समरेंद्र सिंह-
पहले “माओवादी” प्रोफेसर साईबाबा की आपराधिक फाइल तैयार की, गिरफ्तार किया, जेल भेजा और अब गुणगान करा रही है कांग्रेस, पाखंडी कहीं के!
दिल्ली के रायसीना रोड पर जवाहर भवन है। इसके सामने शास्त्री भवन है। शास्त्री भवन के बगल में कृषि भवन है। शास्त्री भवन और कृषि भवन में सरकार के कई मंत्रालयों के दफ्तर हैं। जवाहर भवन के एक तरफ भारतीय प्रेस क्लब है। दूसरी तरफ पांच सितारा होटल ली मैरेडियन है। संसद भवन यहां से ढाई सौ मीटर की दूरी पर है। राष्ट्रपति भवन एक किलोमीटर की दूरी पर। ये भारत का सबसे प्रतिष्ठित इलाका है। जवाहर भवन कांग्रेस का दफ्तर है। राहुल गांधी और उनकी टीम यहां पर भी बैठती है। प्रियंका गांधी की टीम भी यहां पर उठती-बैठती है। अपूर्वानंद, मृणाल पांडे, शबनम हाशमी जैसे कांग्रेस पोषित बुद्धिजीवी भी यहां पर भी उठते-बैठते हैं। राजीव गांधी फाउंडेशन वाले भी यहां आते-जाते हैं।
कांग्रेस से जुड़े किसी बुद्धिजीवी को अपनी किताब का विमोचन करना होता है तो वो जवाहर भवन में कराना पसंद करता है। इससे उसे अपनी पसंद की एक तय ऑडियंस भी मिल जाती है। कांग्रेस की राजनीति करने वाले बौद्धिक धड़े में सबको खबर भी हो जाती है। हुजूर के दरबार में कार्यक्रम होगा तो हुजूर को भी खबर लग ही जाएगी। हुजूर तक बात पहुंचाने के लिए अतिरिक्त मेहनत नहीं करनी होगी। उनकी ही परिक्रमा लगा कर जब सब सुख भोगना है तो इससे अच्छी जगह भला और क्या होगी?
लेकिन बात अब आगे बढ़ गई है। दो-तीन दिन पहले प्रतिबंधित नक्सली संगठन सीपीआई (माओवादी) के सदस्य साईंबाबा को मानवाधिकार कार्यकर्ता बता कर उनकी किताब का विमोचन इसी जवाहर भवन में किया गया है। साईबाबा को मानवाधिकार कार्यकर्ता बताने पर रंगनाथ भाई ने एक पोस्ट लिखी तो उनके खिलाफ लोग जहर उगलने लगे। पल भर में सर्टिफिकेट बांटने लगे।
कांग्रेस पोषित बुद्धिजीवियों और समाजसेवियों का ये कमाल का चरित्र है। ये खुद घोषित तौर पर बौद्धिक दलाली करते हैं। भांट बने रहते हैं। झोला उठाते फिरते हैं। मगर दूसरों की स्वतंत्रता, निष्पक्षता, ईमानदारी, चरित्र सब पर सर्टिफिकेट बांटते हैं। दोगले कहीं के।
चलिए इसी बहाने हम भी कांग्रेस और कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के दोगले, पाखंडी, सत्तालोलुप और भोकुस दलाल चरित्र पर एक नजर डाल लेते हैं।
आजादी के वक्त तेलंगाना में हथियारबंद विद्रोह हुआ। उस विद्रोह में वामपंथी शामिल थे। कांग्रेस के युगपुरुष पंडित जवाहर लाल नेहरू की सरकार थी। नेहरू ने सेना भेज कर हजारों विद्रोहियों को मरवा दिया। कई लोग ये संख्या कुछ हजार से लेकर 40-50 हजार तक बताते हैं। उनसे कई गुना अधिक लोग गिरफ्तार किए गए। आंकड़ों का अंतर हो सकता है, मगर ये सबकुछ किताबों में दर्ज है।
आज भी छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और झारखंड में आए दिन वामपंथी हिंसा होती है। सबसे अधिक छत्तीसगढ़ में होती है। वहां पर महेंद्र कर्मा नाम के कांग्रेस के एक बड़े आदिवासी नेता हुए हैं। उन्होंने नक्सलियों/माओवादियों के खिलाफ आदिवासियों का हथियारबंद दस्ता तैयार किया। मतलब दोनों तरफ लड़ने वाले आदिवासी और किसान है। ये संघर्ष लंबे समय से जारी है। महेंद्र कर्मा जिस समय हथियारबंद दस्ता तैयार कर रहे थे, उस समय छत्तीसगढ़ में बीजेपी सरकार थी और केंद्र में कांग्रेस सरकार। दोनों ने महेंद्र कर्मा की मुहिम का समर्थन किया था। कुछ समय बाद कर्मा खुद भी नक्सली हमले में ही मारे गए।
छत्तीसगढ़ में इन दिनों कांग्रेस की सरकार है। वो सरकार भी नक्सलियों/माओवादियों के खिलाफ लड़ाई लड़ रही है। छत्तीसगढ़ में जब बीजेपी की सरकार थी और केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी तब माओवादियों के खिलाफ ऑपरेशन ग्रीन हंट चलाया गया। पी चिदंबरम ने ये ऑपरेशन चलाया। आज केंद्र में बीजेपी की सरकार और प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है। बीजेपी और कांग्रेस दोनों नक्सलियों-माओवादियों के खिलाफ संघर्ष में शामिल हैं। आज भी आए दिन वहां से लोगों के मारे जाने की खबरें आती हैं। मारे जाने वाले सभी इसी देश के नागरिक हैं।
दरअसल कोई भी संप्रभु देश किसी भी हथियारबंद विद्रोह को जायज नहीं ठहरा सकता। उनकी मांग भले ही कितनी भी जायज क्यों नहीं हो, अपने ही देश के विरुद्ध हथियार उठाने के फैसले के बाद सभी मांगे नाजायज हो जाती हैं। उनसे कोई भी बातचीत तभी मुमकिन है जब वो हथियार डाल देंगे।
कांग्रेस की हुकूमत के दौरान एक बड़ी कोशिश हुई थी। चौतरफा दबाव में मनमोहन सरकार ने 2010 में नक्सलियों से बातचीत का फैसला किया। तब माओवादियों के प्रवक्ता और पोलित ब्यूरो सदस्य चेरुकुरी आजाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चिट्ठी लेकर पार्टी में बात करने जा रहे थे। आंध्रप्रदेश (अब तेलंगाना) और महाराष्ट्र की सीमा पर उन्हें ” फर्जी मुठभेड़” में मार दिया गया। चेरुकुरी आजाद के साथ एक पत्रकार हेमचंद्र पांडे की भी हत्या कर दी गई।
तब आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र – दोनोें ही जगह पर कांग्रेस की सरकार थी। देश के कांग्रेसी प्रधानमंत्री की कोशिश कांग्रेसी गृह मंत्री और कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने बर्बाद कर दी।
जाहिर सी बात है कि कांग्रेस का इकोसिस्टम इस समस्या को हल करने की जगह देश की सीमा के भीतर चल रहे इस युद्ध को जारी रखना चाहता है। क्यों – इस पर फिर कभी चर्चा की जाएगी। अभी साईबाबा और कांग्रेस के पाखंड पर ही केंद्रित रहते हैं।
जिन साईबाबा को मानवाधिकार कार्यकर्ता बता कर उनकी किताब का विमोचन जवाहर भवन में कराया गया है, उनकी “आपराधिक” फाइल भी कांग्रेस सरकार के दौरान ही तैयार की गयी थी। साईबाबा को 9 मई, 2014 को दिल्ली में गिरफ्तार किया गया और फिर उन्हें महाराष्ट्र के गढ़चिरौली ले जाया गया। उस समय केंद्र और महाराष्ट्र दोनों ही जगह पर कांग्रेस हुकूमत में थी। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे और पृथ्वीराज चव्हाण मुख्यमंत्री थे।
मगर आज कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व और बुद्धिजीवियों का हृदय परिवर्तित हो गया है। वो भी इतना कि देश की मौजूदा व्यवस्था के विरुद्ध हथियार उठाने वालों की शान में कसीदे पढ़े जा रहे हैं। ये सोचे बगैर कि छत्तीसगढ़ में उनकी सरकार जो लड़ाई लड़ रही है उसका क्या होगा? झारखंड और महाराष्ट्र में उनके सहयोग से जो सरकार चल रही है, उन सरकारों के लिए कितना बड़ा धर्म संकट होगा?
ये भी सोचे बगैर कि जब कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व और उससे जुड़े बुद्धिजीवी नक्सलियों, माओवादियों, उग्रवादियों और आतंकवादियों को नैतिक आधार मुहैया कराने लगेंगे तो फिर देश का क्या होगा? क्या देश मौजूदा स्वरूप में बचा रहेगा? क्या कांग्रेस अपने सियासी फायदे के लिए देश को बर्बाद करना चाहती है? क्या कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व अपने अहम की तुष्टि के लिए भारत को खंडित करना चाहता है?
कांग्रेस को इन सवालों पर अपना नजरिया साफ करना चाहिए।
रंगनाथ सिंह-
कल प्रतिबन्धित उग्रवादी संगठन सीपीआई-माओवादी के सदस्य जीएन साईबाबा की किताब का लोकार्पण ब्रिटेन के बुकर पुरस्कार से पुरस्कृत इंडियन इंग्लिश राइटर अरुंधति राय ने दिल्ली के लुटियंस जोन के रायसीना रोड स्थित जवाहर भवन में किया। साईबाबा नागपुर की जेल में आजीवन कारावास की सजा काट रहा है। उसे अदालत ने यूएपीए के तहत दोषी पाया था। यूएपीए के तहत सजा काट रहे उग्रवादी की किताब के विमोचन की खबर देश की सबसे बड़ी न्यूज एजेंसी पीटीआई ने चलायी और साईबाबा के परिचय में लिखा – जेल में बन्द मानवाधिकार कार्यकर्ता! कॉपी के अन्त में बताया गया कि भाईसाहब यूएपीए के सजायाफ्ता हैं।
साईबाबा दिल्ली यूनिवर्सिटी में इंग्लिश का प्रोफेसर रहा है। उसकी किताब सम्मानित प्रकाशक स्पीकिंग टाइगर ने छापी है। इससे पहले एक अन्य माओवादी विचारक माने जाने वाले कोबाद घांदी की किताब रोली बुक्स ने छापी थी! कोबाद घांदी ने किताब आने के बाद जितने इंटरव्यू दिए उन सबमें उसने जोर दिया कि उसे भारत की पाँच अदालतों ने माओवादी पार्टी से किसी तरह का सम्बन्ध होने के आरोप से बरी किया है। भारतीय न्यायव्यवस्था की ऐसी दुहाई से कोबाद घांदी को जानने वालों की आँखों में आँसू आ गए होंगे!
दलित कैमरा डॉट काम के अनुसार साईबाबा साल 2009 में चले ऑपरेशन ग्रीनहंट के खिलाफ प्रमुख आवाज था। यह अभियान माओवादियों के सफाए के लिए चलाया गया था। उस समय देश में कांग्रेस नीत गठबंधन की सरकार थी और गृहमंत्री पी चिदम्बरम थे जिनके मातहत यह अभियान चलाया गया। कल उसी जीएन साईबाबा की किताब का विमोचन कांग्रेस की माँद जवाहर भवन में हुआ।
अरुंधति जी ने एक बहुत अच्छा उपन्यास लिखा है, छोटी चीजों का देवता। वो भाषा को बरतने में सिद्धहस्त हैं। कई बार आदमी अच्छी भाषा से धोखा खा जाता है इसलिए लेखकों की भाषा के साथ उनका विचार भी परख लेना चाहिए। अरुंधति जी एक बार जंगल में माओवादियों से मिलने गईं तो लौटकर उन्हें ‘बन्दूकधारी गांधीवादी’ बताया था। उस समय सोनिया गांधी यूपीए चेयरपर्सन थीं। यानी मामला गांधी बनाम ‘बन्दूकधारी गांधी’ का था! पता नहीं कल के कार्यक्रम में कांग्रेस ने केवल भवन उपलब्ध कराया था या कोई गांधी भी वहाँ मौजूद था!
अरुंधति जी से कहना चाहूँगा कि भारत उड़ती दिशा में उड़ता विमान है या नहीं, पता नहीं लेकिन दिल्ली में उल्टी गंगा बहुत पहले से बह रही है। यहाँ रहने वाले इंग्लिश राइटर और इंग्लिश प्रोफेसर लोकतंत्र का लाभ लेते हुए सुदूर जंगल में रहने वाले अशिक्षित आदिवासियों को ‘बन्दूकधारी गांधीवादी’ बनाते रहे हैं। यदि साईबाबा और कोबाद घांदी माओ के चीन में होते तो जेल नहीं सीधे जहन्नुम जाते। यह लोकतंत्र की महिमा है कि संसद, राष्टपति भवन से चंद फर्लांग दूर एक सजायाफ्ता उग्रवादी की किताब का विमोचन जवाहर भवन में हो रहा है। देश की सबसे बड़ी समाचार एजेंसी उसे मानवाधिकार कार्यकर्ता बताते हुए खबर चला रही है जिसे बाकी मीडिया हाउस ब्रह्मवाक्य मानकर छाप जा रहे हैं।
खैर, आज इतना ही। शेष, फिर कभी।
मत कहो आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है-
एक सीनियर के शब्दों में कहूँ तो कल मैंने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया। सोशलमीडिया से पहले पाठ-आलोचना जिस तरह से भी काम करती रही हो, अब हम रियलटाइम में देख सकते हैं कि किसी पाठ को पाठक किस तरह ग्रहण करता है। हम यह भी देख सकते हैं कि बहसतलब पाठ किस तरह लिखे जाने के बाद लेखक की चाहना से सर्वथा अलग अर्थ ग्रहण कर सकता है। कल भी यही हुआ।
साक्षर होना और पढ़ना दोनों दो चीजें हैं। मेरा अनुभव है कि ज्यादातर लोग किसी टेक्स्ट को पढ़ते हुए सामने के टेक्स्ट के बजाय अपने दिमाग में चल रहे बैकग्राउण्ड म्यूजिक से तूतू-मैंमैं करते रहते हैं। यह प्रबुद्ध व्यक्ति का लक्षण नहीं है। मैंने आज तक सोशलमीडिया पर ऐसा कोई लेख नहीं लिखा कि जो लिख दिया सो लिख दिया। अनगिनत परिचित-अपरिचित लोगों के फीडबैक पसन्द आने पर उन्हें अपने आलेख में जोड़ा-घटाया है। वैसे ही जैसे कोई अध्येता किसी सेमीनार में पर्चा पढ़ता है और वहाँ आई हुई प्रतिक्रियाओं के आधार पर अपने पर्चे को बेहतर बनाता है। कल की पोस्ट में कुछ बदलाव किए जो सुधी जन को अशालीन लग रहे थे। मैं हमेशा याद रखने की कोशिश करता हूँ कि न मैं ब्रह्मा हूँ, न ब्राह्मण कि जो कह दिया वही ब्रह्मवाक्य है।
कल मेरे कई पाठकों को मुझपर अफसोस हुआ। मैं उन लम्पट लफंगों के अभद्र टिप्पणियों की बात नहीं कर रहा जो छोटे शहरों से दिल्ली आकर क्रान्ति की दलाली करके समाज पर एहसान करते हुए वेलपेड करियर की सीढ़ियाँ चढ़ते रहे हैं। उनके बारे में अलग से लिखा जाएगा। कल कई जेनुइन पाठकों, जिनका दिल्ली की दलाली से कोई वास्ता नहीं है, उन्होंने भी दुख और निराशा जाहिर की। उन्हें जिस बात से तकलीफ हुई वह तो जगजाहिर हो चुकी है। मैं उन्हें बताना चाहूँगा कि मैं किस बात से दुखी हुआ!
मुझे इस बात का गहरा अफसोस हुआ कि हमारे समाज में क्या लेखक की इतनी ही वखत है कि जो एक घण्टे पहले तक ‘प्रिय लेखक’ होता है वही बस एक लेख के बाद अगले घण्टे में किसी पार्टी या नेता या संगठन के हाथों बिक जाता है! ऐसे पाठक अपनी जगह गलत नहीं हैं। उन्होंने अपने जीवन में न जाने कितने लेखकों को एक तरफ बड़ी-बड़ी करते और दूसरी तरफ सत्ता की दलाली करते देखा होगा तो ऐसे में वह यकीन करे भी तो कैसे करे! पाठक के भरोसे की बहाली का दायित्व लेखक पर है ताकि पाठक यह यकीन कर सके कि भले ही उसे अपने लेखक के विचारों से असहमति हो जाए लेकिन उसे यह न लगे कि यह तो बिक गया! पाठक के मन में यह भरोसा लेखक को जगाना होगा कि वह किसी लालच या भय के वशीभूत होकर नहीं लिखता। उसे पाठक को यकीन दिलाना होगा कि वह बेवकूफ हो सकता है, बिकाऊ नहीं।
यह काम मेरे जैसे साधारण लेखक के अकेले वश का नहीं है। मेरा तो लिखने में ही ज्यादा यकीन नहीं रहा। लिखूँ या न लिखूँ, ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। वो तो भला हो कोरोना कि एक दिन मुझे लगा जब इतने लोग मर रहे हैं तो कौन जाने कब मेरा नम्बर आ जाए! लिखने से कुछ नहीं होता तो न लिखने से भी तो कुछ नहीं होता तो क्यों न अपने दिल की कह ली जाए, कौन जाने कल हो न हो। कोई बड़ा मंसूबा भी नहीं बाँधा कि मरने से पहले महाकाव्य लिखकर जाना है। बस इतना ही तय किया कि अब कोशिश करूँगा रोज सुबह दफ्तर शुरू होने से पहले अपनी रुचि के किसी एक विषय पर अपनी राय लिखा करूँ। शायद यह पिछले साल मई की ही बात है। मई फिर आ गई है।
अपने पाठकों को यकीन दिलाना चाहूँगा कि इस दौरान मैंने ऐसे किसी विषय पर नहीं लिखा जो कई सालों से मेरी चिन्ता-चिन्तन का विषय न रहा हो। मैं आमतौर पर एक बैठक में टाइप करता चला जाता हूँ जिसकी वजह से कई बार कुछ भूल-गलती भी हो जाती है। जैसे, हाल ही में जॉन डेपी की पूर्व पत्नी का नाम अम्बर हर्ड की जगह अम्बर रोज लिख गया। डेप की बेटी का नाम लिली रोज है। दिमाग में बीवी और बेटी का नाम मिक्स हो गया! खैर, मुद्दा यह है कि मेरे लिखने के पीछे कोई बड़ी लालसा नहीं है। पिछला एक साल ही मेरे पिछले 20 सालों के जीवन का सबसे खराब साल रहा है। कई महीने ऐसे आए कि मन बस इतना ही कह सका कि किसी के जीवन में वैसे दिन न आएँ। फिर भी मैं लिखने की तरफ लौटा क्योंकि इस श्यामपट के बाहर हम जैसे लोग साधारण कीड़े-मकोड़ों से ज्यादा अहमियत नहीं रखते।
ऐसा भी नहीं है कि मैं किसी अवसाद-हताशा-निराशा में ऐसा कह रहा हूँ। यह जीवन का कटु यथार्थबोध भर है जिसका तिक्त अहसास कुछ लोगो में ज्यादा गहरा जाता है। यूँ ही नहीं काफ्का का सबसे मशहूर पात्र एक दिन सुबह जगा और उसे लगा कि वह एक कीड़े में रूपान्तरित हो गया है! यूँ ही नहीं कोई Jean Paul Sartre अपनी आत्मकथा The Words में लिखता है, “पहले मैं अपनी कलम को तलवार समझता था। अब मैं जान गया हूँ कि हम लेखक शक्तिहीन हैं। किन्तु कोई हर्ज नहीं। मैं अब भी पुस्तकें लिखता रहूँगा। संस्कृति किसी चीज या व्यक्ति की रक्षा नहीं करती। न यह कोई औचित्य प्रमाणित कर सकती है। लेकिन यह मनुष्य से उत्पन्न एक चीज है। मनुष्य इसमें अपने व्यक्तित्व को स्थापित करता है,इसमें अपने को देखता है। यही एक शीशा है जिसमें वह अपनी छवि देख सकता है।”
ऊपर का उद्धरण भी मैंने अभी किताब या इंटरनेट से नहीं निकाला। अपनी प्रोफाइल से सर्च करके निकाला। इसे साल 2011 में यहीं एफबी पर पोस्ट किया था। हो सकता है कि आपके जीवन में मैं नया होऊँ, यह सोच मेरे मन को आज से नहीं घुन रही है। फिर भी कुछ लोग लिखते हैं- आप जल्दबाजी में हैं! रक्त वर्षों से नसों में खौलता है, आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है!
कल की पोस्ट पर कई पाखण्डी उतराए हुए थे। कुछ तो बरसों बाद नजर आए। उनका खसरा-खतौनी तो उनकी तहसील के पेशकार से बात करके चटपट निकल आएगा। मेरी चिन्ता वो आम पाठक हैं जिनका मुझसे किसी तरह का लाभ-हानि का सम्बन्ध नहीं है, न हो सकता है फिर भी वो मुझे पढ़ते रहे हैं। मुझे यकीन दिलाते रहे हैं कि मुझे लिखते रहना चाहिए। उन्हें मैं यकीन दिलाना चाहूँगा कि मैं अपने रीडर के लिए लिखता हूँ, किसी लीडर के लिए नहीं। मेरी राय में लेखक के अक्लमंद और बुद्धिमान, सही-गलत, नैतिक-अनैतिक होने से ज्यादा अहम है कि वह पाखण्डी न हो। ऐसा न हो कि वह सोचता कुछ हो, करता कुछ हो और पब्लिक से कहता कुछ हो। जीवन और जीवन-दर्शन के बीच की फाँक जितनी कम हो, उतनी ज्यादा कम करनी है। हम शैख न लीडर न मुसाहिब न सहाफी, जो खुद नहीं करते वो हिदायत न करेंगे…
यह पोस्ट पर्याप्त लम्बी हो गयी है तो कल जो सवाल मेरे सामने रखे गए हैं उनपर आने वाले पोस्टों में बातें होती रहेंगी। आज नीचे लगी इमेज पर ध्यान दें।
डॉ आम्बेडकर ने यह बात तब कही थी जब केवल एक ही कम्युनिस्ट पार्टी सीपीआई थी। आप माओवादी साईबाबा की पोस्ट पर आई टिप्पणियों की कास्ट-प्रोफाइलिंग कीजिए, उनके करियर औ लोकेशन को लोकेट कीजिए! विचार कीजिए कि इतने सार हिन्दू ब्राह्मण एवं अन्य सवर्ण (मुस्लिम सवर्ण भी) साईबाबा को हैं की जगह है, थे की जगह था लिख देने से क्यों बिफरे हुए हैं? समय हो तो आप इन लोगों की प्रोफाइल पर जाकर देखिए, मुझे शालीनता सिखाने वाले लोग किस-किस के लिए किस-किस तरह की अभद्र भाषा का प्रयोग करते रहे हैं?
मैंने हमेशा सार्वजनिक बहस में संसदीय भाषा बनाए रखने की वकालत की है। आगे भी करता रहूँगा। कल की पोस्ट की जो तर्ज बहुतों को नागवार गुजरी है वो किसी क्रोध या विचलन की उपज नहीं था बल्कि एक सुचिंतित प्रयोग था जिसका परिणाम हमारे सामने है। मैं क्रोध या उत्तेजना में न लिखूँ इसलिए ही रात भर की नींद के बाद सुबह लिखना पसन्द करता हूँ। खैर, अब तो लगता है कि कल जो बात निकली है दूर तलक जाएगी….तो इस बात की अगली कड़ियाँ भी आएँगी।
जब डॉ आम्बेडकर जीवित थे तो देश में एक ही कम्युनिस्ट पार्टी सीपीआई थी। उसके बारे में आपने आम्बेडकर के विचार सुबह की पोस्ट में देखें होंगे। देश की दूसरी कम्युनिस्ट पार्टी और इस वक्त की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी सीपीएम के बारे में नीचे तस्वीर में दिख रहा आलेख चार साल पहले छपा था।
इस साल सीपीएम ने छुतका छुड़ाते हुए एक दलित को पार्टी की सबसे ऊँची सभा पोलित ब्यूरो में जगह दी है। एक नारीवादी वेबसाइट आज शाम इस बात पर भी चर्चा कर रही है कि कम्युनिस्ट पार्टियों में आज तक कोई महिला महासचिव क्यों नहीं बनी और सभी प्रमुख पार्टियों को मिलाकर 98 साल में केवल एक दलित को यह सौभाग्य क्यों मिल पाया!
साईबाबा वाली पोस्ट पर आई टिप्पणियों के जातिगत चरित्र की तरफ एक ब्राह्मण मित्र ने ही ध्यान दिलाया। पोस्ट से बिदकने वाले ज्यादातर लोग सवर्ण हैं और उनमें ज्यादातर ब्राह्मण। कुछ मित्र, इसे संयोग बताते हैं लेकिन यह कैसा संयोग है जो 1925 में सीपीआई की स्थापना से शुरू होकर 1964 में सीपीएम की स्थापना तक जारी रहता है और 2018 में लेख लिखा जाता है कि पोलित ब्यूरो में कोई दलित क्यों नहीं है!
मामला केवल कास्ट-इलीट का नहीं है। मामला, कास्ट-इलीट के साथ-साथ, क्लास-इलीट, जेंडर-इलीट, लोकेशन-इलीट और लैंग्वेज-इलीट होने का भी है। कोई बता सकता है कि प्रकाश करात और सीताराम येचुरी के पास वह कौन सा ब्रह्म-ज्ञान था जिसकी वजह से वो जेएनयू की छात्र राजनीति करके पार्टी महासचिव पद तक पहुँचे लेकिन उनकी ही पार्टी में दूसरे लोग जो चुनाव जीतते रहे उनका करियर-ग्राफ इन लोगों जैसा नहीं है।
बात-बात में जात-बाहर कर देना और खुद को पवित्र और दूसरे को पापी ठहरा देना ब्राह्मणवादी मानसिकता है। कल जिन लोगों ने मुझपर तोहमत मढ़ने में खुद को गौरवान्वित महसूस किया, उनकी जाति के साथ ही उनकी वर्गीय स्थिति भी देखनी चाहिए या नहीं देखनी चाहिए? इनमें ज्यादातर जीने-खाने के जोड़-जुगाड़ में लगे महत्वाकांक्षी मध्यमवर्गीय लोग हैं और इनकी प्रिय लेखिका इलीट अरुंधति राय हैं! यह जनवाद की कैसी दुर्गति है?
जो लोग मुझसे पूछते हैं कि मेरी राजनीति क्या है उन्हें कभी अरुंधति से भी पूछना चाहिए कि पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है? सभी तरह की सत्ताओं के खिलाफ लिख-पढ़कर भी तुम इलीट कैसे बनी हुई हो! जिन लोगों की कुबुद्धि पर तुम तरस खाती हो उस अवाम से सौ गुना बेहतर जीवन कैसे जीती हो?
क्रान्ति की बातें करने के साथ ही आदमी की बरकत होती रहे तो दुनिया बदलने का रूमान कौन नहीं पालना चाहेगा? अरुंधति राय का पूरा करियर पूँजीवादी लोकतंत्र का खड़ा किया हुआ है। उन्हें जितना अमेरिका जाते देखा है उतना रूस, चीन या क्यूबा जाते नहीं देखा! ‘मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ से पहले तक अरुंधति की जितनी किताबें आई हैं, पढ़ी हैं। उनके ज्यादातर लेख भी पढ़े हैं। सच कहूँ तो मुझे आज तक नहीं पता चला कि उनकी ठीकठीक राजनीति क्या है? अगर उनका कुल मकसद डेमोक्रेसी को सबवर्ट करना ही है तो फिर क्या हमें उनके और आम्बेडकर के बीच किसी एक को चुनना नहीं होगा? क्या हमें माओवाद और लोकतंत्र के बीच एक को चुनना नहीं होगा?
खुद को जनवादी समझने वालों को अरुंधति जैसे कास्ट, क्लास, लोकेशन और लैंग्वेज इलीट के रूमानी मोह से निकलने पर विचार करना चाहिए। अरुंधति अरुंधति करने से आप अपने आसपास के लोगों से सुपीरियर नहीं हो जाएँगे। एक समय था कि अरुंधति की न्यूज-क्रिएटर के तौर पर काफी वैल्यू थी। सोशलमीडिया ने उसे भी खत्म कर दिया। आज कोई अमेरिकी सिंगर, जर्मन फुटबॉलर या अमेरिकी टेनिस स्टार भारत से जुड़े मुद्दों को न्यूजी बनाने में उनसे ज्यादा सक्षम है।
और हाँ, 1925 से कम्युनिस्ट पार्टी में जो संयोग शुरू हुआ, 1964 तक जारी रहा वह उसके बाद भी किस तरह प्रबल रहा उसके बारे में आने वाली पोस्ट में लिखा जाएगा। तब तक आप इसपर विचार जरूर करें कि कोई संयोग 1925 से 2022 तक लगातार बना हुआ है तो क्या यह महज संयोग है?
साईबाबा या अरुंधति के बारे में मैंने जो भी लिखा, उसमें कुछ नया नहीं है। मेरे करीबी दोस्त, जिनके पास प्रतिबद्ध कामरेड होने का सर्टिफिकेट भी है, उनसे इसकी तस्दीक की जा सकती है। एक दशक से पहले वरवर राव जब जामिया आये थे तो मैंने उनसे माओवादी पार्टी के तालिबान पर स्टैण्ड को लेकर सार्वजनिक रूप से सवाल किया था। उनका वही पिटा-पिटाया जवाब था- अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ लामबन्दी! अब तो लोग भूलने भी लगे हैं कि दशकों बाद हमारी पीढ़ी एक कम्युनिस्ट माओवादी क्रान्ति की गवाह बनी थी। वह क्रान्ति कहीं दूर नहीं हुई हमारे पड़ोस नेपाल में हुई। एक समय तक जो भूमिगत प्रचण्ड एक रूमानी क्रान्ति नायक लगते थे वही प्रचण्ड जब सफल क्रान्ति के बाद भूमिऊपर हुए तो क्या हुए, यह सभी रूमानी वामपंथियों को पता है। अतः माओवाद बनाम लोकतंत्र का सवाल, न तो आज का सवाल है और न फौरी मनोरंजन का सामान है।
समस्या यह है कि हमारा समाज पाखण्ड-प्रिय समाज है। आप सोचते कुछ रहिए, करते कुछ रहिए और कहते कुछ और रहिए। हमारे दो मित्रों, जो इस समय दो समादृत क्रान्तिकारी संस्थानों में पत्रकार हैं, ने कुछ साल पहले मुझसे एक मार्के की बात कही थी- आपकी प्राब्लम ये है कि आप पोलिटिकली करेक्ट नहीं रहते!
पिछले डेढ़ दशक में दिल्ली में हमने यही जाना-समझा है कि आप यहाँ पोलिटिकली करेक्ट रहकर नेम-फेम-मनी सबकुछ हासिल कर सकते हैं। एक वक्त तक कुछ और चेहरे पोलिटिकली करेक्ट रहकर सुर्खरू होते रहे, इस वक्त में कुछ और चेहरे उसी फार्मूले से सफल हो रहे हैं। नतीजतन पुराना लाभार्थी समूह बिलबिला-बिलबिला कर नए लाभार्थी समूह की मेरिट को लेकर तूतू-मैंमैं करता रहता है। पुराने लाभार्थी समूह का दावा है कि नये लाभार्थी समूह की मेरिट कम है। हो सकता है कई मामलों में यह सच हो लेकिन पुराना लाभार्थी समूह इस बात का जवाब क्यों नहीं देना चाहता कि वह किस मेरिट-सिस्टम से सिस्टम का लाभार्थी बना था?
एक उम्र तक लगता था कि आदमी नेम-फेम-मनी से प्रतिभा या अध्ययन या चिन्तन की भरपाई नहीं कर सकता लेकिन अब ऐसा नहीं लगता। ऐसी सोच भावुकतावादी डिफेंश मैकेनिज्म से ज्यादा कुछ नहीं है। आह को चाहिए एक उम्र असर होते तक , कौन जीता है तेरे जुल्फ के सर होते तक। एक्शन स्पीक्स लाउडर दैन वर्ड्स तो हमें आदमी कह क्या रहा है, उससे ज्यादा यह देखना चाहिए कि वह क्या कर रहा है! आपने पूरा सिस्टम ऐसा बना रखा है जिसमें अयोग्य और अनैतिक लोग ही ऊपर जाते हैं। आप क्यों चाहते हैं कि हम पूरे सिस्टम को 19वीं सदी की सोच के तहत लेफ्ट-राइट की बाइनरी में देखें। हम क्यों न इस पूरे सिस्टम को स्ट्रक्चरली डिकंस्ट्रक्ट करके देखें? यदि आप कह सकते हैं कि काऊ होली नहीं है तो क्या हम यह नहीं पूछ सकते कि कहीं ऐसा तो नहीं कुछ और व्यक्ति, समूह, संस्था, पार्टी, विचारधारा सिस्टम में होलीकाऊ बन चुके हैं?
बुद्धिजीवी चुनाव नहीं लड़ता, न जितवाता है। यदि आपकी पार्टी चुनाव हार रही है तो इसका ठीकरा हमारे जैसों के सिर क्यों फोड़ते हैं! हमारे जैसे और हमसे बेहतर हजार आपके पास हैं फिर भी आप हम जैसों को कठघरे में खड़े करने के लिए झुण्ड बनाकर टूट पड़ते हैं कि फासीवाद आ जाएगा! आप उनसे क्यों नहीं पूछते जिन्हें आपने मोटी तनख्वाह वाली सरकारी, एनजीओ और कार्पोरेट नौकरियाँ दिलवायीं कि तुम्हें जो जनमानस तैयार करने की जिम्मेदारी दी गयी थी उसका क्या हुआ? आपके सिस्टम द्वारा वित्तपोषित पोलिटिकली करेक्ट बुद्धिजीवी समाज को कौन सी दिशा देते रहे कि समाज इस मोड़ तक आ गया! आप आत्ममंथन करेंगे इसकी उम्मीद भी अब छूटती जा रही है। यह साफ हो चुका है कि ब्लेमगेम खेलकर नाखून कटाकर आपकी आत्मा को चैन मिल जाता है। आपके पास नवोन्मेषी चिन्तन बचा नहीं है, बस झौआ भर घिसापिटा बासी जार्गन बचा है जिसे आप हर आलोचक के सिर पर उड़ेल देते हैं।
कुछ लोगों को साईबाबा के लिए हैं की जगह है, थे की जगह था, लिखना बहुत बुरा लगा। इनमें से कुछ लोग इस बात के गवाह हैं कि मेरी उनसे इस बात पर हमेशा बहस हुई है कि हमें लिखते समय संसदीय भाषा का प्रयोग करना चाहिए लेकिन इनमें से ज्यादातर लोग ‘भावनाओं की अभिव्यक्ति’ ‘चूतिए को चूतिया नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे’ टाइप दलील देते रहे हैं। इतना ही नहीं एक जमाने में मोहल्ला ब्लॉग पर अनुराग कश्यप जैसे फिल्मकारों द्वारा गाली को प्रमोट किए जाने पर भी बहस हुई थी। तब भी मेरा यही स्टैण्ड था और मुझे इसी तरह के जवाब मिले थे। जरा सोचिए, जो लोग दूसरों के लिए गालीगलौज वाली भाषा इस्तेमाल करने को जायज ठहराते रहे हैं, वो महज है और था से हिल गये। उस पोस्ट में जो बात सुधी जन को नागवार गुजरी है, उसमें कोई एंगर नहीं था, वह एक एक्सीपेरिमेंट था जो सफल रहा। नतीजा, सामने है।
जो सरापा बिगड़े हुए हैं उन्हें भी उस पोस्ट का लहजा नागवार लगा! कुछ लोग तो मुँह से पखाना कर गये! ऐसा नहीं है कि वो पहली बार मेरी वॉल पर बेहिजाब हुए हैं। मुँह से पखाना करने की उनकी काबिलियत को जमाना जानता है। आज मेरे दरवाजे पर उनकी तशरीफ सार्जवनिक हुई, इतनी सी बात है।
कोई भी देख सकता है कि परशुराम पर पोस्ट लिखकर उतनी विषैली प्रतिक्रिया नहीं मिलीं जितनी साईबाबा-अरुंधति राय पर लिखने से मिल गईं! लोगों की टिप्पणियों से ऐसा लगा जैसे मैंने कोई ईशनिन्दा कर दी हो! मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि हिन्दी समाज में ईश्वर से बड़े ईश्वर कैसे खड़े हो गए? अगर एक इंग्लिश लेखिका पुरी दुनिया को कठघरे में खड़ा करने का हक रखती हैं तो एक हिन्दी लेखक क्या उन्हें कठघरे में नहीं खड़ा कर सकता! कुछ हिन्दी वालों का सोचना चाहिए कि कहीं वो कोलोनियल स्लेव माइंडसेट के शिकार तो नहीं हैं!
उस पोस्ट का लहजा कई ऐसे लोगों को भी नागवार गुजरी है जिनकी मैं बहुत कद्र करता हूँ। उन सभी से यह कहना है कि हम तो जब से दिल्ली आए हैं, अपना लहजा दुरुस्त करवा रहे हैं। काफी दुरुस्त हो गया है, यूँ ही चलता रहा तो आने वाले सालों में और दुरुस्त हो जाएगा। यहाँ यही सीखा है, मुद्दा बड़ा नहीं है, लहजा बड़ा है। लहजा इतनी बड़ी चीज है कि बड़े-बड़े सवाल और लोग, अवांछित लहजे के कारण किनारे लगा दिये गये। लहजा इतनी बड़ी चीज है कि जिनको हिन्दी का ह और पत्रकारिता का प नहीं आता था वो भी ज़ और फ़ बोलकर लाखों की सैलरी उठाते रहे और हिन्दीवालों की मीडियाक्रिटी पर तरस खाते रहे। लहजा चाहे जितना भी अवांछनीय हो, मेरा इतना ही कहना है- यह व्यवस्था आपकी बनायी हुई है। इस खेत में जो भी फसल लहलहा रही है, इसकी जुताई-बुवाई, निराई-गुड़ाई आपने की है। पुरनिए यूँ नहीं कह गए, बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होए…