सुशोभित-
राहुल गांधी में एक तरह की ईमानदारी और सच्चाई दिखती है। अब वे राजनीति में हैं और राजनीति काजल की कोठरी है (बक़ौल राहुल गांधी, विष का प्याला है) तो उसमें सच्चाइयाँ और ईमानदारियाँ भी किन्हीं परिप्रेक्ष्यों में ही मौजूद होंगी और सर्वांग-सम्पूर्ण नहीं होंगी, उससे कमोबेश समझौते किए जाते रहेंगे। लेकिन राहुल आज कोई पंद्रह सालों से सार्वजनिक जीवन में हैं और इतना समय किसी आदमी की परख करने के लिए बहुत होता है। राहुल में जो भोलापन और भलापन है, उसे अनेक मित्र उनका बौड़म होना भी बतला सकते हैं। तिस पर मैं कहूँगा कि बौड़म होना कोई बुरी बात नहीं है, हाँ इससे आप एक अच्छे राजनेता नहीं बन सकते। लेकिन राजनीति जीवन का एक आयाम भर है, पूरा जीवन नहीं है। और राजनीति में विफल होने का मतलब जीवन में विफल होना नहीं है। इसका उलटा भी सही है। कोई राजनीति में बड़ा सफल होकर भी मनुष्य के रूप में विफल रह सकता है। रहता ही है। उदाहरणों की कमी नहीं।
राहुल का मामला ज़रा अजीब है। वे क्यूरियस केस हैं। भला कौन राजनेता सार्वजनिक रूप से सत्ता को ज़हर बताकर उसके प्रति अरुचि जतलाता है? किन्तु यह अन्यमनस्कता राहुल के व्यक्तित्व का केंद्रीय हिस्सा बन चुकी है। वे अनमने रहते हैं। क्या वे सच में ही राजनेता बनना चाहते थे या चाहते हैं? क्या कोई दूसरा कॅरियर उनके लिए बेहतर नहीं हो सकता था? यह प्रश्न असंख्य बार पूछा जा चुका है। किन्तु आप भी मानेंगे कि आपमें से बहुतों ने यह अपेक्षा की होगी कि इतनी हार, इतने उपहास और इतने अपमान के बाद अब तक राहुल गांधी को कहीं भाग जाना चाहिए था, पर वो डटे हैं। क्यों डटे हैं? या तो ज़िद्दी हैं या बौड़म हैं। कह लीजिए कि वज्रमूर्ख हैं, जड़ हैं, ढीठ हैं। किन्तु क्या बुरे आदमी भी हैं? मैं कहूँगा, उनकी विरोधी पार्टी वाले भी मन ही मन यह बात जानते हैं कि यह आदमी भला है और राजनीति में मिसफ़िट है। किन्तु ऐसा नहीं है कि राजनीति में भलमनसाहत हमेशा ही एक अयोग्यता साबित हो। जनता के मन का क्या भरोसा? जनता ने अगर चतुरसुजानों और धूर्तों और कुटिलों से ऊबकर मन बदलने का निर्णय कर लिया तो? आख़िर यही तो वह जनता थी, जिसने महात्मा गांधी को उनकी भलाई के लिए ही अपना नेता माना था। वह किसी दूसरे ग्रह से तो नहीं आई थी।
बीते दिनों राहुल ने एक बड़ी भली बात कही। नेशनल हेरल्ड मामले में उनसे कई दिनों तक घंटों पूछताछ हुई। जब वे उससे फ़ारिग़ हुए तो उन्होंने एक सभा में कहा कि किसी ने मुझसे पूछा, राहुलजी आपने इतने धीरज से इस सबका सामना कैसे किया? मैंने कहा, भैया मैं कांग्रेस में काम करता हूँ, धीरज तो आ ही जाएगा। मुझे याद नहीं आता मैंने कब आख़िरी बार किसी राजनेता के मुँह से ऐसी ईमानदार स्वीकारोक्ति, स्वयं पर किया गया ऐसा कटाक्ष और वह भी किसी आत्मदया के बिना सुना था। मैं इस बात की इज़्ज़त करता हूँ। यह कैंडिड-मोमेंट एक्नॉलेजमेंट का हक़दार है। यहाँ मैं इस पर चर्चा नहीं कर रहा कि क्या राहुल देश के प्रधानमंत्री बनने के योग्य हैं या नहीं, या क्या उन्हें प्रधानमंत्री बनना चाहिए। मैं एक व्यक्ति के रूप में राहुल का मूल्याँकन कर रहा हूँ, क्योंकि नेता वो हों न हों, व्यक्ति तो अवश्य ही हैं। व्यक्ति होने की अस्मिता उनसे कोई नहीं छीन सकता, नाकाम नेता कहकर मखौल भले कोई जितना उड़ा ले।
मेरा प्रश्न यह है कि किसी व्यक्ति में निहित ईमानदारी, सच्चाई और भोलेपन का कोई महत्व है या नहीं, या हम इन मूल्यों को घोलकर पी गए हैं? वैसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि क्योंकि राहुल गांधी बीते डेढ़ दशक से कठोर उपहास सह रहे हैं, किन्तु आश्चर्य कि अब तक कटु या उग्र या कुंठित नहीं हुए। यह सरल बात नहीं है। इतनी पराजय, इतनी निराशा और इतने कटाक्ष सुनकर कोई भी तिक्त हो सकता था। कहीं न कहीं मुझे लगता है कि देश का शिक्षित वर्ग मन ही मन राहुल को पसंद करता है, अलबत्ता वो उसके वोट तब भी नहीं देगा। वोट एक अलग चीज़ है। देश चलाना एक बात है, भला आदमी होना दूसरी बात है। आज हम मान चुके हैं कि राज-काज के लिए टेढ़ा आदमी होना ज़रूरी है। इसमें कुछ ग़लत नहीं है, क्योंकि हालात ही विकट हैं। भारत कोई स्कैंडिनेवियाई कंट्री नहीं है या ऑस्ट्रेलिया-न्यूज़ीलैंड सरीखा प्रशान्ति का प्रखण्ड नहीं है। यह दुरभिसंधियों की भूमि है और शत्रुओं से घिरी है- बाहर से भी और भीतर से भी। राहुल को बाहर के शत्रुओं की ख़बर भले हो, किन्तु भीतर के शत्रुओं के प्रति उन्होंने गहरी समझ प्रकट नहीं की है। वे अकसर प्यार और सौहार्द जैसे शब्दों का उपयोग करते हैं, मानो आमजन प्यार और सौहार्द से भरा हो, और राजनीति ने ही उसे बाँट रखा हो। सच्चाई यह है कि आमजन में कुंठाएँ, भेदभाव, मूर्खताएँ, क्रूरताएँ, घृणा और अलगाव पैठा हुआ है, राजनीति तो केवल इन नकारात्मक भावनाओं का अपने पक्ष में दोहन करती है। राहुल यह नहीं समझते। और राष्ट्रीय सुरक्षा एक बड़ा प्रश्न है। चुनावी-नतीजों को एकतरफ़ा रूप से बदल देने की क्षमता रखने वाला प्रश्न है।
तो देश के लोगों ने मान लिया है कि लोहा ही लोहे को काटता है। राहुल लोहा नहीं हैं। घी टेढ़ी उंगली से ही निकलता है। राहुल की उंगली तो सीधी है। लातों के भूत बातों से नहीं मानेंगे। राहुल बातें बना लेंगे पर दुलत्ती नहीं झाड़ सकेंगे। तो जो लोग मन ही मन उनको पसंद करते हैं वो भी उनको वोट नहीं देंगे। किन्तु प्रश्न वोट का है ही नहीं, प्रश्न परिप्रेक्ष्य को समझने का है। क्या ही अचरज है कि जिस व्यक्ति को शहज़ादा कहकर पुकारा गया और जो वंशवादी राजनीति का प्रतीक बना दिया गया, वह आज सड़कों पर उतरा है और जन-मन से घुल-मिल रहा है।
1951 में नेहरूजी भी इसी तरह से सड़कों पर उतरे थे और पूरे देश की परिक्रमा की थी। वह उनकी भारत की दूसरी खोज थी। आज देश के नेताओं ने लोगों से वैसे मिलना कब का बंद कर दिया। वे उनसे फ़ासले से मिलते हैं। आभासी छवियों से उनको समझते हैं। उनमें गौरव या उन्माद की भावनाएँ जगाते हैं, मानो एक नागरिक का इसके सिवा और कोई काम नहीं रह गया है कि अहर्निश किसी न किसी बात पर गर्व करता रहे। देश के नेतागण तो पत्रकारों का सामना करने से भी डरते हैं। डर किस बात का है? राहुल के सम्बंध में एक और मज़े की बात सुनिए। वे तमाम प्रश्नों का सामना करते हैं और यह जानकर करते हैं कि वे धरे जाएँगे। क्योंकि प्रश्न टेढ़े होते हैं और राहुल में देश की अनेक जटिल समस्याओं की गहरी समझ नहीं है। अकसर वे दुविधा में पड़ जाते हैं या संज्ञाशून्य हो जाते हैं या कोई अटपटी बात बोल जाते हैं। प्रतिपक्ष के मुस्तैद कैमरे उस क्षण को दबोच लेते हैं और पूरे देश को दिखाते फिरते हैं कि देखिये, यह व्यक्ति कितना मूर्ख है। हो सकता है वह मूर्ख हो, फिर भी वह प्रश्नों का सामना कर तो रहा है। उनसे भाग तो नहीं रहा। क्या इस बात का कोई मूल्य नहीं है? फिर, आपमें उसको मूर्ख साबित करने की इतनी हड़बड़ी क्यों कर है?
2024 में राहुल प्रधानमंत्री बनने से रहे। 2029 में भी क्या ही बनेंगे। बनना भी क्यों चाहिए? इधर तो यह भी कहा जा रहा है कि अभी वाला तो ठीक, आइंदा हम और टेढ़े आदमी को प्रधानमंत्री बनाएँगे। भली बात है। फ़ौजदारी के हालात में तो हवलदार का डंडा ही चलता है, भलेमानुष की बतकही से वहाँ काम नहीं होता। किन्तु क्या ही दु:ख की बात है कि देश में नेतृत्व का निर्णय एक नकारात्मक भावना से होता है कि ज़माना ख़राब है और भले आदमी से दाल नहीं गलेगी। यह अपने आपमें एक बुरी बात है और हताश करने वाली है। इसलिए मैं आपसे कहता हूँ, राहुल योग्य नेता हैं या नहीं, यह मत सोचिए, यह बताइए कि भले, सुशिक्षित, सौम्य लोगों को देश चलाने के योग्य नहीं समझा जाए- क्या यह एक अच्छी बात है?
दीपक असीम (माराठंडम से)-
राहुल जी जरा धीरे चलो…
राहुल गांधी के साथ भारत जोड़ो यात्रा में चल रही महिलाओं की एक ही दिली ख्वाहिश है मगर उन्होंने यह ख्वाहिश जाहिर नहीं की है। ख्वाहिश सिर्फ इतनी सी है कि राहुल जी जरा धीरे चलें। इस पदयात्रा शामिल फिट और तगड़े लोगों में राहुल अव्वल नंबर पर हैं। वह तीर की तरह चलते हैं और बाकी लोगों को उनसे कदम मिलाने में तेजी दिखाना पड़ती है। महिलाएं अगर धीमी पड़ जाएं तो धक्का-मुक्की होने लगती है। इसलिए महिलाओं को भी तेज चलना पड़ता है। आखिर में होता यह है कि पहले पड़ाव पर पहुंचते ही महिलाएं ढेर हो जाती हैं। कल पहला पड़ाव एक चर्च में था और बेचारी महिलाएं ही नहीं दूसरे लोगों को भी चर्च पहुंच कर यही लगा कि वह पूरे पूरे खर्च हो गए हैं।
मगर खाना तो खाना ही था। खाना खाने के बाद जिसे जहां जगह मिली पसर गया। चर्च के अंदर जहां यीशु की मूर्ति है वहां आज तक कोई इस तरह पसर कर नहीं सोया होगा जिस तरह कल लोग सो रहे थे। इस चर्च में मेहमानों के लिए कमरे तो हैं मगर वह सब बड़े नेताओं के हिस्से में आए। मीडिया जिन आलीशान केंटेनरों की बात करता है वह कहीं नहीं थे। धूप से बचने के लिए टेंट लगाया गया था और कुछ लोग तो बस टेंट के नीचे ही थे। एसी छोड़िए पंखा, कूलर छोड़िए छांव भी नसीब नहीं थी।
आम तौर पर जब महिलाओं से बात की जाती है तो वे सजग होकर बैठ जाती हैं मगर कल जब प्रिया ग्रेवाल और पिंकी सिंह से नमस्ते की तो उन्होंने लेटे-लेटे ही जवाब दिया। पूछा थकान हो रही है। पहले कहां नहीं फिर जब उठते नहीं बना तो कहने लगी हां हो रही है। पूछा राहुल जी कुछ ज्यादा तेज चलते हैं ना। दोनों के मुंह से एक साथ निकला हां बहुत तेज।
मगर इस तेज चलने का एक कारण और कई फायदे भी हैं। कारण यह है कि रास्ते में यात्रा का इंतजार करने वाले लोग जल्दी फ्री हो जाए। फायदा यह की सुबह ठंडे-ठंडे दस बारह या पंद्रह किलोमीटर पहुंच जाए तो धूप की तेजी और उमस से बचा जा सकता है। दूसरा फायदा यह है कि जल्दी पहुंचते हैं तो आराम करने के लिए बहुत सारा वक्त मिल जाता है। आम लोगों का तो सिर्फ आराम होता है मगर राहुल समेत बड़े नेताओं को आराम भी नसीब नहीं मिल रहा। जिस भी पड़ाव पर जाते हैं स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं से मिलते भी हैं, बात भी करते हैं। इस तरह कन्याकुमारी से कश्मीर तक संगठन भी मजबूत होता जा रहा है। साथ ही संगठन में भी जान पड़ती जा रही है। कस्बे का जो नेता राहुल गांधी से मिल चुका हो, बात कर चुका हो उसका उत्साह कहां पर पहुंचेगा इसका बस अंदाजा ही लगाया जा सकता है। दिग्विजय सिंह ने प्लान ऐसा बनाया है कि संगठन के हर अंग के नेता को तवज्जो दी जा रही है, राहुल गांधी से मिलवाया जा रहा है। महिला कांग्रेस, युवा कांग्रेस, सेवादल अल्पसंख्यक विभाग इन सबके छोटे-छोटे पदाधिकारी भी यात्रा में आ रहे हैं और जुड़ रहे हैं।
नींद से उठ कर भी बोल सकते हैं राहुल
दिग्विजय सिंह ने कहा अगर मीडिया पास बनवाना है तो जयराम रमेश से बोलो। वही मीडिया इंचार्ज है मैं कुछ नहीं कर सकता । कहीं से नंबर जुगाड़ कर जयराम रमेश को फोन लगाया तो उधर से मैसेज आया की लिख कर बताओ क्या चाहते हो। लिखकर भेजा तो कोई जवाब नहीं आया। एक चैनल वाली ने विनीत पुनिया का नंबर दिया और कहा यही पास बना रहे हैं। विनीत पूनिया ने दुनिया भर की बात की मगर पास बनाकर नहीं दिया। इसके बावजूद यह नाचीज़ राहुल गांधी की प्रेस कॉन्फ्रेंस में सबसे आगे बैठा। राहुल गांधी से साढ़े पांच फुट दूर। कैसे? मीडिया की भीड़ में घुसकर। धक्के खा कर और धक्के देकर।
यह पदयात्रा गोदी मीडिया की अनदेखी का तोड़ भी है। दिल्ली में बैठे जितने बड़े मीडिया मठाधीश है उन सबको सरकारी आदेश मिला है कि इस पदयात्रा को या तो छुपा दो या उधेड़ दो। मगर सरकारी आदेश छोटे छोटे तमिल मलयालम चैनलों पर तो लागू नहीं होता। लोकल अखबारों पर तो सरकारी हुक्म नहीं चलता। कल मुलागोमुलु के चर्च में हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में करीब 300 पत्रकार मौजूद थे। एक दूसरे को धक्के देते हुए, एक दूसरे से झगड़ते हुए सब ने अपने कैमरे फिट किए। जयराम रमेश मीडिया इंचार्ज की भूमिका को खूब एंजॉय कर रहे हैं। सबसे पहले वहीं आकर बैठे और बिल्कुल बीच की कुर्सी चुनी। कायदे से जिस पर राहुल गांधी को बैठना चाहिए था। पवन खेड़ा को खदेड़ दिया गया और एकदम आखरी कुर्सी पर डाल दिया गया। जयराम रमेश की ख्वाहिश यह थी कि राहुल गांधी उनके पास बैठें। मगर केसी वेणुगोपाल सौत बन गए। फोकस एक बार फिर तीन लोगों पर रहा बीच में राहुल गांधी पास में केसी वेणुगोपाल और उनके पास कोई और।
1:00 बजे प्रेस कांफ्रेंस शुरू होनी थी मगर कुछ लेट हुई। कारण यही था कि राहुल गांधी खाना खाकर सो गए थे। जब उन्हें मीडिया के सामने लाया गया तो साफ दिख रहा था कि वह नींद से उठा कर लाए जा रहे हैं। मगर जैसे ही उन्होंने बोलना शुरू किया बिल्कुल सजग हो गए और हर सवाल का जवाब समझदारी और शांति से दिया।
गोदी मीडिया के पत्रकार ने पूछा कि भारत जोड़ों का क्या मतलब है क्या भारत कहीं से टूटा हुआ है। राहुल गांधी ने उसे मनचाहा उत्तर नहीं दिया और ऐसा घुमाया कि पत्रकार चकरघिन्नी हो गया। राहुल भी जानते हैं कि उनके असावधान शब्द से बात का बतंगड़ बन सकता है। इसके बावजूद उनकी हिम्मत है कि वह मीडिया के सामने आते हैं और सवालों का जवाब भी देते हैं। जयराम रमेश से लड़ झगड़ कर इस प्रतिनिधि ने भी एक सवाल पूछा। सवाल था
कांग्रेस यह वादा क्यों नहीं करती कि जो जो सरकारी संपत्तियां बेची जा रही है उन्हें हम फिर से सरकार के अधीन ले आएंगे। इस सवाल पर एक पत्रकार का एक सवाल और चढ़ गया। राहुल गांधी उसका जवाब देते देते इस प्रतिनिधि का सवाल भूल गए तो इस प्रतिनिधि ने अपने सवाल के लिए फिर टोका। जवाब मिला कि हम नियम विरुद्ध किए गए काम की जांच कराएंगे। कारपोरेट से बैर नहीं है मगर यह गलत है कि नियम कायदों को ताक पर रखकर कुछ लोगों को फायदा पहुंचाया जाए।
अंत में जयराम रमेश ने कहा कि मोदी ने आज तक कोई प्रेस कांफ्रेंस नहीं की। मोदी बिना टेलीप्रॉन्पटर कुछ नहीं बोल पाते। उन्हें यह बोलना था कि राहुल नींद से उठ कर भी बोल सकते हैं। मगर उन्होंने नहीं बोला।
गांधी और इंदिरा जी के सामने लोक नृत्य
मुलागोमुलु से दीपक असीम
महात्मा गांधी तो साफ पहचान में आ रहे थे। उनके पास खड़ी महिला इंदिरा गांधी बनी हुई थी। मगर पास में कोई एक राधाकिशन मालवीय जैसी पगड़ी भी पहने था। उनके और पास में तो एक आदमी रावण जैसी वेशभूषा में था। इनके सामने चल रहा था लोक नृत्य जो हावभाव और अदाओं से लावणी के पास था मगर लावणी से जरा सा कम।
जो धुन चल रही थी और जो बाजे उसके साथ बज रहे थे वह ऐसा कमाल कर रहे थे कि जिनको नाचना आता है यानी जो नाचने में मजा लेते हैं उन्हें अपने आप को रोकना मुश्किल हो रहा था। धूप कड़ी थी, तेज थी, तीखी थी मगर नाचने वाली महिलाओं से कम। तो पहले यह किया कि नाच देखा और खुद भी नाचते से रहे। फिर जब नाच खत्म हुआ तो पूछा कि गांधीजी और इंदिरा जी तो समझ में आ रहे हैं बाकी लोगों ने किसका भेस धारा है। जवाब में तीन नाम सुनाई दिए जिन का उच्चारण मुश्किल है और जिन्हें हिंदी में लिख पाना असंभव। मगर इतना मालूम पड़ा कि यह सभी फ्रीडम फाइटर रहे हैं। रावण नुमा शख्स एक पुराने राजा हैं जिन्होंने बहुत शुरुआत में अंग्रेजों से लोहा लिया था जंग लड़ी थी शहीद हुए थे। बाद के दो अगले वक्तों के फ्रीडम फाइटर थे।
अलग-अलग काल खंडों के लोग केवल नासमझी से ही एक साथ नहीं आते कभी-कभी कला से भी एक ही वक्त में आ जाते हैं। फर्क यही होता है कि नासमझ आदमी अपने कम पढ़े लिखे होने से अलग-अलग काल खंडों के लोगों को एक साथ बैठा कर उनकी चाय पानी करा देता है और कलाकार जानते बूझते सब को एक साथ खड़ा करके उनके सामने तमिलियन डांस करा देता हैं। यह पदयात्रा केवल पदयात्रा ही नहीं है। यह संस्कृति यात्रा भी है। आज यह यात्रा त्रिवेंद्रम यानी केरल आ जाएगी। यहां की संस्कृति के रंग और अलग होंगे।
संजय कुमार सिंह-
राहुल गांधी से नहीं होगा – तो आपलोग परेशान क्यों हैं?
राहुल ने राजनीति के लिए पैदल चलने की बहुत मुश्किल लाइन खींच दी है
जो लोग आठ वर्षों से हिन्दू मुसलमान, देसी-विदेशी (बांग्लादेशी) कर रहे हैं, पाकिस्तान भेज रहे हैं उनके समर्थक भारत जोड़ो यात्रा का मजाक उड़ा रहे हैं। महात्मा गांधी की हत्या और बंटवारे के 75 साल बाद भारत के टुकड़े कर पाकिस्तान का उदाहरण देने वाले एक मित्र को मैंने पाकिस्तान तोड़कर बांग्लादेश बनाने की याद दिलाई और पूछा कि बिरयानी खाने जाने के बाद से क्या टूटा या जुटा तो वो बिल में चले गए। यात्रा से परेशानी साफ दिख रही है और लोग कह रहे हैं कि राहुल गांधी से नहीं होगा – पता नहीं क्या?
पर रोज 20 किलोमीटर चलना तो हो ही रहा है। बाकी जो होना है वह सबको पता है और इसीलिए छटपटाहट है। जैसा मैंने कल लिखा था राहुल गांधी की यात्रा की रिपोर्ट ठीक से हो तो प्रचारकों को समझ में आ जाए कि पप्पू कौन है और पप्पुओं के गिरोह का मुखिया कौन। पर जिस देश के मीडिया का बड़ा हिस्सा दलाली करने लगे (वीडियो सार्वजनिक है) उसके क्या कहने। राहुल गांधी ने कहा है और यह अखबार में छपा है कि वे आरएसएस के किए नुकसान की भरपाई के लिए यात्रा कर रहे हैं पर भाजपा या संघ ने अभी तक ये नहीं पूछा है कि वे किस नुकसान की बात कर रहे हैं।
इस बीच बिलकिस बानो के बलात्कारियों को रिहा किए जाने पर शाजिया इल्मी ने इंडियन एक्सप्रेस में एक टिप्पणी लिखी थी। इंडियन एक्सप्रेस में आज प्रकाशित एक खबर के अनुसार विश्व हिन्दू परिषद (वीएचपी) ने भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता शाजिया इल्मी की कल (10 सितंबर को) प्रकाशित टिप्पणी पर एतराज किया है। इसमें उन्होंने कहा था कि रिहा होने वाले बलात्कारियों का सम्मान करने वाले वीएचपी के लोग थे। अपनी टिप्पणी में उन्होंने नरेन्द्र मोदी को इस विवाद से अलग रखा है। आज छपी खबर के अनुसार वीएचपी ने उनलोगों से किसी भी तरह का संबंध होने से इनकार किया है।
यह दिलचस्प है कि विश्व हिन्दू परिषद को अपने बारे में पार्टी प्रवक्ता के लेख पर एतराज है लेकिन आरएसएस पर राहुल गांधी के आरोप को लेकर किसी को कोई दिक्कत नहीं है या है तो सीधे सवाल नहीं करके दूसरी तरह से हमला किया जा रहा है। यह विडंबना ही है कि बलात्कारियों की ‘संरक्षक’ पार्टी में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ नारा देने के बाद बलात्कारियों को रिहा कराने और उसपर चुप रहने वालों पर तो सवाल नहीं उठ रहा है, ना आरएसएस के किए नुकसान के आरोप पर चर्चा हो रही है पर बंटवारे की कहानी अब याद की जा रही है।