:49 am
Bahut badiya vishleshan hai aaj ke haalaat mein media ka
purushottam asnora
May 31, 2015 at 5:51 pm
sare sawalou k uttar han hain, media par puanjipatiyou ka kabja hai our sampadak nam ka chuja unka noukar hai, jo apne malik k liye gaun kasbou sahit patrakarou ka shoshan karta hai, ungai aankh dikhata hai our aawashyak huwa to bahar ka rasta bhi dikhata hai.yesa wah patrakarita k liye nhi malik our apane ahan k liye karta hai. jis dhandhe mai munafa our kewal munafe ka soch ho wah patrakarita to nhi hai.