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‘रंग राची’ के लोकार्पण पर बोले विश्वनाथ त्रिपाठी- एक ऐसा उपन्यास, जैसे घी का लड्डू

नई दिल्ली : मीरा बाई की संघर्ष-यात्रा को केन्द्र में रखकर लिखे गए उपन्यास ‘रंग राची’ का लोकार्पण साहित्य अकादमी सभागार, मंडी हाउस में किया गया। यह उपन्यास लोकभारती प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। इस मौके पर वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह ने कहा कि, ‘हिन्दी में बहुत कवियत्रियां हुई हैं लेकिन जो स्थान मीरा ने बनाया, वह सब के लिए आदर्श है। मीरा को करूणा, दया के पात्र के रूप में देखने की जरूरत नहीं है, मीरा स्त्रियों के स्वाभिमान की प्रतीक हैं। इस बेहतरीन उपन्यास के लिए मैं राजकमल प्रकाशन समूह व लेखक सुधाकर अदीब को शुभकामनाएं देता हूं।

<p>नई दिल्ली : मीरा बाई की संघर्ष-यात्रा को केन्द्र में रखकर लिखे गए उपन्यास ‘रंग राची’ का लोकार्पण साहित्य अकादमी सभागार, मंडी हाउस में किया गया। यह उपन्यास लोकभारती प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। इस मौके पर वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह ने कहा कि, ‘हिन्दी में बहुत कवियत्रियां हुई हैं लेकिन जो स्थान मीरा ने बनाया, वह सब के लिए आदर्श है। मीरा को करूणा, दया के पात्र के रूप में देखने की जरूरत नहीं है, मीरा स्त्रियों के स्वाभिमान की प्रतीक हैं। इस बेहतरीन उपन्यास के लिए मैं राजकमल प्रकाशन समूह व लेखक सुधाकर अदीब को शुभकामनाएं देता हूं।</p>

नई दिल्ली : मीरा बाई की संघर्ष-यात्रा को केन्द्र में रखकर लिखे गए उपन्यास ‘रंग राची’ का लोकार्पण साहित्य अकादमी सभागार, मंडी हाउस में किया गया। यह उपन्यास लोकभारती प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। इस मौके पर वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह ने कहा कि, ‘हिन्दी में बहुत कवियत्रियां हुई हैं लेकिन जो स्थान मीरा ने बनाया, वह सब के लिए आदर्श है। मीरा को करूणा, दया के पात्र के रूप में देखने की जरूरत नहीं है, मीरा स्त्रियों के स्वाभिमान की प्रतीक हैं। इस बेहतरीन उपन्यास के लिए मैं राजकमल प्रकाशन समूह व लेखक सुधाकर अदीब को शुभकामनाएं देता हूं।

कार्यक्रम में मुख्य अतिथि विश्वनाथ त्रिपाठी ने इस उपन्यास की प्रशंसा करते हुए कहा कि, “यह बहुत ही पठनीय उपन्यास है। इस उपन्यास की खास बात यह है कि इसमें एक साथ पाठकों को शोध, निबंध, विचार सबका अनुभव होगा। मीरा की कविता की गहराई को सुधाकर जी ने बहुत ही गहराई से समझा है। इनका उपन्यास घी का लड्डू है और यही इसकी सार्थकता भी है। मीरायन पत्रिका के संपादक सत्य नारायण समदानी ने मीरा के जीवन के ऐतिहासिक पक्ष को रेखांकित करते हुए मीरा से जुड़ी हुई कई भ्रांतियों को दूर किया। इस उपन्यास को मीरा के जीवन चरित का प्रमाणिक पुस्तक बताते हुए समदानी ने कहा कि मीरा मूलतः एक भक्त थीं। सुधारकर अदीब ने इस उपन्यास को लिखते समय इतिहास के साथ न्याय किया है।

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कवियत्री अनामिका ने उपन्यास के पात्रों के बीच के संबंधों के प्रस्तुतीकरण की ओर श्रोताओं का ध्यान आकृष्ट कराते हुए कहा कि, ‘एक रुपवती, गुणवती व विलक्षण स्त्री का अपने ससुर, पति, देवर सहित तमाम संबंधों में जीवंतता प्रदान करना मुश्किल काम है। सुधाकर जी ने अपने इस उपन्यास में इस युग के नजरिए से उस युग की बात की है। राष्ट्र निर्माण की भूमिका में स्त्रियों के योगदान को इस उपन्यास में सही तरीके से प्रस्तुत किया गया है। तथ्यों का संयोजन बेहतरीन है।’

प्रसिद्ध कथाकार चन्द्रकांता ने इस उपन्यास पर अपनी बात रखते हुए कहा कि, रंग राची मीराबाई के जीवन का बहुआयामी दस्तावेज़ है। यह नियति से निर्वाण की कथा है। यहाँ मीरा की जन्मभूमि राजस्थान के रजवाड़ों की शौर्य गाथाएँ भी हैं और सत्ता के लिए रचे गए षड्यंत्र भी। सोलहवीं सदी के मेवाड़ के जीवन्त इतिहास के केन्द्र में है कृष्ण प्रेम की दीवानी स्वतंत्र चेता, स्वाभिमानी रूढि भंजक अन्याय का प्रतिरोध करती, सर्वहित कामी स्त्री, जो पारिवारिक-सामाजिक प्रताड़ना सहती भी अपने कर्म-पथ से विचलित नही हुई। लेखक, मीरा की आन्तरिकता की हलचलों और द्वंद्वों को संवेदी स्वर दे कर पाठक के मन में संवेदना का उत्खनन करने में सफल हुआ है। वास्तविक चरित्रों, घटनाओं, उपकथाओं में सोलहवीं सदी का मेवाड़ जीवित हो उठा है और शोषक व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष करती मीराबाई आज की संघर्षचेता स्त्री के साथ खड़ी नज़र आती हैं!

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मीरा के जीवन संघर्ष पर रौशनी डालते हुए ‘रंग राची’ के लेखक सुधाकर अदीब ने कहा कि, ‘मीरा ने स्त्रियों के संघर्ष के लिए जो सिद्धांत निर्मित किये उन पर सबसे पहले वे ही चलीं। कृष्ण नाम संकीर्तन के सहारे मीरा ने भारत के दीन-दुखियारे समाज को उसी तरह एक सूत्र में पिरोने का काम किया जैसा कि उस भक्ति आंदोलन के युग में दूसरे सन्त करते आये थे। जो कार्य दक्षिण भारत में रामानुज कर चुके थे और जो कार्य रामानन्द ने उत्तर भारत में किया। जो कार्य कबीर, रैदास, चैतन्य और नरसिंह मेहता सरीखे अनेक संत एवं कविगण अपने-अपने तरीकों से करते आये थे, वही कार्य संत मीरा ने अपने तरीके से किया। दूसरे भक्त-सन्त जनसमर्थक थे और जनसाधारण में से ही आये थे। अतः सामन्ती व्यवस्था के वैभव और विभेद के प्रति उनके मन अरुचि होना नितांत स्वाभाविक बात थी। जबकि मीरा तो स्वयं ही सामन्ती व्यवस्था का अंग थीं। यदि चाहतीं तो वह भोग-विलासमय जीवन अपना सकती थीं। पर नहीं। वह बालपन से कृष्णार्पिता थीं। अतः उन्होंने वैभव पथ को त्यागकर साधना पथ को अपनाया। पुरुषप्रधान समाज में एक तथाकथित अबला स्त्री होकर भी उन्होंने उस निर्मम व्यवस्था का सात्विक विरोध किया जो कृष्ण के वास्तविक गोप-समुदाय से उनके मिलन में बाधक थी।’

दरअसल मीरा का चरित्र स्त्री स्वतंत्रता और मुक्ति का सजीव उदाहरण है। उन्होने जीवनपरयन्त तात्कालिन सामन्ती प्रथा को खुली चुनौती दी। वह अपने अपूर्व धैर्य के साथ उन तमाम कुप्रथाओं का सामना करती रहीं जो स्त्रियों को लौह कपाटों के पीछे ढ़केलने और उसे पत्थर की दीवारों की बन्दिनी बनाकर रखने, पति के अवसान के बाद जीते जी जलाकर सती कर देने, न मानने पर स्त्री का मानसिक और दैहिक शोषण करने की पाशविक प्रवृत्तियों थीं। मीरा का सत्याग्रह अपने युग का अनूठा एकाकी आंदोलन था जिसकी वही अवधारक थीं, वही जनक थीं और वहीं संचालक। मीरा ने स्त्रियों के संघर्ष के लिए जो सिद्धांत निर्मित किये उन पर सबसे पहले वे ही चलीं। कार्यक्रम का संचालन अनुज ने किया व धन्यवाद ज्ञापन राजकमल समूह के निदेशक अशोक महेश्वरी ने किया। इस मौके पर साहित्य जगत के बहुसंख्य गणमान्य लोग उपस्तिथ हुए।

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