Connect with us

Hi, what are you looking for?

सियासत

अदभुत चुनावी विश्लेषण : तो इसलिए सामाजिक न्याय का तमिलनाडु मॉडल टिक गया और बिहार-यूपी मॉडल बिखर गया!

दिलीप मंडल-

ये बेहद ख़तरनाक लेख है। ये आपकी स्थापित मान्यताओं को चुनौती दे सकता है। उन मान्यताओं को जिनकी हो सकता है मृत्यु हो चुकी हो, पर जिन्हें आप सीने से चिपकाए घूम रहे हैं। जैसा अक्सर बंदरिया अपने मरे बच्चे के साथ करती है। बीजेपी की राजनीति को सिर्फ सांप्रदायिकता या आम आदमी पार्टी की राजनीति को सिर्फ नौटंकी समझने वालों को इस लेख से झटका लग सकता है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

अपने जोखिम पर पढ़ें।

सामाजिक न्याय का मतलब ग़रीबी का बँटवारा नहीं है। तेज विकास और बुनियादी सुविधाओं के नीचे तक विस्तार के साथ ही सामाजिक न्याय टिक सकता है। इसलिए तमिलनाडु मॉडल टिक गया। बिहार और यूपी का सामाजिक न्याय इसलिए बिखर गया।

Advertisement. Scroll to continue reading.

सबके लिए खाने और हगने का बंदोबस्त किए बिना न्याय, समता, समानता, लोकतंत्र जैसी बड़ी बड़ी बातें नहीं की जा सकतीं।

लेख ये है-

Advertisement. Scroll to continue reading.

रंगनाथ सिंह-

पाँच किलो अनाज और शहरी बुद्धिजीवी समाज… जब सरकार ने मुफ्त अनाज देने की घोषणा की तो लगा कि यह थाली बजाने जैसा शगूफा ही है। लम्बे समय तक शहर में रह जाने पर गाँव से निकले लोगों का भी यथार्थबोध छिज जाता है। दुर्योगवश कुछ महीने गाँव पर रहना पड़ा। मुफ्त अनाज योजना का असली असर तब दिखा। आसपास के गाँवों में अनाज वितरण को लेकर जो देखा-सुना उसे देखते हुए यही महसूस हुआ कि इस योजना की वजह से एक बड़ी आबादी भूखमरी के भय से मुक्त हुई है। चुनाव के दौरान और बाद कुछ लोग ऐसे तंज करते दिखे, जैसे सरकार कोई भीख दे रही है या जनता अनाज पर बिक गयी है। मेरा यकीन है कि ऐसे तंज करने वाले ज्यादातर मध्यमवर्गीय लोग अपनी वास्तविकता और अपने परिवार का इतिहास भूल चुके हैं। अगर वो याद करेंगे तो उन्हें अपने घर-परिवार में भूख का वही डर एक-दो पीढ़ी पहले दिख जाएगा। शहर में आकर ऐसे-वैसे कामों से चार पैसे कमाकर सुर्खरू बनना हल्कापन है, अक्लमंदी नहीं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

यहाँ यह गलती से भी न कहिएगा कि आपके बाप-दादा के यहाँ दूध-दही की नदियाँ बहती थीं। अगर ऐसा था तो समझिए कि सामन्ती-वर्गीय व्यवस्था में वो दूसरों के हकमारी के साधन रहे होंगे। मैं अतीत के अपराधों का प्रतिशोध लेने वाली विचारधारा में यकीन नहीं रखता लेकिन आप अपने अतीत का गौरवगान करेंगे तो हमें आपको यथार्थभान कराना होगा।

वापस भूख पर आते हैं। मैं कभी भूख के डर में नहीं जिया। बचपन से तीन वक्त का खाना, सिर पर छत और चार जोड़ी कपड़े लगातार मिलते रहें तो बहुत से लोग जमीनी यथार्थ से कटकर विचारधारा के कल्पनालोक में जीने लगते हैं क्योंकि वो भूख के भय को भूल चुके होते हैं। अच्छी बात बस इतनी हुई कि अन्न की अबाधित आपूर्ति ने कभी मेरे आँख-कान नहीं बन्द किये। लम्बे समय तक मैं यही नहीं समझ पाता था कि लोग बार-बार यह क्यों कहते हैं कि ‘करेंगे नहीं तो खाएँगे क्या’ ‘करेंगे नहीं तो खाएँगे क्या’ ‘बाल-बच्चों को खिलाएँगे क्या’ ‘दो जून की रोटी हो जाए वही बहुत है’ यकीन जानिए, जब ऐसे वाक्य स्मृति के कोठार से निकलकर कानों में गूँजते हैं तो आँखों से पानी गिरने लगता है। जब अपने परिवार, पासपड़ोस, गाँव-गिराँव के लोगों को, उनके पुरखों के इतिहास में प्रवेश करने का प्रयास करता हूँ हर दरवाजे पर घनघोर अभाव की साँकल चढ़ी मिलती है और हिम्मत बाँधकर साँकल खोलकर अतीत के चरचराते दरवाजे को खोल अन्दर प्रवेश करने का प्रयास करो तो वहाँ ‘भूख का भय’ फुँफकारता दिखता है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

अच्छी-खासी उम्रर गुजर जाने के बाद अहसास हुआ कि हम भूखमरी के रक्तरंजित जबड़ों से जान बचाकर निकले लोगों के बिरसे हैं। एक उम्र गुजर जाने के बाद कथासम्राट प्रेमचन्द की कहानियों मुझपर अलग तरह से खुलने लगी। उन कथाओं में जहाँ नहीं तहाँ भूख का भय पसरा हुआ है। प्रोफेसरीय बुद्धि कहती है कि कफन के पात्र ‘डिह्यूमनाइज’ हो गये हैं! क्यों हो गये हैं! यह समझना उनके लिए मुश्किल है जो अपने पुरखों से विरासत में मिला भूख का भय भूल चुके हैं। पत्नी मर रही है और दो जन शराब के नशे में किसी जमींदार के घर खाया गया सुस्वादु भरपेट अन्न याद कर रहे हैं! अब प्रेमचन्द की कहानियों को याद करता हूँ कि भारतीय किसान जीवन में अन्न का संकट केंद्रीय पात्र की तरह हर जगह भौंकता दिखता है। अब लगता है कि ‘पूस की रात’ में झबरा नहीं भौंकता था, भूख भौंकती थी। क्या प्रेमचन्द यह नहीं दिखा रहे थे कि किसानी मरजाद के साथ भूख मिटाने का साधन भर है! क्या अबोध हामिद अकारण ही अपनी दादी के लिए रोटी बनाने का चिमटा खरीदता है! बालक हामिद के त्याग को दिखाने के लिए कोई और प्रतीक भी हो सकता था फिर चिमटा ही क्यों! ऐसे कई प्रश्न पर हैं जिनपर ‘पाँच किलो अनाज’ पर रायदराजी करने से पहले हमें प्रेमचन्द के ‘सवा सेर गेहूँ’ को याद करते हुए सोचना चाहिए।

ऐसा नहीं है कि भूख केवल भारतीयों को सताती है। नार्वे के नोबेल विजेता क्नूट हैमसन ने ‘भूख’ नाम से एक किताब लिख दी जो महान साहित्य मानी गयी। वॉन गॉघ की कलाकृति ‘पोटैटो ईटर्स’ के बारे में सभी हिन्दी कलाप्रेमी जानते होंगे। आपकी सुविधा के लिए यदि हम इसका हिन्दी अनुवाद कर दें – आलू खोर, तो आप ही विचार करें कि आपकी यथार्थ से कटी हुई नाजुक कला-अभिरुचि का क्या होगा! उसका हाल उसने हुए आलू जैसा हो जाएगा।

Advertisement. Scroll to continue reading.

सदियों से भूख से भागते हुए लोगों का बच्चा होने के नाते में भूख पर अंगुलियाँ चलते रहने तक लिख सकता हूँ लेकिन लिखने-पढ़ने के प्रति मेरे मन में गहरी निरुद्देश्यता बैठ चुकी हैं क्योंकि एक नगण्य वर्ग को छोड़ दें तो ये सब ‘पेट भरे’ लोगों के शगल हैं और ऐसे लोगों की मैं उतनी ही मिजाजपुर्सी करना चाहता हूँ जितने से ‘भूख के भय’ से मुक्त रहा जा सके। मुझे रोटी तो चाहिए, लेकिन मक्खन बुद्धिजीवी समाज अपने पास ही रखे। कौन जाने मेरे हिस्से का मक्खन उसे पैरिस में लास्ट टैंगो करने के काम आये। खैर, भूख जनित करुणा कई बार रूप बदलकर क्रोध बन जाती है तो पीछे की पँक्तियाँ कठोर मन से कही गयी हैं। क्षमाप्रार्थी हूँ। प्रबुद्ध समाज इस भूतपूर्व भूखे का प्रलाप समझकर भूल जाए।

‘भूख के भय’ से आमना-सामना होने के बाद मेरे जहन में यह सवाल कुलबुलाने लगा कि यह मेरे जीवन से क्यों नदारद था! यह ठीक है कि हमारे बाप-दादा साहित्य-संगीत-कला विहीन बेसींग बैल की तरह जीवन के खेत में जुतते रहे ताकि उनके बच्चों को भूख का भय न सताये और वो खुद को (अन्न से) ‘सम्पन्न’ समझ सकें लेकिन क्या उन्होंने वह सीख भी छोड़ दी जो अन्न के लिए किए गए पीढ़ियों के संघर्ष से मिली थी! शायद नहीं। हमार पुरखों की आत्मा में धँसा ‘भूख का भय’ हम जैसों की रगों में संस्कार बनकर बहता रहा है। यह बात हिन्दी में कही जा रही है तो कुछ लोगों को हल्की लग सकती है लेकिन अंग्रेजी पढ़े कुपढ़ों को यहाँ कार्ल युंग के आर्कटाइप और जातीय स्मृति की अवधारणा याद करनी चाहिए।

Advertisement. Scroll to continue reading.

खैर, सच यही है कि अब जाकर मेरे सामने अपने बाबा की वह डाँट खुलने लगी है कि किसान के बेटे हो अन्न मत फेंका करो! अन्न जमीन पर मत फेंका करो! अन्न बच जाए तो जाकर गाय-भैंस की नाद में डाल दिया करो! ये डाँट हमारे अन्दर इतने गहरे धँस चुकी है कि फाइवस्टार होटल में फ्री का मिलने वाला खाना भी थाली में छोड़ते हुए रूह काँपती है। अब जाकर पीढ़ियों संचित ज्ञान में पगे उस वाक्य का मर्म मेरे सामने खुला जो मेरी आजी कहती थी- खाते से समय कुकुरो के ना मारल जाला! अब समझ में आया कि दरवाजे पर आने वाले याचकों की झोली में लोग एक कटोरा अन्न क्यों डालते थे! अब समझ में आया कि लोग दो जून के खाने के लिए पीढ़ियों पीढ़ियों तक रोज 10-12 घण्टे मजूरी क्यों करते थे! क्यों लोग उस काम को अपना पैतृक पेशा बना लेते थे जिसे कोई बुद्धिजीवी करना नहीं पसन्द करेगा! बस इसलिए कि वह अपने परिवार की भूख मिटा सके। जो लोग अपनी जड़ों को भूल चुके हैं वो भारतीय जनमानस में ‘पाँच किलो अनाज’ की अहमियत कभी नहीं समझेंगे। इस योजना ने देश की बड़ी आबादी को भूख के भय से आजाद कराया है। खैर, ऐसे लोगों से मुझे इससे ज्यादा कुछ नहीं कहना है।

(नीचे वान गाघ की तस्वीर ‘आलू खोर’ लगी है ताकि वह हिन्दी समाज भी इस आलेख में कुछ सराहनीय पा सके जिसकी नसों में बह रही सांस्कृतिक गुलामी उसे इतना ही काबिल बना सकी है कि वह अपने जन, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपने क्षेत्र का मजाक बना सके, उसकी समस्यायें गिना सके लेकिन कोई समाधान न बता सके और इसे ही अपनी प्रतिभा समझकर सांस्कृतिक परजीवी बना रहे।)

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement