Rahul Pandey : सत्ता के साथ सहवास कर अपना शील भंग कराकर वापस लौटकर आए ताउम्र लटके थोबड़े के साथ घूमने वाले कथित प्रगतिशीलों को शायद अच्छा न लगेगा, पर बताते चलें कि रणवीर सेना के मुखिया ने भी बच्चों का संहार करने की वकालत की थी। कहा था बड़े होकर नक्सली बनेंगे, इससे अच्छा अभी मार दो। आप उन्हीं के आकाओं के हाथों बिककर आए हैं। महिलाओं, बच्चों के खून से सने नोट आपके बड़े बड़े पर्सों की शोभा बढ़ा रहे हैं। पेशावर पर आपका राग यमन हो सकता है कि सच्चा हो, पर यकीन मानिए… आप तो शोक व्यक्त करने के काबिल भी नहीं हैं। आप तो पहले भी मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं थे, खूनियों के हाथ जमीर बेच कर आने के बाद आप और भी अमर्यादित पुरुषोत्तम हो गए हैं। छि: …
xxx
रायपुर जाकर एक बार फिर से वामपंथ / प्रगतिशीलता / नारीवाद का चोला ओढ़कर अपनी दुकान चलाने वालों ने सबसे ज्यादा नुकसान पंथ / शीलता / वाद का ही किया है। लोगों में इसका साफ संदेश यही गया है कि देखो- ऐसे ही तो नहीं, वामपंथी ”दोगले” कहे जाते हैं। कमाल की बात ये है कि लौटकर आने के बाद भी इन बेरीढ़ बेपेंदी के लोटों में इतनी बेशर्मी बची हुई है कि वो अपने इस अक्षम्य कृत्य को डिफेंड कर रहे हैं। ये बात अक्षम्य तब और बन जाती है, जब हम सभी लोग सरकारी लव जिहाद, धर्मांतरण, दंगे फसाद, नसबंदी, नरसंहार से किसी न किसी तरह लड़ रहे हैं। ये ऐसा वक्त है, जब पूंजीवादी फासिस्ट और सामंती सरकार के खिलाफ मजबूती से खड़ा होने की मांग करता है। ऐसे वक्त में इन दुकानदारों ने उसी पूंजीवादी फासिस्ट और सामंती सरकार से न सिर्फ पैसे लिए, बल्कि उस जगह पर खड़े होकर खुद अपना मर्सिया पढ़ा, जहां अभी दर्जनों मासूम महिलाओं की लाशें कब्र में ठीक से गली भी नहीं हैं। ऐसे लोगों की जितनी भी भर्त्सना की जाए, कम है। ऐसे लोग जिस भी पब्लिक मीटिंग में दिखाई दें, इनका बायकॉट करना चाहिए। जेएनयू के साथियों को बताने की जरूरत है कि उन्हें क्या करना है? जसम से रणेंद्र गए थे, मेरा @जन संस्कृति मंच से निवेदन है कि आवश्यक कार्रवाई करें। प्रलेस से भी लेखक गए थे। क्या इसे प्रतिक्रांतिकारी लेखक मंच करार दिया जाए…
xxx
रायपुर रासो : गांव का सबसे बड़ा हत्यारा उन दिनों रमण के पश्चात गीत गा रहा था। हिंदी की एक बड़ी लेखिका ने सरस्वती के जल से उसके हाथ धुलवाए। उसे पवित्र बताते हुए उसे रोली चावल का टीका लगाया। पर रोली की लाली तो उन योनियों की मौत का कारण बने रक्त से ली गई थी, जो अभी कब्र में ठीक से मिट्टी भी न बनी। हिंदी की एक प्रखर संपादिका, जो पहले भी अपने स्थान के नाम के अनुरुप बदनाम थीं, पकड़े जाने पर हारमोनियम और तबलचियों को बुला लिया और ता-ता थैया के शोर में खुद को महान बताने लगीं। दिल्ली में ताम्रपात्र में तेल लेकर टहलने वाले और पचौरियों-कुमारों की रसोई सेवा करने वाले कुमार हमेशा की तरह उस उत्सव में खुद को कुमार बताते हुए अपना कौमार्य पुष्पित कर आए। उन्हें और उनके साथ ताम्रपात्र लेकर चलने वालों को मलाल हुआ, बहुत हुआ… पर मौतों का नहीं, गालियों का हुआ, जो जनता ने उन्हें दीं। कौमार्य का क्यों होता, वह तो पुष्पित होकर फूल की तरह फैल चुका था। किसी गायब होते देश ने नपुंसकों की महिमा का बखान देश के उस गांव में किया और तालियां बजाते हुए अपनी धोती उठाकर बधाई देकर नेग लिया। तो वो कुमारी, जो कभी किसी से ना हारी, उसने प्रतिरोध की संस्कृति को शोहदों, लुच्चों, लफंगों की संस्कृति में बदल दिया। आह…विनिमय के साधनों ने इंसान को हमेशा से ऐसे ही भ्रष्ट और मानवता को नष्ट किया है। लौटकर आने पर सबने रगड़ रगड़कर खून धोए, और अब कहते हैं कि देखो… देखो ना.. हम बेदाग हैं। दरभंगा से मिली चिट्ठी ने हमें बताया कि कैसे मनीऑर्डर लेकर भी लोग क्रांतिकारी बने रह सकते हैं। जिन लोगों को बेहयाई, बेशर्मी और बद्तमीजी प्रत्यक्ष देखनी हो, रायपुर से लौटकर आए सभी कथित अप्रगतिशीलों की फेसबुक प्रोफाइल पर जाकर देख सकता है।
xxx
परगटिशीलों का निकलै ठेला, दिल्ली का बाजार में
हटके बचके होय लो किनारे, दिल्ली का बाजार में
सालमसाल पे निकले रेला, दिल्ली का बाजार में
संघी साथे खावैं मैला, दिल्ली का बाजार में
बोल दिहो तो जाबो धकेला, दिल्ली का बाजार में
कि छिद्दन पाई जोड़ैं, अहा
कि राई राई जोड़ैं, अहा
खुरुच के काई जोड़ैं, अहा
लाल लुगाई जोड़ैं, अहा
लाशन पे लगावैं मेला, दिल्ली का बाजार में
वाद नाद के रायता फैला, दिल्ली का बाजार में
हर ठेला पे माल सुनहला, दिल्ली का बाजार में
पास से देखौ तो है ऊ मैला, दिल्ली का बाजार में
पांड़े बोलिहैं तो जइहैं पेला, दिल्ली का बाजार में….
यहलिए….
पांड़े कुछ ना बोलिहैं, अहा
कि पांड़े मुंह ना खोलिहैं, अहा
पांड़े भए जज्बाती, अहा
पांड़े ससुर के नाती, अहा
xxx
श्मशान पहरेदार है
श्मशान पहरेदार है
गालियों की बौछार है
श्मशान पहरेदार है
गोलियों की मार है
श्मशान पहरेदार है
आंसुओं की धार है
श्मशान पहरेदार है
लाशों का अंबार है
श्मशान पहरेदार है
अबोधों का व्योपार है
श्मशान पहरेदार है
कवियों का संसार है
श्मशान पहरेदार है
इंसान की अब हार है
श्मशान पहरेदार है
बढ़िया मोटर कार है
श्मशान पहरेदार है
रोता क्यूं बेकार है
श्मशान पहरेदार है
दुखिया ये संसार है
श्मशान पहरेदार है
नकली ये बाजार है
श्मशान पहरेदार है
सिक्कों के सब यार हैं
श्मशान पहरेदार है
(ज्यादा लिखना खुद के साथ नाइंसाफी होगी। रायपुर लिट फेस्ट में गए आस्तीन के सापों के लिए…)
कई अखबारों में कार्य कर चुके राहुल पांडेय के फेसबुक वॉल से.
azbak
December 17, 2014 at 11:06 am
in sahab ko kumari ji ke prem ka parantha khane ko nahi mila, isliye ye itne andolit hain. 😀 😛
rajkumar
December 18, 2014 at 2:07 pm
kamred ek dusre par lal ho rahe h , diya bujhata h to jyada fadfadata h, yah mit jayenge lekin punchh sidhi nahi hogi, congress se tukda milna band hogaya becharo ka
Satish Kumar Chouhan
December 19, 2014 at 5:21 am
लगता हैं सरकार ने साहित्य का कैम्बो पैक किसी प्रकाशक से खरीदा था जो आयोजन के अंत तक अपने मनमाफिक प्रतिभागीयो की उठा पटक करता रहा…..पर जलेस प्रलेस के कुछ लोगो का यहां दूम हिलाना हजम नही होता….