डॉ. भूपेंद्र बिष्ट-
चार – पांच दशक पुरानी बात को एक ज़माना हुआ करता था करके नहीं कह सकते पर वह समय कुछ और ही था, यह याद करते हुए बहुत दिनों की बात ज़रूर लगती है.
हर घर में धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कथा – कहानी पढ़ने के शौकीन लोगों के बीच सारिका, समाचार – विचार की तरफ़ रुझान रखने वालों के लिए दिनमान और रविवार जैसी पत्रिकाएं जीवन शैली/ व्यवहार का अनिवार्य हिस्सा हुआ करती थी. इन्ही के समानांतर लघु पत्रिकाओं की भी अपनी जबर्दस्त रसाई थी.
लघु पत्रिकाओं की अभिधा वाली व्याख्या यद्यपि ढंग से और सकल अर्थों में अभी सामने आ न सकी है तथापि लघु पत्रिका शब्द की लक्षणा ( महत्व ) और व्यंजना ( मक़सद ) सदा से स्वीकार्य रही है. 1947 में अज्ञेय की “प्रतीक” से लेकर ज्ञानरंजन की “पहल” सरीखे लाइट हाउस बीत चुकने के बाद भी रोशनी दे रहे हैं !
स्थापित और अब भी निकल रही अज़मत वाली गैर व्यवसायिक पत्रिकाओं की लंबी सूची पर न भी जाएं तो इधर “कृति बहुमत” ( विनोद मिश्र ) और “अन्विति” (राजेंद्र दानी ) जैसी कुछ पत्रिकाओं की चमक देखते ही बन रही है.
इस क्रम में रवीन्द्र श्रीवास्तव के संपादन में मेरठ से प्रकाशित होने वाली त्रैमासिक पत्रिका “अविलोम” भी ध्यान खींचती है. इसका ताज़ा अंक दोहा विशेषांक के रूप में आया है.

अंक में विनोद कुमार गुप्त “भावुक” का आलेख ‘ दोहा : अल्प में अनंत ‘ दोहे पर अच्छी और सम्पूर्ण सामग्री कही जा सकती है. पहले छंद के प्रकार फिर भेद, तदंतर मात्राओं का नियोजन और मात्राओं का लघु एवं गुरु वर्गीकरण बताया गया है. खुसरो की पहेलियों, कबीर – तुलसी – बिहारी – रहीम और रसखान के कालजयी दोहों के साथ 15 चयनित रचनाकारों के दोहे भी पढ़े जाने योग्य हैं. युद्ध की विभीषिका और तलछट पर राम नगीना मौर्य की कहानी ‘सबाऊन’ ( भोर का उजाला ) बढ़िया कहानी है. अंक में राघवेंद्र शुक्ला का बनारस पर उम्दा शहरनामा भी है.
दिनों दिन जब मुख्य धारा का मीडिया लोगों के दुःख, मसाइल से विलग होता जा रहा है और एक दूसरे ही एजेंडा के लिए काम करता नज़र आने लगा है तो विचारहीनता के इस संकट में चेतना को पैना किए रहने के वास्ते ऐसी पत्रिकाओं की आवश्यकता ज्यादा महसूस की जा सकती है.