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सियासत

संघियों ने इन दिनों गदर काट रखा है, ये ससुरे चैन से जीने नहीं देंगे!

Samarendra Singh : हम देश को बुत नहीं बनने देंगे… नए साल पर संकल्प लिया था कि फेसबुक पर कम समय दूंगा. इससे कई फायदे होते. अपना समय बचता. उस बचे हुए समय में कुछ अच्छा पढ़ लेता. कुछ अच्छा सुन लेता. और नहीं तो कम से कम अच्छी तरह सो लेता. वैसे तो सोना हर मौसम में बहुत अच्छा काम है. मगर सर्दियों में रजाई के भीतर सिकुड़ कर सोने की बात ही कुछ और है. इससे जिस्म गर्म रहता है और दिमाग ठंडा.

लेकिन इन दिनों संघियों ने गदर काट रखा है. ये ससुरे चैन से जीने नहीं देंगे. मेरा संकल्प एक हफ्ते भी नहीं टिक सका. मुझे फिर से इसी नामुराद फेसबुक पर आना पड़ा. जुकरबर्गवा मेरी वजह से थोड़ा और अमीर हो जाएगा. खैर…

तो आखिर मसला है क्या? फैज का इस्लामिक होना है? नहीं. फिर क्या है? फैज का हिंदू विरोधी होना? हां. क्या फैज सच में हिंदू विरोधी थे? नहीं.

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बहुत से लोगों को यह शिकायत रही है कि इस्लामिक बुद्धिजीवी भी अल्लाह-अल्लाह करने लगते हैं. ये एक शिकायत है और बहुत बार शिकायत की कोई वाजिब वजह नहीं होती. शिकायत जानकारी के अभाव में भी हो जाती है. और यह शिकायत मुझे भी है. मैं अपने जिन मुसलमान दोस्तों को देखता-पढ़ता हूं, उनमें से किसी ने भी कभी इस्लाम की धर्मसत्ता को चुनौती नहीं दी है. सुनियोजित तरीके से तो कतई नहीं दी है. इस्लाम की कट्टरता का कभी खुलकर विरोध नहीं किया है. लेकिन वो लगातार इस बात से चिंतित रहते हैं कि हिंदू धर्म की उदारता न खत्म हो जाए. जैसे ही दूसरे धर्मों के कट्टरपंथी हावी होते हैं इनकी बेचैनी बढ़ जाती है. वो ये समझते ही नहीं कि अपने धर्म को उदार बनाएंगे तो दूसरे धर्म भी उदार बनेंगे. वरना सब उनकी ही तरह हो जाएंगे. वो ये समझते तो दुनिया आज सुंदर होती.

कुछ साल पहले की बात है. प्रेस क्लब में सआदत हसन मंटो पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया जाना तय हुआ था. एक छोटी सी समिति बनी. मैं भी उस समिति में था. बैठक हो रही थी और लोगों ने पाकिस्तान के साहित्यकारों और पत्रकारों को बहुत बड़ा बना दिया और कहा कि पाकिस्तान में इतना कुछ हो रहा है और भारत के साहित्यकार ऐशोआराम में जुटे हैं. मैंने उसी समय उनसे पूछा कि हाल फिलहाल में भारत का कौन-कौन सा साहित्य पढ़ा है आपने. कोई चर्चित उपन्यास पढ़ा है क्या? किसी ने कोई चर्चित उपन्यास नहीं पढ़ा था. सब प्रेमचंद से आगे बढ़ ही नहीं पाए थे. फिर मैंने पूछा कि अगर पाकिस्तान में इतनी ही बड़ी क्रांति हो रही है तो वहां अल्पसंख्यकों पर इतना जुल्म क्यों हो रहा है? वह देश इस्लामिक देश कैसे बन गया? वहां तालिबान कैसे खड़ा हो गया?

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दरअसल, सत्ता तीन तरह की होती है. राज सत्ता, अर्थ सत्ता और धर्म सत्ता. अगर तीनों अलग-अलग चलें और एक दूसरे के काम में दखल नहीं दें तो कोई दिक्कत नहीं हो. लेकिन ऐसा होता नहीं है. चूंकि शासन का अख्तियार राज सत्ता को होता है. नियंत्रण उसके हाथ होता है. इसलिए धर्म सत्ता और अर्थ सत्ता भी राज सत्ता पर नियंत्रण की निरंतर कोशिश करती हैं. जब उनका कंट्रोल शासन पर हो जाता है तो समाज की उदारता, विविधता नष्ट होने लगती है.

इसलिए बुद्धिजीवियों को राज सत्ता को चुनौती देने के साथ-साथ धर्म सत्ता और अर्थ सत्ता को भी लगातार चुनौती देनी चाहिए. धर्म को उदार बनाए बगैर, अल्लाह, ईश्वर और गॉड की अवधारणा को चुनौती दिए बगैर, कुरान, गीता (हिंदू धर्म की कोई एक किताब नहीं है, यहां गीता का उल्लेख सिर्फ संदर्भ के लिए है) और बाइबिल जैसी दैवीय पुस्तकों, दैवीय साहित्य को चुनौती दिए बगैर – इंसान मुक्त नहीं हो सकता. इस्लामिक बुद्धिजीवी राज सत्ता को, निजाम को चुनौती तो देते हैं, लेकिन धर्म सत्ता को नहीं देते. जिन थोड़े से लोगों ने ये कोशिश की है उन्हें इन्होंने “इकबाल” और “तस्लीमा नसरीन” बना दिया है.

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तो फैज भी धार्मिक व्यक्ति थे. अल्लाह पर यकीन रखते थे. लेकिन लोकतांत्रिक थे. यह मुमकिन है. कोई धार्मिक व्यक्ति लोकतांत्रिक हो सकता है. उसे शराब पसंद हो सकती है. उसे सूअर और गाय का मांस भी पसंद हो सकता है. वो सेक्सुअल स्तर पर आजाद ख्याल का हो सकता है. और यह सबकुछ होते हुए भी धार्मिक हो सकता है. तो फैज भी धार्मिक थे. अल्लाह पर उनका यकीन था. इसलिए उन्होंने लिखा कि “बस नाम रहेगा अल्लाह का”.

अब लौटते हैं अपने मूल सवाल पर. फैज का धार्मिक होना, उनका हिंदू विरोधी होना कैसे है? यह किस गदहे ने कहा कि वो हिंदू विरोधी थे और उनकी वो ऐतिहासिक नज्म हिंदू विरोधी है? सांप्रदायिक है?

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साहित्य में प्रतीकों का इस्तेमाल होता है. सिर्फ साहित्य ही क्यों धर्म की सत्ता भी प्रतीकों के सहारे चलती है. आखिर शिव लिंग है क्या? शिव हैं क्या? बच्चे के धड़ पर हाथी का सिर लगा देने पर जो अजीब का जीव तैयार होता है और जो जरा भी वैज्ञानिक नहीं है… वो गणेश हैं क्या? ये शेषनाग, ये दुर्गा, ये काली, ये गंगा, ये विष्णु, ये ब्रह्मा – ये सब आखिर हैं क्या? ये सब प्रतीक ही हैं न. तो प्रतीकों को पूजने वालों को किसी दूसरे धर्म के प्रतीकों से इतना एतराज क्यों है भई? वो अपने यहां के धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल करके अपनी ऑडियंस को समझाने की कोशिश कर रहे थे तो आपको इसमें हिंदू विरोधी क्या लगता है?

इन्हें बुत और अल्लाह शब्द से दिक्कत है. सारा झगड़ा ही अल्लाह, गॉड और ईश्वर का झगड़ा है. ये तीनों शब्द अलग-अलग हैं. तीनों तीन धर्म हैं. तीन समाज हैं. तीन संस्कृति हैं. तीन जीवन पद्धति हैं. कोई आजाद ख्याल मगर धार्मिक और धार्मिक मगर धर्मनिरपेक्ष लेखक जब इन शब्दों का इस्तेमाल करता है तो वह सर्वशक्तिमान की ओर इशारा कर रहा होता है. उस सर्वशक्तिमान की ओर जिसने इस युनिवर्स की रचना की और जिसकी शक्ति से यह संचालित होता है. लेकिन धर्म के धंधेबाज इन शब्दों का इस्तेमाल उसके शाब्दिक अर्थ में करते हैं. वो स्पष्ट हैं कि अल्लाह का मतलब गॉड और ईश्वर नहीं होता. अल्लाह का मतलब अल्लाह ही होता है. और इस दौर में वो यह स्थापित करने में कामयाब हो रहे हैं. उन्होंने पूरे समाज की सोच कुंठित कर दी है.

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आखिर में, जब व्यक्ति की चेतना मर जाती है, सोच कुंद हो जाती है, विचार विकृत हो जाते हैं, दिल संकीर्ण हो जाता है तो वह बुत बन जाता है. फिर उसे बुतों के उठवाने से दिक्कत होने लगती है. वह ईश्वर और बुत में भेद नहीं कर पाता. मतलब उनका ईश्वर तो बुत था ही और अब ये भी बुत बन गए हैं. इन बुतों को यह लग रहा है कि फैज ने इन्हें और इनके ईश्वर को उठाने की बात कही है. ये बुत चाहते हैं कि पूरा देश इनकी तरह बन जाए. और हम अमन पसंद लोग ऐसा होने नहीं देंगे. हम देश को बुत नहीं बनने देंगे.

वरिष्ठ पत्रकार समरेंद्र सिंह की एफबी वॉल से.

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0 Comments

  1. देवीलाल शीशोदिया

    January 10, 2020 at 6:55 pm

    माना कि फैज हिंदू विरोधी नहीं थे पर आज जो उनका इस्तेमाल हो रहा है वह हिंदू विरोध के लिए हीं है इसमें शक नहीं होना चाहिए। किस मौके पर आप क्या कुछ और कैसे इस्तेमाल करते हैं वह तो आपके इरादे जाहिर कर देता है। हम तो ईश्वर अल्ला तेरो नाम बचपन से ही कहते आ रहे हैं परंतु मुस्लिम भी ऐसा मानते हैं यह गलतफहमी और वहम था जो अब ज्यादातर लोगों का मिट गया है।

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