Suresh Chiplunkar-
जिम्मेदारी किसकी? फरवरी में रेलवे के एक उच्चाधिकारी ने पत्र लिखकर रेलमंत्री को चेता दिया था कि इलेक्ट्रोनिक interlock सिस्टम ठीक नहीं है… इसमें जल्दी से जल्दी सुधार की जरूरत है…


इसके बाद मई में रेलमंत्री साहब ने भारतीय रेलवे के इन्फ्रास्ट्रक्चर को विश्व स्तरीय बताते हुए मोदीजी का भरपूर स्तुतिगान किया था… और जून के पहले हफ्ते में ही भीषण दुर्घटना घट गयी… जिसके लिए रेलमंत्री इंटरलॉकिंग सिस्टम की गलती बता रहे…
अब इस बात की पूरी संभावना लग रही है कि ३०० लोगों के मारे जाने की जिम्मेदारी किसी गरीब गैंगमैन… अथवा १२ घंटे की कठोर ड्यूटी करने वाले लोको पायलट पर डालकर पल्ला झाड़ लिया जाएगा…
और हाँ!!! मुम्बई से १०० किमी दूर जंगल के किसी गाँव में अफवाह के चलते कोई भीड़, रात में दो साधुओं की हत्या कर दे… तो उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे जिम्मेदार हैं… लेकिन ३०० लोगों के मारे जाने पर “आए दिन रेलमंत्री का रोल निभाने वाले महामानव” की कोई जिम्मेदारी नहीं है…
M M Dhera-
9 साल पहले मैं जहां कहीं भी जाना चाहता था, ट्रेन पहली प्राथमिकता होती थी। प्लेन, अगर समयाभाव हो, तभी लेता था। अब ..
(1) ट्रेन की संख्या कम हो गयी है, अधिकांश ट्रेन या तो बन्द हैं या फेरे कम हैं। आबादी बढ़ती रही है सो भीड़ ज्यादा होती जा रही है।
(2) इसी वजह से रिजर्वेशन मिलने में पहले से ज्यादा कठिनाई है। तत्काल का तो खुदा ही मालिक है।
(3) ट्रेन टिकट का प्राइज इतना हो गया कि थोड़ा और मिला लें, तो फ्लाइट बुक हो जाती है। वंदे भारत की प्राइजिंग देखता हूँ तो लगता है, कौन मूर्ख इस कीमत पर ट्रेन में बैठेगा। फ्लाइट न ले लेगा?
(4) हर ट्रेन में चार पांच घण्टे का न्यूनतम विलम्ब है। 300 किलोमीटर के टोटल रन वाली जनशताब्दी, 8-8 घण्टे प्रतिदिन लेट है। गंतव्य से ही 4 घण्टे लेट निकलती है।
(6) पहले बेड रोल कम्बल मिलना तय था। अब पता नही होता कि, मिलेगा, या नहीं मिलेगा। चादर तकिया कम्बल खुद सामान ढोकर ले जाने से बेहतर है, फ्लाइट कर लो।
कम दूरी, याने 500 किलोमीटर तक बेधड़क कार से जाता हूँ। सरकार भी चाहती है, कि ट्रेन छोड़ो, सड़क से चलो। वह जगह जगह हाईवे बनवा रही है।
इसमें उसको टोल मिलता है, 8 करोड़ प्रति किलोमीटर के खर्च वाले हाइवे कार्य का ठेका 24 करोड़ प्रति किलोमीटर में देने का मौका मिलता है।
चमकीले हाइवे, अखबार औऱ टीवी में विज्ञापन देने के काम आते हैं। अमेरिका बन जाने का भौकाल खड़ा होता है। रोड की मरम्मत में पार्टी के ठेकेदारों को स्थायी रोजगार मिलता है।
बहुतेरे स्टेट हाइवे, नेशनल हाइवे घोषित करके उनको स्टेट गवर्मेन्ट से छीन लिया जाता है। फिर विपक्ष के राज्यों में बरसों बरस रोड बनती नहीं । परेशान जनता, अपनी राज्य सरकार बदल देती है। चट से सेंट्रल फंड इशू हो जाता है। रोड बन जाती है। इसे ही डबल इंजन की सरकार कहते हैं।
सड़कों में जनता को कोई सब्सिडी नहीं। सुरक्षा और मरने मुरने का जिम्मा आपका है, रेल सिर्फ जिम्मेदारी देती है।
तो अपने खर्चे पर चलिए, ट्रेन के माध्यम से सरकार पर बोझ न बनिये।
ट्रेन से सिर्फ एक लाभ है- इसकी रैक में भरकर आप मुंद्रा से कन्याकुमारी तक क्या ले जा रहे है, पूछने वाला कोई माई बाप नहीं ।तो ट्रेन का इस्तेमाल सिर्फ माल ढोने को किया जाएगा। डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर पर काम चल रहा है। याने मालगाड़ी ही चलेगी, मनुष्य गाड़ी नहीं ।
तो आप समझ गए कि नहीं कि रेल 9 सालों में सचमुच ट्रान्सफार्म हो चुकी है। रेल पर निर्भर मध्यवर्ग को खदेड़ कर हाई वे और हवाईअड्डे भेजा जा रहा है । दिल्ली से भुवनेश्वर का आज का हवाई टिकट मालूम है कितने का है ? सत्तावन हज़ार रुपये का !
मोदीजी ने कहा ही था कि उनके खून में वैपार है , उड़ीसा में रेल की पटरी पर खून बहा तो दिल्ली भुवनेश्वर की फ़्लाइट में बैपार हो गया!