जब अल्ला सब जगह है तो मक्का-मदीना जाने की ज़रूरत क्या है!
अभिव्यक्ति की आजादी में राइट टू ऑफेंड एक शानदार अधिकार है। इसका सम्मान होना चाहिए। एकमात्र यही अधिकार है जो धर्मों के आधिपत्य को चुनौती देता है। एकमात्र इसी अधिकार से हम ईश्वर और अल्लाह को नकार करके, उनके वजूद को चुनौती देकर, उनकी पवित्र संतानों के पाखंडों पर से पर्दा उठाकर भविष्य की संभावनाओं को जिंदा रख सकते हैं। यह आजादी भारत में भी मिलनी चाहिए।
-समरेंद्र सिंह-
इस देश में एक तबका राम की पूजा करता है। राम के खिलाफ लिखने से उसकी भावना आहत होती है, तो क्या राम के गुनाहों की चर्चा नहीं होगी? इस देश में एक तबका परशुराम का भक्त है। परशुराम पर नस्ली नरसंहार का आरोप है। यह लिखने से उन लोगों की भावना आहत होती है तो क्या वो लिखना छोड़ दिया जाए? इस देश में एक तबका कृष्ण का भक्त है। कृष्ण ने ईश्वर होते हुए भी करोड़ों बेकसूरों को मरवा दिया था। युद्ध जीतने के लिए छल किए, छल को जायज ठहराया। यह लिखने से उन लोगों की आत्मा छलनी होती है तो क्या यह लिखना बंद कर दिया जाए?
भावनाओं का क्या है। ये आहत होती रहती हैं। बात-बात पर आहत होती हैं। और ये व्यक्तिगत भावनाएं नहीं हैं। यहां किसी की निजी आलोचना नहीं हो रही है। यह धर्म और पंथ की भावनाएं हैं। यह भावनाएं भी कुछ भावनाओं को आहत करके ही खड़ी की गई हैं। जब इन्हें यह अधिकार था कि ये दूसरों की भावनाओं को आहत करके अपना वजूद और जमीन तैयार कर सकें तो फिर दूसरों को यह अधिकार क्यों नहीं मिलना चाहिए?
इस्लाम का विस्तार कोई प्रेम में नहीं हुआ है। तलवार की नोक पर विस्तार हुआ है। आज भी पैसे और ताकत के जोर पर ये दूसरों का धर्म परिवर्तन कराते हैं। सऊदी अरब ने अल कायदा की फंडिंग की और लाखों लोगों को मरवा दिया। कतर ने हमस और हिजबुल्ला की फंडिंग की। बहरीन, संयुक्त अरब अमीरात, पाकिस्तान – इन सभी इस्लामिक देशों ने दुनिया में आतंकवादियों को फंडिंग दी और उन्हें खड़ा किया। सऊदी के शाही घराने अल सौद और वहाबियों की साठगांठ ने इस्लाम की विविधता नष्ट कर दी है। सैकड़ों सूफी संतों के मजार तोड़ दिये, ऐतिहासिक मूर्तियां ध्वस्त कर दीं। किताबें जलाईं। सारे कुकर्म किए। और यह सब पैगंबर और अल्लाह के नाम पर हुआ। तो क्या उनके बारे में लिखना बंद कर दिया जाए?
रही बात पैगंबर की तस्वीरों की तो, पैंगबर की अनेक चित्र बनाए गए हैं। और यह सब इंटरनेट पर मौजूद हैं। वहाबी और इस्लाम का एक तबका अमूर्तिवाद की बात करता है। मक्का और मदीना अपने आप में मूर्त प्रतीक है। जब अल्लाह सब जगह है तो फिर मक्का और मदीना जाने की क्या जरूरत है? उसे भी तोड़ देना चाहिए।
फ्रांस के पाखंड की बात करने वाले इस्लाम और इस्लामिक देशों के पाखंड की बात नहीं करते हैं। आतंकवाद को बढ़ाने में अमेरिका और यूरोप की बात करने वाले खाड़ी देशों की भूमिका पर बात नहीं करते हैं। वहां पर उन्हें ये देश इनोसेंट नजर आते हैं। उसके बाद जाना भी अमेरिका और यूरोप ही है। नागरिकता भी वहीं की चाहिए। वहां की नागरिकता चाहिए मगर वहां की संस्कृति नहीं चाहिए। वहां का वैल्यू सिस्टम नहीं चाहिए। वो अपना चाहिए। वहां की भाषा भी नहीं चाहिए। वो अपनी चाहिए। पहनावा भी अपना चाहिए।
फिर जाने की क्या जरूरत है? अगर इतना ही अच्छा धर्म है और इतनी ही आजादी है तो फिर अपने ही मुल्क में क्यों नहीं रहते हैं? और अधिक से अधिक जाने का मन करे तो अरब देशों में जा कर नागरिकता क्यों नहीं ले लेते हैं? क्योंकि वो देंगे नहीं। वो एम एफ हुसैन को बुलाकर एक मुल्क को अपमानित करने के लिए नागरिकता दे देंगे लेकिन किसी सुलेमान, किसी अंसारी को नागरिकता मांगने पर भी नहीं देंगे। इससे उनकी प्योर अरब ब्रीड गड़बड़ा जाएगी।
अभिव्यक्ति की आजादी में राइट टू ऑफेंड एक शानदार अधिकार है। इसका सम्मान होना चाहिए। एकमात्र यही अधिकार है जो धर्मों के आधिपत्य को चुनौती देता है। एकमात्र इसी अधिकार से हम ईश्वर और अल्लाह को नकार करके, उनके वजूद को चुनौती देकर, उनकी पवित्र संतानों के पाखंडों पर से पर्दा उठाकर भविष्य की संभावनाओं को जिंदा रख सकते हैं। यह आजादी भारत में भी मिलनी चाहिए। क्योंकि इस दुनिया में कोई भी ऐसा पवित्र मठ नहीं है जिसके नाम पर जुल्म नहीं हुए हैं। और उन जुल्मों के लिए उन मठों को, उन पैगंबरों को और उनके खुदाओं को कठघरे में खड़ा करने की जरूरत है। वह किया जाना चाहिए। जो आहत होता है वो होता रहे।