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सपनों के भारत में आम आदमी की तो पूछ नहीं, आइये आज (विपक्षी) नेताओं की चिन्ता करें

संजय कुमार सिंह

आज के टाइम्स ऑफ इंडिया में पहले पन्ने पर छोटी सी एक खबर है। इसके अनुसार हाल के समय के सबसे अच्छे (योग्य, ईमानदार, शिक्षित, लोकप्रिय, लोकतांत्रिक) राजनेताओं में से एक, पूर्व पत्रकार और निर्वाचित जनप्रतिनिधि मनीष सिसोदिया, जो जेल में हैं, उन्हें बीमार पत्नी से मिलने के लिए छह घंटे की राहत मिली है। उन्होंने पांच दिन का समय मांगा था। मैं नहीं जानता कानूनन स्थिति क्या है पर मैंने सुना और पढ़ा है कि चुनाव के समय अपराधियों को कई-कई दिनों की पेरोल मिल जाती है और भी कई नामों से राहत मिलती है। लेकिन त्यौहार के समय नेता को बीमार पत्नी के साथ रहने के लिए राहत नहीं है। यह व्यवस्था है और तब है जब बलात्कारी छोड़े जा चुके हैं और सुप्रीम कोर्ट के जज कह चुके हैं कि मामला उनकी कोर्ट में नहीं आये उसकी कवायद चल रही है। और वही हुआ भी। बात इतनी ही नहीं है, हत्या बलात्कार के आरोपियों का सम्मान तो हुआ ही है हत्या के आरोपी को तिरंगे का सम्मान भी मिला है। यह सब पिछले 10 साल में हुआ है।  

ऐसे में मुझे लगता है कि अपने यहां सारी व्यवस्था अपराधियों बलात्कारियों के लिये है। नेताओं को राहत के लिए विशेष अदालतें भले बनी हों, और अदालतों की जरूरत महसूस की जा रही हो पर क्या नेताओं को वाजिब राहत भी मिल रही है। विपक्ष के नेताओं को अपराधी, आतंकी से कम माना जाता है? कहने की जरूरत नहीं है कि मामला मीडिया ट्रायल का भी है और हम वही जानते हैं जो मीडिया लीक के जरिये हमारे सामने परोसा जाता है। यह स्थिति ठीक नहीं है और पहले से है। सपनों के भारत में ठीक होने की बजाय और खराब हुई है तथा अब मामले भी ज्यादा होने लगे हैं। पहले सभी नेता एक से होते थे अब पक्ष-विपक्ष में बंट गये हैं।

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  • मनीष सिसोदिया ने भले भ्रष्टाचार किया हो या वह तकनीकी तौर पर गलत हो, यह तय है कि अपने लिये नहीं किया है, पैसे उन्हें नहीं मिले हैं और भविष्य में मिलने हों तो उनके अपने काम के लिए नहीं मिलने थे वह पार्टी को दान या चंदा होगा जो अभी तक चल रही भारतीय व्यवस्था का भाग है। और उसे ठीक करने की कोई कोशिश नहीं है। इलेक्ट्रल बांड और बड़ा घोटाला है। वह भी अलग मुद्दा है।  
  • पार्टी के लिए चंदा लेने और लेने के उपाय करने की तमाम सरकारी कोशिशें भी हैं और उसका विरोध करने वालों को परेशान करने / रोकने के उपाय सार्वजनिक हैं और यह सब वो कर रहा है जो सत्ता में है और सिर्फ इसलिए कि वह बहुमत और संसाधनों का प्रयोग अपनी ईमानदारी और भक्ति साबित करने में लगा है।
  • उस ‘परिवार’ के सत्ता में रहते हुए हो रहा है जो वंशवाद का विरोधी और देशभक्त होने का दावा करता था और संस्कार-समर्थन को लागू करने के लिए ऐसी जबरदस्ती कर रहा है कि दुनिया परेशान है।  
  • जो सत्ता में है उसकी हालत या उसके कारण सत्ता का हाल यह है कि शेल कंपनियां बंद करने के दावों और कुछ लाख को बंद कराने के बावजूद शेल कंपनियों के जरिये 20,000 करोड़ रुपये आ गये। पैसे आये हैं, एक निजी उद्योग समूह को फायदा हुआ है पर जांच नहीं करवायेंगे। इस तरह, जो हो गया सो हो गया। न जाने और कौन-कौन दोषी निकले, इसलिए पूरी तरह सन्नाटा है।
  • दोषी के खिलाफ कार्रवाई की मांग को रोकना इतना जरूरी है कि एक सांसद पर निराधार, बिना सबूत आरोप लगाये जाते हैं वो आरोप आपराधिक नहीं हैं इसलिए एथिक्स कमेटी को भेजे जाते हैं और एथिक्त कमेटी तमाम अनैतिकताओं को करते, देखते, सुनते, नजरंदाज करते सदस्यता खत्म करने और जांच कराने की सिफारिश कर देती है। मुद्दा यह है कि सबूत नहीं है, जांच होनी है तो सदस्यता खत्म करने की क्या जरूरत? और जांच तो इस आरोप की भी होनी चाहिये कि आरोप धमका कर लगवाये गये हैं।
  • लगभग यही स्थिति मनीष सिसोदिया के मामले में है। आरोपों की जांच चल रही है पर अभियुक्त जेल में है और अभियुक्त अपराधी, बलात्कारी, आतंकवादी भगोड़ा नहीं है। ना ही ऐसा है कि देश से दूसरे अपराधी कभी भागे ही नहीं हैं और इसलिए मनीष सिसोदिया को भी भागने नहीं देना है। भले जांच में महीनों लग जाए। और ऐसे दूसरे सभी मामलों में काररवाई ऐसे ही हुई हो।
  • पुराने नियम और नैतिकता यह रही है कि किसी प्रभावशाली पर आरोप लगे तो वह स्वयं पद छोड़ देता था ताकि जांच निष्पक्ष हो सके। यहां बेटे के हत्या आरोपी होने पर पिता को मंत्री पद से नहीं हटाया गया और भी बहुत सारे मामले हैं। आतंकवाद की आरोपी को सांसद बना दिया गया मार-पीट के आरोपी लाट साहब हैं उन्हें अदालत से राहत मिली हुई है।
  • गलती या अपराध दूसरों ने भी किये हैं उनके खिलाफ कार्रवाई तो छोड़िये जांच भी नहीं हुई जबकि गवाह हैं परिस्थितिजनय साक्ष्य भी। लेकिन सरकार विरोधियों के खिलाफ वायदामाफ गवाह की शिकायत पर गिरफ्तारी हुई, जेल रहना पड़ा लेकिन वर्षों बाद तक सबूत नहीं है, मामला ठंडे बस्ते में है। गमले में गोभी उगाने का आरोप है पर जांच या कार्रवाई नहीं।
  • वायदा माफ गवाहों के दम पर आरोप लगाये गये, प्रचारित किये गये और अब तो साफ दिख रहा है कि ऐन चुनाव के समय आरोप लगाने, बदनाम करने के लिए पहले कार्रवाई नहीं की गई। चुनाव के समय, मतदान से कुछ दिन पहले आरोप लगाया गया। कार्रवाई की खबर भी छपवाई गई। कर्नाटक में बजरंगबली के बाद छत्तीसगढ़ में महादेव को लाने की कोशिश हुई।
  • क्या यह सब संयोग हो सकता है कि सरकार के खिलाफ कार्रवाई और सरकार के समर्थकों के खिलाफ कार्रवाई में अंतर और फुर्ती भी साफ हैं और यह पुराने मामले अचानक सक्रिय हो जाने, पहली बार किसी भी अपराध में अधिकतम सजा दिये जाने और फिर सुप्रीम कोर्ट से राहत मिलने पर संसद की सदस्यता वापस होने के बावजूद ना बताये जा रहे हैं, ना समझाये जा रहे हैं और ना लोग समझ रहे हैं। मीडिया में रेखांकित किया जाना तो बहुत दूर है।
  • यह व्यवस्था (या अराजकता) क्या अच्छे दिन हैं। क्या सपनों का भारत है जो 50 दिन में बनना था या जो पैसे एक सेठ ने कमाये बताये जा रहे हैं वह वही है जो स्विस बैंकों में रखा था, वापस लाया जाना था। भले उसे सेठ की निजी संपत्ति बनाने की कोशिश चल रही हो। लक्षण तो साफ हैं लेकिन कोई बात नहीं करेगा और जो करगा उसके मुंह बंद कर दिये जाएंगे।
  • क्या कारण है कि वोट दिलाने वाले बलात्कारियों और हत्या के आरोपियों को तो राहत मिल जाती है पर बीमार पत्नी से मिलने के लिए एक निर्वाचित जनप्रतिनिधि को राहत नहीं मिलती है। इसी व्यवस्था में नंगे होकर तेल मालिश कराने वाले पार्टी के नेता को वीडियो होने के बावजूद सजा नहीं हुई लेकिन आरोप की जांच के नाम पर निर्वाचित जन प्रतिनिधियों को जेल में रखना आम है। 
  • जांच के बाद परेशान करके आरोप मुक्त कर दिये जाने के कई मामलों के बाद अव्वल तो जांच ही तब होनी चाहिये जब सबूत पुख्ता हों पर चूंकि मकसद जांच के नाम पर परेशान करना ही है इसलिए सरकार से अनुमति लेकर देश में कार बनाने वालों से तो प्रदूषण के नाम पर जुर्माना मांगा जाता है, देश निकाला नहीं दिया गया है।
  • दूसरी ओर, जो देश में पहले से काम कर रहा है, अर्थव्यवस्था में योगदान कर रहा है, नोटबंदी-जीएसटी को झेल कर भी टिका हुआ है उसकी संपत्ति (पैसे) जब्त कर लिये जाते हैं। कल खबर थी कि विदेशी कार कंपनियों पर जुर्माना लगा। आज खबर है कि हीरो समूह की संपत्ति जब्त की गई।
  • ठीक है कि किसी को अनुचित या गैर कानूनी काम करने की अनुमति नहीं होनी चाहिये, जांच भी होती रहनी चाहिये पर यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि संस्थान चलता रहे, उसका कारोबार होता रहे ताकि वेतन और कर्जों की किस्तें जाती रहें। अपराध साबित हो जाये तो भी कार्रवाई ऐसी होनी चाहिये सजा उसे ही मिले जो अपराधी हैं। उसे नहीं जो उसके यहां ईमानारी से नौकरी कर रहा था या उसके साथ कारोबार कर रहा था।

उद्योग धंधे तो छोड़िये, न्यूजक्लिक पर आरोपों को आप जितना मजबूत और आपराधिक मानिये, सबूत के बिना ऑफिस सील करने, काम करने वालों के कंप्यूटर, फोन जब्त कर लिये जाएंगे तो वेतन केसे मिलेगा? और काम नहीं होता तो जीडीपी नहीं होगी फिर जबरन जीएसटी वसूली होगी। 300 रुपये लीटर से ज्यादा में गंगा जल बेचकर, डाक खर्च पर जीएसटी वसूली जाएगी और कहा जायेगा कि वसूली बढ़ रही है इसलिए उद्योग ठीक हैं जबकि कई गैर सरकारी संस्थानों को विदेशी चंदा लेने से रोक दिये जाने के कारण उनका काम तो बंद ही है, जिनकी सेवा करते थे वो उपक्षित होंगे और जो लोग काम करके वेतन-भत्ते पाते थे वो बेरोजगार हैं।

अखबारों का काम था इनके बारे में लिखते-बताते पर आपने ऐसा कुछ देखा क्या। 2014 के पहले भ्रष्टाचार चाहे जितना हो खबर छपने का असर होता और काम दिखाई देता था। अब तो पत्रकार का फोन छीन लिया जाए, रसीद न दी जाये और कई बार खबर, वीडियो होने के बावजूद व्यवस्था के कान पर जूं न रेंगने की स्थिति आ गई है। कुल मिलाकर पहले के नेता चोर-बेईमान होते होंगे अच्छे दिन में ज्यादातर नेता अनैतिक, भष्ट तो थे ही अब पता चला बेशर्म भी हैं।

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