कैमरे की चमक। सितारों की चकाचौंध। हर नजर रेखा और सचिन की तरफ। याद कीजिये तो 2012 में संसद के भीतर रेखा और सचिन तेदूलकर को लेकर संसद का कुछ ऐसा ही हाल था। तो क्या संसद की चमक भी इनके सामने घूमिल है। जी बिलकुल। आवाज कोई भी उठाये। कहे कोई भी कि संसद में ना तो सचिन तेदुलकर दिखते हैं और ना ही रेखा। लेकिन संसद के हालात बताते है कि यहां हर दिन पहुंच कर भी कोई काम नहीं हो पाता है और सैकड़ों सांसद ऐसे हैं, जिन्हें जनता ने चुना है लेकिन वह ना तो कोई सवाल पूछते हैं। ना चर्चा में शामिल होते है। खासकर मोदी सरकार बनने के बाद तो लोकसभा में जो सांसद हमेशा हर मुद्दे पर अपनी राय रखने में सबसे आगे रहते थे वह सांसद भी खामोश है।
आलम यह है कि लालकृषण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी तक सोलहवीं लोकसभा में कभी बोलते देखे ही नहीं गये। आडवाणी और करिया मुंडा समेत समेत बीजेपी के दर्जनभर से ज्यादा सांसद ऐसे हैं, जिनकी हाजिरी सौ फीसदी रही लेकिन ना तो चर्चा में हिस्सा लिया ना ही कोई सवाल खड़ा किया। मसलन, बीजेपी के लीलाधाराबाई खोडजी, नीलम सोनकर, प्रभात सिंह, रमेश बैस, रमेश चन्द, रमेश चंदप्पा, राजकुमार सिंह, अशोक कुमार दोहारे, जनक राम आदि।
आप कह सकते है कि अभी तो 16वी लोकसभा को सौ दिन भी नहीं हुये हैं तो अभी से यह कैसे कह दिया जाये कि लोकसभा में सांसद खामोश रहते है तो फिर 15वी लोकसभा का हाल देख लीजिये। कांग्रेस के चिर-परिचित चेहरे अजय माकन ने पांच बरस के दौरान ना कोई सवाल पूछा ना ही किसी चर्चा में शामिल हुये। और ना ही कोई प्राइवेट बिल रखा। और कांग्रेस के सबसे कद्दावर चेहरे राहुल गांधी और सोनिया गांधी ने भी सिर्फ दो बार बोलने की जहमत उठायी वह भी चर्चा में शरीक होकर। इसके अलावा कभी कोई सवाल नहीं उठाया और ना ही कोई प्राइवेट बिल के बारे में सोचा। और संसद में बोले भी तो तब जब लोकपाल को लेकर अन्ना आंदोलन से दिल्ली थर्रा रही थी। 26 अगस्त को पहली बार राहुल गांधी गुस्से में लगातार 5 मिनट तक बोले। और इसके बाद मनमोहन सरकार जब लोकपाल बिल लेकर आये तो राहुल गांधी 13 दिसबंर 2013 को बोले। बाकि वक्त हमेशा खामोश रहे। इसी तर्ज पर सोनिया गांधी 15 लोकसभा में पहली बार 13 मई 2012 को तब बोली जब संसद के साठ बरस पूरे हुये।
और उसके बाद 26 अगस्त 2013 को सोनिया गांधी तब बोली जब खाद्द सुरक्षा बिल पेश किया गया। अब आप कल्पना कीजिये यूपी की कानून व्यवस्था को लेकर यूपी के सीएम की सांसद पत्नी डिंपल यादव कल ही संसद में बोल रही थी। लेकिन 2009 से 2014 के दौरान यानी 15 लोकसभा में डिंपल यादव ने कुछ कहा ही नहीं। ना कोई सवाल। ना किसी चर्चा में शरीक। यही हाल कांग्रेस के सीपी जोशी और वीरभ्रद्र सिंह का भी रहा। दोनों की हाजिरी 95 फीसदी रही लेकिन कभी संसद में यह नहीं बोले। वैसे औसत निकालेंगे तो हर सत्र में सौ से ज्यादा सांसद ऐसे निकलेंगे जो आते हैं। फिर चले जाते हैं। लेकिन कुछ नहीं बोलते।
आंकडों के लिहाज से समझे तो 16वीं लोकसभा यानी मौजूदा लोकसभा में अभी तक 72 सांसदों की कोई भागेदारी की ही नहीं है। 101 सांसदों ने किसी चर्चा में हिस्सा ही नहीं लिया है। 198 सांसदों ने कोई सवाल नहीं उठाया है। वहीं 15 वी लोकसभा के दौर में 40 सांसदो ने कोई चर्चा नहीं की। 63 सांसदों ने कोई सवाल नहीं उठाया और हर शुक्रवार को ढाई घंटे का जो वक्त प्राइवेट बिल के लिये होता है उससे 450 सांसद दूर रहे। जबकि 14 लोकसभा यानी 2004 से 2009 के दौरान 42 सांसदों ने कोई चर्चा नहीं की। 53 सांसदों ने कोई सवाल ही नहीं उठाया।
अब इस अक्स में अगर याद करें तो जून 2012 में जब सचिन तेंदुलकर ने सांसद की शपथ ली थी तो उन्होंने कहा था, मैं संसद में खेल से जुड़े मुद्दे उठाना चाहता हूं। जाहिर है ऐसा आज तक तो हुआ नहीं कि सचिन तेंदुललर कोई मुद्दा उठाये या रेखा ने कभी कुछ कहा भी हो। लेकिन नामुमकिन सांसद ऐसा ही करते रहे हो ऐसा भी नहीं है। पहली संसद यानी 1952 से अब तक क़रीब 200 लोग नामांकित किए जा चुके हैं। इनमें नामी डॉक्टर, लेखक, पत्रकार, कलाकार और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हैं। वैसे रेखा कुछ बोले या ना बोले लेकिन पहली संसद में मनोनित पृथ्वीराजकपूर ने 1952 में अपने भाषण में ‘राष्ट्रीय थियेटर’ शुरू करने की बात कही थी। और उन्होंने तब की बंबई में थियेटर बनाया भी। वहीं 1953 में नर्तक रुक्मिणी देवी अरुंदाले की मदद से जानवरों के विरुद्ध क्रूरता रोकने के लिए एक विधेयक पेश किया गया।
कार्टूनिस्ट अबू को राज्यसभा में इंदिरा गांधी ले कर आयी थीं और 1973 में कार्टूनिस्ट अबू अब्राहम ने सूखा पीड़ित इलाक़ों की अपनी यात्रा के बारे में बेहद खूबसूरती से वर्णन किया था। जिसके बाद सूखा प्रभावित इलाको के लिये सरकार ने पैकेज जारी किया। और तो और 1975 में जब इमरजेन्सी लागू हुई तो अबू इब्राहिम ने अपने कार्टून के जरीये राष्ट्रपति पर चोट की। उन्होंने तब के राष्ट्रपति को बाथ टब में आपातकाल लागू करने वाले दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करते हुये दिखाया था। भारत के जाने माने लेखकों में एक आरके नारायण ने संसद में अपने पहले भाषण में भारी-भरकम स्कूल बैग को हटाने की मांग की थी।
आरके नारायणन ने कहा था, भारी भरकम बैग लटकाकर बच्चे झुक जाते हैं। चलते वक्त चिंपाज़ी की तरह उनके हाथ आगे की ओर लटके रहते हैं। मुझे ऐसे कुछ केस पता हैं, जिससे बच्चों को इससे रीढ़ की गंभीर बीमारी से जुझना पड़ रहा है। उसके बाद सरकार ने स्कूलो को निर्देश दिया था कि बच्चों के बैग हल्के होने चाहिये। तो आखिरी सवाल यही है अब किसी सांसद या क्या उम्मीद की जाये या सचिन या रेखा से कोई उम्मीद क्यों की जाये। जब उनकी अदा ही हर दिन चलने वाले संसद के खर्च से ज्यादा कमाई हर दिन कर लेती हो। तो फिर संसद की साख पर सचिन की अदा तो भारी होगी ही।
दरअसल, रेखा और सचिन तो फिर भी नामांकित हुये हैं। लेकिन सिनेमायी पर्दे से जनता के बीच जाकर वोट मांगकर जीतने वाली आध्रप्रदेश की विजया शांति और बालीवुड के सिने कलाकार धर्मेन्द्र तो बकायदा जनता की आवाज लोकसभा में देने के लिये चुने गये। लेकिन विजया शांति 2009 से 2014 तक कुछ नहीं बोली और धर्मेन्द्र 2004 से 2009 तक कुछ नहीं बोले। तो इसका मतलब क्या निकाला जाये जिन्होने राजनीति का ककहरा नहीं पढ़ा होता वह संसद में खामोश हो जाते है। असल में मुश्किल यह नहीं है कि सांसद संसद के भीतर कितना बोलते है मुश्किल यह है कि कुल सौ सांसदो से ही समूची संसद चलती है। जो हर विषय पर खूब बोलते है। खूब सवाल उठाते हैं। और इनके खूब बोलने या खूब सवाल उठाने से आम जनता को कोई लाभ नहीं होता बल्कि औद्योगिक घरानो से लेकर कारपोरेट की मुश्किलों या पैसो वालो के उलझे रास्ते ठीक करने के लिये ही चर्चा होती है और सवाल उठाये जाते है।
इसलिये मंहगाई पर चर्चा होती है तो सदन से 73 फीसदी सांसद गायब होते हैं। भ्रष्टाचार पर चर्चा होती है तो 55 फिसदी सासंद सदन से बाहर होते है। कालेधन पर चर्चा होती है तो 80 फीसदी सत्ताधारी सांसद गायब होते है। वैसे बीते दस बरस का सच यही है कि 200 सांसदो ने कभी कोई सवाल उठाया ही नहीं और ना ही चर्चा में हिस्सा लिया लेकिन वह रेखा या सचिन की तरह नहीं निकले की संसद आये भी नहीं। लेकिन संसद से निकलता क्या है यह तय जरुर कर लिजिये क्योकि बीते 10 बरस में लोकसभा या राज्यसभा का औसतन पचास फिसदी से ज्यादा वक्त हंगामें में हवा हवाई हो गया। और जो हर दिन लोकसभा या राज्यसभा में पहुंच कर हंगामा कर निकल गये उन्हे भी दो हजार रुपये प्रतिदिन की मेहनत के मिल गये। यानी देश में औसतन शारीरिक श्रमकर जितनी कमाई महीने भर में होती है उतनी कमाई सांसद को संसद ना चलने देने के बाद एक दिन में ही मिल जाती है।
जाने माने पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी के ब्लॉग से साभार।