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खोटे सिक्के को अंतिम दम तक चलाने का प्रयास करते थे रामेश्वर पांडे!

राजेंद्र त्रिपाठी-

रामेश्वर पांडेय “काका ” : मीडिया जगत का एक कुशल संगठनकर्ता

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अमेरिका में रात के कोई 3:30 बजे थे। नींद खुल गई तो बेड के बाजू में रखा आईपैड उठा लिया। देखा तो फेसबुक पर श्री रामेश्वर पांडे “काका” ….श्री रामेश्वर पांडे “काका” ही दिखाई दे रहे थे। जीते जी ऐसा घटित होता है तो इसे छा जाना कहते,पर किसी के महाप्रयाण के बाद समूचा फेसबुक पर साथी अपनी यादों को साझा करें तो बड़ी बात है। जब तक रहे अखबारी दुनिया में पांडे जी छाए रहे,जाने के बाद अगर फेसबुक पर सिर्फ वही दिखाई दे रहे हों तो सहज ही समझा जा सकता है कि कैसा व्यक्तित्व रहा होगा उनका। पांडे जी को एक वाक्य में रेखांकित करूं तो यही कहूंगा कि -कुशल संगठनकर्ता।

अमर उजाला में उनके संग दो चरणों में काम करने का मौका मिला। 90 के दशक में जब वे पहली बार मेरठ आए तो ये कार्यकाल बहुत लंबा नहीं था। मुझे याद है कि वह चुनाव का दौर था। अमर उजाला में सेंट्रल चुनाव डेस्क का गठन किया गया था। वरिष्ठता और अनुभव के आधार पर पांडे जी को जिम्मेदारी सौंपी गई। चुनावी खबरों के लेकर उनसे यदा कदा बात होती रहती थी। दूसरे चरण में पांडे जी जब आए तब अमर उजाला, दैनिक जागरण, दोनों विस्तार ले रहे थे। ऐसे में दोनों मीडिया हाउस में नवोदित पत्रकारों की नियुक्ति का दौर चल रहा था।

अमर उजाला की मेरठ यूनिट रिक्रूटमेंट और ट्रेनिंग की कमांड सेंटर बना। इस कमान की जिम्मेदारी श्री रामेश्वर पांडे को सौंपी गई। पंजाब-हरियाणा में संस्करणों के विस्तार का काम चल रहा था। नवोदित पत्रकारों की फौज आ रही थी। उनको अमर उजाला के मुताबिक ढालने की जिम्मेदारी मेरठ यूनिट की थी। रिपोर्टिंग के लिए आने वाले साथियों को महीना पंद्रह दिन मेरे पास रहना होता था। डेस्क पर काम करने वाले साथी सीधे पांडे जी की निगरानी में रहते थे।

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जालंधर यूनिट की स्थापना होने के साथ ही पूरी लश्कर के साथ पांडे जी को पंजाब की जिम्मेदारी सौंपी गई। जब मीडिया मार्केट में मैन पावर के लिए मारामारी हो रही हो तो उसमें से हीरे-मोती चुग कर लाना चुनौतीपूर्ण कार्य होता था। पांडे जी ने इस कार्य को बखूबी निभाया ही नहीं, भरपूर रंग जमाया।

सही मायने में कहूं तो पांडे जी एक कुशल संगठनकर्ता थे। किससे क्या काम लेना है…कैसे लेना है,कौन किस तरह का बेहतर कंटेंट दे सकता है,उसका कैसे उपयोग किया जाए। इन सब कार्यों में सिद्धहस्त थे। यही बात है जो उनके हक में कही जाती है कि उन्होंने बड़ी तादाद में लोगों को गढ़ने व तराशने का काम किया। जब किया तो श्रेय मिलना ही चाहिए।फेसबुक पर उनके कृतित्व-व्यक्तित्व का बखान कोई यूं ही नहीं कर रहा। कृतघ्नता के इस दौर में अगर कृतज्ञता जता रहे हैं तो उनमें कुछ तो बात रही होगी।

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सही बात कहूं अखबारी दुनिया में वरिष्ठों को सम्मान देने के मामले में दरिद्रता आ चुकी हो। तमाम ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे कि जिनका हाथ पकड़ कर कलम चलाना सिखाया गया हो वो सामने पड़ने पर मुंह फेर कर निकल जाते हैं।पांडे जी कंटेंट के धनी थे…कुशल संगठनकर्ता तो थे ही।

तकनीक के मामले में उनका हाथ कमजोर था। पर उसे कभी छुपाते नहीं थे। अगर कंप्यूटर..लैपटॉप के किसी कमांड में फंसते तो जूनियर साथी को बुला कर उससे सीखने की कोशिश करते थे। उसके सामने वह टीचर नहीं स्टुडेंट बन जाते थे। इतने सहज की थोड़ी देर के लिए ही सही कमांड समझाने बताने वाला स्टूडेंट खुद को टीचर समझने लग जाता था। यह उनकी विनम्रता का अनुपम उदाहरण है। किसी की गलतियों को सहन करने की उनकी शक्ति भी अद्भुत थी। खोटे सिक्के को अंतिम दम तक चलाने का प्रयास करते थे। एकदम न चलने पर ही बाहर का रास्ता दिखाना अंतिम विकल्प होता था।

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मेरी उनसे अंतिम मुलाकात वाराणसी में हुई थी। उस वक्त भी उन्होंने लखनऊ से अखबार निकालने की बात साझा की थी। इसके बाद टेलीफोन पर दो चार बार बात हुई। 2019 में जब मैं वाराणसी से मेरठ के संपादक की जिम्मेदारी मिली तो फोन पर उन्होंने घर वापसी की बधाई दी थी। इधर कई बरस में मेरी उनसे बात नहीं हो पाई। फेसबुक पर अपने तमाम साथियों की फोटो समेत पोस्ट देख कर उनकी स्मित मुस्कान मेरी आंखों के सामने घूम गई। इसके बाद जो नींद टूटी तो सूरज सिर पर आ गया पर वो नहीं आई।

विनम्र श्रद्धांजलि दादा !!! हां यही मेरा संबोधन होगा। क्यों कि अमर उजाला के उस दौर में जब हम साथ साथ काम रहे थे तब भी मैं दादा कह कर ही संबोधित करता था। मेरे उनके रिश्ते प्रोफेशनल से ज्यादा आत्मीय रहे।

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