केपी सिंह-
भारतीय जनता पार्टी शुरू से शासन प्रणाली को बदलने के लिये संविधान बदलने की वकालत करती आयी है। केन्द्रीय सरकार पर काबिज होने के बाद उसने पहली बार पूरी मजबूती के साथ संविधान समीक्षा आयोग गठित किया था। इस प्रयास में तब मायूसी हाथ लगी और भाजपा को अपने कदम वापस खींचने पड़े थे जब उसे जानकारों ने आगाह कर दिया था कि संविधान के मूलभूत ढांचे में किसी भी सरकार द्वारा किसी भी तरह के परिवर्तन को सुप्रीम कोर्ट अपने कई फैसलों में नकार चुकी है इसलिये संसदीय प्रणाली के स्थान पर अध्यक्षीय या राष्ट्रपतीय प्रणाली लागू करने की कोई गुंजाइश नहीं है।
लेकिन अब जबकि जमाना ‘मोदी है तो मुमकिन है’ के नारे का है और भाजपा बिना ब्रेक के अपनी गाड़ी दौडाये जा रही है जिसमें सुप्रीम कोर्ट भी रुकावट डालने के नाम पर असहाय हो चुका है तो भाजपा का दुस्साहस बुलंदी पर है। भाजपा की मोदी सरकार संविधान को धता बताकर कदम उठाने के कई करिश्मे कर चुकी है। उदाहरण के तौर पर उसने सरकारी नौकरियों में आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का कानून पास कर दिया जबकि संवैधानिक रूप से यह मान्य नहीं था। फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने लम्बे समय तक इसका अनुमोदन करने में हिचक दिखायी लेकिन आखिर में उसने घुटने टेक दिये और सरकार के इस कदम को हरी झण्डी दिखा दी।
सुप्रीम कोर्ट ने अपनी ही पूर्ववर्ती पीठों के इस निश्चय को याद नहीं रखा कि आरक्षण कोई गरीबी हटाओ उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है। संविधान में स्पष्ट है कि वह ऐसे वर्गों को विशेष अवसर देने की मंशा रखता है जो सामाजिक कारणों से अन्याय का शिकार होने के कारण पिछड़ गये, न कि आर्थिक कारणों से। जब आरक्षण के मामले में सरकार के सामने सुप्रीम कोर्ट का दब्बूपन सामने आ गया तो सरकार और निडर हो गयी। नतीजा, उसका इरादा एक और करिश्मा करने का है जिससे यह स्पष्ट होगा कि लौहपुरूष कहलवा कर अपने मुंह मिया मिट्ठू बनने वाले लालकृष्ण आडवाणी पीछे हटे होंगे लेकिन मोदी पीछे नहीं हटता। वर्तमान निजाम संविधान बदल कर दिखा देगा।
इसका संदर्भ है जयपुर में चल रहे पीठासीन अधिकारी सम्मेलन में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड का संबोधन का जिसमें उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के केशवानन्द भारती मामले में 1973 में दिये गये फैसले पर निशाना साधा। इस फैसले का सार यह है कि संसद भी संविधान के मूल ढांचे में संशोधन नहीं कर सकती जिसमें शासन की संसदीय प्रणाली भी शामिल है। धनखड़ ने यह स्थापित करने की कोशिश की है कि संसद सब कुछ बदल सकती है। यहां तक कि पूरा संविधान भी।
यह समझा जाना चाहिये कि इस तरह का भाषण धनखड़ की निजी उपज नहीं है बल्कि यह आगे उठाये जाने वाले कदम की भूमिका है जिसे गम्भीरता से लिये जाने की जरूरत है। धनखड़ ने एक नेरेटिव सेट करने की कोशिश की है ताकि लोगों को बड़ा झटका झेलने के लिये पहले से तैयार रखा जा सके।
विद्वान समय समय पर यह राय प्रतिपादित करते रहे हैं कि अंग्रेजों ने भले ही भारत छोड़ते समय यह कहा हो कि भारतीय स्वतंत्र रूप से अपनी व्यवस्था को संभाल नहीं पायेंगे क्योंकि उनमें इसके लायक योग्यता नहीं है पर भारत में पाकिस्तान की तरह अस्थिरता पैदा नहीं हो पायी। विद्वानों का यह भी कहना रहा कि इसका श्रेय इस देश के संविधान को दिया जाना चाहिये जो लचीला भी है कड़ा भी है जिसमें कुछ बातें साधारण बहुमत से, कुछ बातें 2/3 बहुमत और राज्यों की एक निर्धारित संख्या के अनुमोदन से ही बदली जा सकती हैं और कुछ बातें हैं जो बिलकुल नहीं बदली जा सकतीं। यह वही बातें है जिनको सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के मौलिक तत्वों के रूप में चिन्हित किया था।
इस कारण पाकिस्तान की तरह भारत में सेना की तरह कोई संस्था संविधान को स्थगित करके सत्ता नहीं सम्भाल सकी। संविधान के गुण को अभी तक देश हित में बहुत सराहनीय समझा जा रहा था पर जिस तरह कई अन्य बातों में लोगों का ब्रेनवाश किया गया वैसे ही संविधान के मामले में व्यापक रूप से हो जायेगा जबकि अभी भी एक छोटा वर्ग तो जिसे संविधान लिखने का श्रेय एक दलित को दिये जाने के कारण इस संविधान से बड़ा दुराग्रह है, कहता ही है कि इस संविधान को बदला जाना चाहिये।
बाबा साहब का नाम जुड़ा होने से दलितों का संविधान के प्रति मोह सर्वविदित है और इसमें समता की बात कही गयी है, दलितों के अलावा पिछड़ी जातियों को भी उत्थान के विशेष अवसर की वकालत की गयी है और अल्पसंख्यकों की धार्मिक स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने की गारंटी दी गयी है, इसलिये समूचा बहुजन इसको बदलने के प्रयास में आड़े आता रहा है। मोदी युग में बिहार विधान सभा के पहले चुनाव के कारण जब संघ प्रमुख मोहन भागवत के एक बयान के चलते समूचा बहुजन भाजपा से बिदक उठा था और उस पर मौजूदा संविधान की बजाय मनुवादी संविधान लागू करने का आरोप मढा जाने लगा था तो रक्षा भित्ति के बतौर मोदी ने यह कहने की आदत बना ली थी कि जब तक वे हैं, बाबा साहब के बनाये संविधान को कोई आंच नहीं आने देंगे लेकिन शायद यह एक प्रवंचना थी, एक जुमला था।
अब जबकि भाजपा तीसरी बार केन्द्रीय सत्ता पर काबिज होने की ओर अग्रसर है और दूर दूर तक कोई उसका मुकाबला करने वाला नहीं रहा है तो वह अपने एजेन्डे को शत प्रतिशत पूरा करने की ठान चुकी है। संयोग से 2025 संघ का शताब्दी वर्ष है जिससे वह अपने हर अरमान को साकार करने के लिये अधीर है। इसलिये धनखड़ के बयानों में इस बात की आहट मिल रही है कि मौजूदा संविधान को खत्म करने का वक्त आ गया है।
इससे यह भी जाहिर हो जाना चाहिये कि मोदी को 75 वर्ष के होने पर रिटायर किये जाने की बात भी बदल जायेगी। राष्ट्रपति प्रणाली के शासन को लागू किये जाने पर उम्र का तकाजा आप्रासंगिक हो जायेगा। अभी राज्यों के चुनाव में कुछ नतीजे आते हैं जबकि लोक सभा का चुनाव आता है तो जिन राज्यों को भाजपा ने गवां दिया होता है वहां भी भाजपा मोदी का चेहरा सामने होने से शत प्रतिशत सीटे जीत जाती है। इसलिये अगर राष्ट्रपति प्रणाली लागू करके मोदी को पेश किया जायेगा तो सरकार की विफलताओं को जानने के बाबजूद लोगों को मोदी के सामने विपक्षी नेता इतने अदने नजर आयेंगे कि लोग मजबूरन अपना सारा समर्थन भाजपा पर उड़ेल देंगे। यहां तक कि उड़ीसा तमिलनाडु जैसे प्रान्तों मे भी किसी दूसरी पार्टी को पैर रखने लायक तक की जगह न मिले।
जहां तक बहुजन समाज के प्रतिरोध का सवाल है, अब स्थिति बिहार विधान सभा के तबके चुनाव जैसी नहीं है। अब अगर उसके आरक्षण को धता बता दी जाती है तो कहां वह प्रतिरोध करता है। वह भी राष्ट्रवाद और धर्मभीरूता की खुमारी की गिरफ्त में इस कदर है कि अपनी चेतना गंवा चुका है जिससे वह औपचारिकता के लिये भी प्रतिरोध करना भूल जाये तो आश्चर्य न होगा। इसलिये शासन प्रणाली बदलने के साथ साथ संविधान में और क्या क्या बदलने वाला है, इसका कयास लगाइये, इंतजार कीजिये या कहें कि आगे आगे देखिये होता है क्या…।
om
January 14, 2023 at 4:09 pm
भगवान आपकी लिखी बात को सही कर के दिखा दे, यही कामना है.