शंभूनाथ शुक्ला-
आज Hemant Sharma जी का जन्मदिन है। आज के दिन मुझे काशी से डॉ. उमेश सिंह ने न्योत भेजा था कि हेमंत जी की षष्ठीपूर्ति पर मैं वहाँ पहुँचूँ, लेकिन मैं यहाँ कनाडा की ठंड में सिकुड़ रहा हूँ। इसलिए इस अवसर पर अपनी यह टिप्पणी कनाडा से ही। यह दैनिक हिंट में छपी है-
‘साठ सो पाठा’ भये हेमंत शर्मा!
एक बार अज्ञेय जी इलाहाबाद गए तो उन्होंने वहाँ के सभी साहित्यकारों से मिलने का निश्चय किया। अधिकतर साहित्यकार इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ाते थे, सो उनके पास सिविल लाइंस में बंगले और ठाठ-बाट। कई उनसे मिलने आए, कुछ लोगों के घर अज्ञेय जी गए। किंतु एक साहित्यकार रह गए। अज्ञेय जी ने उनके बारे में मालूम किया तो पता चला, कि वे लोहियावादी विचारों के हैं, और आजकल तंगहाली में हैं। अज्ञेय जी उनके घर ख़ुद गए। इलाहाबाद शहर के एक पुराने मोहल्ले की तंग गली के कोने में उनका किराये का घर था। जब अज्ञेय जी वहाँ पहुँचे तो देखा, वे एक खटाठी खटिया में नंगे बदन अंगौछा लपेटे लेटे हैं।
जून की गरमी के दिन और एक पंखा तक नहीं। बीच-बीच में वे बांस की पत्तियों से बने हाथ के पंखे को डुला लेते। अज्ञेय जी वहाँ क़रीब डेढ़ घंटा रुके और चले आए, फिर दिल्ली आ गए। तीन-चार महीने बाद उन इलाहाबादी साहित्यकार के घर डाक से अज्ञेय जी का पत्र आया, जिसमें लिखा था कि दिल्ली का एक प्रकाशन समूह मेरी अमुक पुस्तक का अंग्रेज़ी अनुवाद करवाना चाहता है। इसके लिए यह 25 हज़ार रुपए का चेक एडवांस में उसने भेजा है। आप कृपया अनुवाद कर दीजिए। पत्र के साथ ही चेक भी संलग्न था। 1970 के दशक में 25 हज़ार बहुत बड़ी रक़म थी।
उन साहित्यकार ने चेक वापस करते हुए अज्ञेय जी को लिखा, कि आपने मुझे इसके लिए उपयुक्त समझा, यह मेरे लिए गर्व की बात है। किंतु आपकी अंग्रेज़ी में पकड़ और क्षमता मुझसे कहीं बेहतर है, इसलिए यह उचित नहीं होगा, कि मैं अनुवाद करूँ और वह भी इतनी बड़ी रक़म लूँ। अज्ञेय जी अब इलाहाबाद आए और उनके घर जा कर कहा, कि प्रकाशक यह चेक वापस नहीं ले रहा और मैं भला इसका क्या करूँ, इसलिए इस चेक को आप ही रखें। तब साहित्यकार को मालूम पड़ा, कि यह अज्ञेय जी द्वारा मदद की पेशकश थी। मदद भी की और इस क़दर विनम्रता के साथ!
ऐसे ही हमारे मित्र हेमंत शर्मा हैं। हो सकता है वे वर्षों तक न मिलें, किंतु अगर उन्हें पता चला गया, कि आप किसी समस्या में हैं तो आपके बिना कहे उसका समाधान हो जाएगा। आप सोचते रह जाओगे, कि यह अनुकंपा किसकी हो गई। हेमंत शर्मा से अपनी मित्रता 1984 से है। मैं उनकी रिपोर्टिंग, उनकी लेखन शैली, हर चीज़ की तह तक जाने की उनकी तत्परता और हर पहलू पर उनकी तीक्ष्ण नज़र का क़ायल रहा हूँ। पर ज़रूरी नहीं रहा, कि हम रोज मिलते रहे हों या फ़ोन पर बात करते रहे हों, किंतु एक-दूसरे की कुशल-क्षेम अवश्य पता करते रहे। लेकिन मैंने पाया कि जब भी मैं किसी संकट में आया, हेमंत किसी संकट-मोचक की तरह मेरे साथ खड़े हैं।
मैंने जब जनसत्ता छोड़ने का निश्चय किया तब भी और जब अमर उजाला से इतर जाने का फ़ैसला हो तब भी। हेमंत शर्मा हर तरफ़ से मदद को हाज़िर थे। और अकेले मेरे लिए ही नहीं, वे अपने सभी मित्रों के संकट मोचक रहे हैं। वह भी इस तरह से कि अगले को पता ही नहीं चला कि उसकी मदद कौन कर गया। ऐसे मित्र हेमंत शर्मा आज (27 सितंबर को) अपने साठ पार कर रहे हैं।
नीचे मैं उन्हीं का लिखा पीस दे रहा हूँ। जो जस का तस उन्हीं का है, बस मैंने इसे एडिट किया है क्योंकि 15 साल तक लगातार उनकी हर कॉपी को मैं ही एडिट करता था। और वर्ष के 365 दिनों में से कभी उनकी कॉपी कभी न आए तो मैं फ़ौरन उन्हें एसटीडी कॉल करता। इसलिए यह कॉपी भी मैंने एडिट की। आख़िर डेस्क के आदमी को यह ज़िम्मेदारी तो पूरी करनी ही पड़ती है।
“तो मित्रों, मैं हेमन्त शर्मा वल्द मनु शर्मा, क़द-पॉंच फुट दस इंच, सफ़ेद बाल, मूँछें काली क़ौम- सनातनी ब्राह्मण, पेशा- अख़बार नवीसी और अफ़साना नवीसी, साकिन- कबीर चौरा, जिला बनारस, हाल मुक़ाम दिल्ली, ज़िन्दगी के साठ बरस पूरे कर रहा हूँ।आस्तिक हूँ। घरेलू संस्कारों से धार्मिक हूँ।पर पोंगा पंडित नहीं हूँ। मैं आधुनिक जातिविहीन हक़ीक़त को समझने वाला सर्वसमावेशी हिन्दू हूँ। किसी धर्म-जाति से परहेज़ नहीं है। मेरा धर्म मुझे मनुष्य मात्र से बांधता है। लोगों को इकट्ठा कर उत्सवधर्मिता सिखाता है और जीवन को मेल-जोल, उत्सव-आनंद के साथ जीने की प्रेरणा देता है। कुल मिलाकर यही अपनी पहचान है।
संकोच था कि अपने बारे में क्या लिखूँ। अपने बारे में लिखना एक रोग है आजकल जिससे हर कोई बेचैन है। तो मैंने सोचा कि होली दिवाली में, मैं भी ललही छठ्ठ क्यों न लिखूँ? कोरोना वायरस ने वक्त को रोक लिया है। रूके हुए वक्त में पीछे देखने को मजबूर किया है। अज्ञेय के शब्दों में, समय ठहरता नही। अगर ठहरता है तो सिर्फ़ स्मृतियों में। तो पेश है, मेरी स्मृति की मंजूषा से निकला मेरा अब तक का सफ़रनामा।
बचपन बनारस में छूट गया। जवानी लखनऊ में बीती और अब उत्तरार्द्ध में दिल्ली वास। मैंने पहले ही कहा था कि इस जीवन में गड्डे भी है और खण्डहर भी। तो शुरूआत खण्डहर से। २७ सितंबर पितृपक्ष की तृतीया के रोज़ बनारस के दारानगर के मध्यमेश्वर के पास जिस खण्डहर नुमा घर में मैं पैदा हुआ, वह खपरैल का कच्चा घर था। दालान का दरवाज़ा गिर गया था। छत छलनी थी। मिट्टी की ऊबड खाबड़ फ़र्श और टूटी छप्पर। पैदा होते ही ज़बर्दस्त पानी। ‘घन घमण्ड नभ गरजत घोरा!’ पानी चार घंटा बरसा और छत रात भर बरसती रही। इस बरसात ने माता की प्रसव पीड़ा को भुला दिया। मॉं और दादी मिल कर रात भर छप्पर से चूते पानी के नीचे कहीं परात तो कहीं बाल्टी रखती रहीं और पानी से बचाने के लिए मेरा स्थान परिवर्तन करती रही। यानी मैं बरसात का आनन्द लेते हुए पैदा हुआ। इसलिए आज भी काले बादल मुझे अपनी ओर खींचते है।
बनारस का दारा नगर मुहल्ला दारा शिकोह के नाम पर है। दारा शिकोह जब अपने भाई औरंगजेब से बग़ावत कर संस्कृत पढ़ने बनारस आया तो इसी मुहल्ले में रहता था।मेरे जन्मस्थान से दो सौ मीटर बाएं काशी का प्रसिद्ध मृत्युजंय महादेव का मंदिर और दो सौ मीटर दाँए मध्यमेश्वर का प्राचीन मंदिर था। दो जागृत शिवलिंगों के बीच जन्म के कारण अपना नाता महामृत्युंजय से दोस्ताना रहा। जिस खण्डहर में मैं जन्मा वह किराए का था। चन्दौली के एक बाबू साहब का। पिता के दिन अब अच्छे होने की ओर थे। वे चपरासी से लाईब्रेरियन होते हुए अध्यापक हो चुके थे। उन्हें यह मुश्किल इसलिए उठानी पड़ी कि दादा जी का कपड़ों का कारोबार था। पर आज़ादी और आर्यसमाज के आन्दोलन में सक्रिय रहने के कारण वे कभी लाहौर जेल में होते तो कभी अम्बाला में। वे समाज को समर्पित थे, सो कारोबार चौपट। पॉंच भाई बहनों का परिवार चलाने की ज़िम्मेदारी पिता के अबोध और कमजोर कन्धों पर आ गयी। इसलिए आठवीं के बाद उन्होने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा। दिन में फेरी लगाते या फुटपाथ पर गमछे बेचते और रात में पढते । फिर प्राईवेट इम्तहान देते। इसलिए गमछे से अपना सांस्कृतिक परंपरागत रिश्ता है। लिखने पढ़ने में पिता जी को अपने नाना से सहयोग मिलता। वे साहित्यिक रूचि के थे। नाना के पिता भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के चाकर अभिवावक थे। भारतेन्दु बाबू ने अपनी लिखने वाली एक डेस्क पिता के नाना को दी। उनसे होते हुए वो डेस्क पिता और फिर मुझ तक आते आते लगभग लकड़ियों में तब्दील हो गयी थी पर आई। यही अपनी लेखकीय विरासत थी।
जन्म लेने के आठ महीने बाद ही हम अपने मौजूदा घर पियरी पर आ गए।इसलिए मेरी दादी और मॉं मुझे परिवार का शुभंकर मानती थीं। मेरे जन्म लेने के बाद स्थितियॉ बदलीं। हम अपने मौजूदा घर में आ गए।राजपूताने से अहिराने में। यादवों का मुहल्ला। मैं गाय और गोबर में बड़ा हुआ। मेरे दिमाग में जो गोबर तत्व आपको मिलेगा, शायद इसी वजह से। बग़ल में औघड़नाथ तकिया। जुलाहा कबीर को ब्रह्मज्ञान यहीं हुआ था। लहरतारा से कपड़ा बुनकर, जब वे बाज़ार जाते तो यहीं ठहर औघड़ साधुओं से ज्ञान लेते। बड़ा वैचारिक संघर्ष का माहौल था बचपन में। बग़ल में निर्गुण कबीर। घर में परम सनातनी दादी। जिनकी सुबह रोज़ गंगा स्नान और महामृत्युंजय से लेकर काशी विश्वनाथ के दर्शन से होती और दादा जी परम आर्यसमाजी। वे अकबरपुर ( फैजाबाद) के आर्यसमाज के संस्थापक रहे। दादी आधे दिन अपने आराध्यों, देवो की मूर्ति के सामने होतीं और दादा जी मूर्ति पूजा के सख़्त विरोधी। एक परम मूर्तिपूजक, दूसरा मूर्तिपूजा का परम विरोधी। एक कहे ‘अंत काल रघुवरपुर जाई’ और दूसरा कहे ‘अंत काल अकबरपुर जाई‘। घर में रोज़ सनातन धर्म के पक्ष और विपक्ष में शास्त्रार्थ होता। सोचिए एक परिवार में इतनी धार्मिक धाराएँ! यही सॉंस्कृतिक विरासत अपने मूल में है।
घर के पड़ोस में भुल्लू यादव के स्कूल में गदहिया गोल (तब नर्सरी का यही नाम होता था) में मेरा दाख़िला हुआ। तो भंतो! यादव जी के अक्षर ज्ञान से अपना शैक्षिक जीवन शुरू हुआ। यादवी संस्कार मिले। दूसरी जमात तक यहीं पढ़ा। तीसरी में आधुनिक हिन्दी के जन्मदाता भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की संस्था द्वारा संचालित हरिश्चन्द्र मॉडल स्कूल पढ़ने चला।फिर दसवीं तक यहीं था।जीवन में अराजकता, उद्दडंता, शरारत, खिलंदड़ापन और रंगबाज़ी ने यहीं प्रवेश किया। बाहरी दुनिया से भी सामना यही हुआ।अध्यापकों से चुहलबाजी हो या स्कूल से भागकर सिनेमा देखना हो। मेरे चरित्र के चौखटे में सारे ऐब यहीं जड़े गए। बेफ़िक्री में पगा यह शरारती स्कूली वक्त जीवन में फिर नहीं आया।
तीसरी-चौथी तो ठीक से बीती पर पॉंचवी तक आते-आते बनारसी रंग चढ़ चुका था। मेरे जीवन मे अब तक कई नए और दिलचस्प किरदार दाखिल हो चुके थे। मोछू उनमे से एक थे। स्कूल के बाहर झाल मूड़ी बेचने वाले मोछू हमारे स्कूल में हमारे स्थानीय अभिभावक जैसे थे। मेरे पैसे उनके पास जमा रहते थे। हर रोज़ मूड़ी खिलाते फिर इकट्ठे एक रोज़ पैसे लेते। कभी कभी कुछ और खाना होता तो अपने पास से भी पैसा देते। मोछू दिलदार आदमी थे।
पढ़ाई में अपना सबसे निकट साथी अस्थाना था जो रुड़की से इंजीनियरिंग कर इण्डियन आयल में शीर्ष पर पहुँचा। बदमाशियों में मेरा अज़ीज़ जायसवाल था जिसने स्कूल से भाग कर सिनेमा देखना सिखाया। आनन्द मंदिर में उसके पिता मैनेजर थे। मैंने महज साढ़े सात बार शोले वहीं देखी। प्रोजेक्टर रूम में बैठ कर। शोले हाउस फ़ुल होती थी। प्रोजेक्टर रूम में एक छेद ख़ाली होता था जिसमें से इंटरवल में विज्ञापन वाली स्लाईड चलती थी। मुझे सिनेमा देखने के बदले इण्टरवल में वही स्लाईड खिसकानी होती थी। मैं वो कर देता था।
बीए बीएचयू से किया फिर एमए में दाख़िला जेनयू में हुआ पर एमए किया बीएचयू से ही। वहीं से पीएचडी की और फिर उसी विश्वविद्यालय में मानद प्रोफ़ेसर बना। नौकरी लखनऊ और दिल्ली में की।पत्रकारिता की धर्म-दीक्षा देने के लिए प्रभाष जी जैसा शंकराचार्य मिला।और साहित्य में मेरे गुरू श्रद्धेय नामवर सिंह हुए। मेरी कलम पर उन दोनों का ही आशीर्वाद है। इसी कलम की किसानी करते करते अब जीवन के उत्तरार्ध में प्रवेश कर गया हूँ। बस इतनी सी दास्तां है अपनी। जिंदगी ने यहां तक साथ निभा दिया है, लड़ते, झगड़ते, हिचकोले और झटके देते ही सही। साहिर लुधियानवी लिख गए हैं- “इस तरह ज़िंदगी ने दिया है हमारा साथ, जैसे कोई निबाह रहा हो रक़ीब से।”इस जिंदगी से अब और क्या चाहिए? बस ज़िंदा नज़र आने की दुआ चाहिए।
तो सारांश यह कि अब यदि साठ पार कर लिए हैं तो बस घाट के किनारे पाठ करता रहूँ, ऐसा बिल्कुल नहीं है। अब अपने भौतिक दैहिक और जैविक आदतों में बदलाव की सोच रहा हूं। साठ पार की उम्र में काम करूँगा तीस की तरह। कपड़े पहनूँगा बीस की तरह और साठ में घुमक्कड़ी होगी आठ की तरह। सोच की परिपक्वता में जरूर साठ रहेगा।
वसीम बरेलवी समझा गए हैं “उसूलों पर अगर आँच आए तो टकराना जरूरी है, जो ज़िंदा हो तो ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है” सो इसी दुआ के साथ कि शेष जिंदगी भी हर लम्हा ज़िंदा नज़र आने की कामयाब कोशिशों में बीते, आप सबका बहुत बहुत आभार। आपकी दुआएँ ही मेरी ताकत हैं। जन्मदिन तो उम्र के साल कम करता जाएगा, पर आपकी दुआएँ साल की उम्र बढ़ाती जाएँगी। इन्हें और भी फक्कड़ी के साथ जीने की वजह बनती जाएँगी। यही ज़िंदादिली मेरा हासिल है और आपको वापिस देने के लिए मेरा रिटर्न गिफ्ट भी!”
हेमंत शर्मा की विनम्रता के संदर्भ में में एक उदाहरण और रखूँगा। कहते हैं, रहीम से किसी ने पूछा, कि “कहाँ से सीखी नवाब जू ऐसी देनी देन, ज्यों-ज्यों कर ऊपर उठे, त्यों-त्यों नीचे नैन!” रहीम ने जवाब दिया- “देनहार कोऊ और है देत रहत दिन-रैन, लोग भरम हम पर करें ताते नीचे नैन!!” तो मित्रों ठीक रहीम की तरह हमारे मित्र हेमंत शर्मा हैं। वे ऐसे मित्र हैं, जिनके अनुराग, प्रेम और जिनकी विद्वता की थाह लेना आसान नहीं है।
(मैं आजकल कनाडा में हूँ। पिछले दिनों अपने ये मित्र हेमंत शर्मा अमेरिका आए हुए थे। उनकी पुत्री ईशानी को हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से प्रबंधन में मास्टर डिग्री मिली थी। अतः बेटी के साथ अनिवार्य तौर पर उन्हें भी न्योता गया था। वे अमेरिका में थे तो मैंने उनसे आग्रह किया, कि वे कनाडा भी आएँ। वे नियाग्रा प्रपात देखने के लिए कनाडा आ भी गए। किंतु मैं उनसे मिलने नहीं जा सका। इसका मलाल मुझे तो रहेगा। लेकिन नियाग्रा से उन्होंने अपना यह फ़ोटो मुझे भेजा। डूबती साँझ में नियाग्रा और हेमंत!)
हर्षवर्धन त्रिपाठी-
आज Hemant Sharma जी का शुभ जन्मदिन है। चित्र होली का है, लेकिन यही हेमंत जी का स्थाई भाव है।
मित्र मंडली उनकी प्राणवायु है। हम जैसे उनसे उम्र में छोटे और उनसे उम्र में बड़े इससे मित्रता पर रंचमात्र अंतर नहीं पड़ता। ऐसे हेमंत जी का यह स्थाई भाव वाला स्नेह भरा स्थाई सान्निध्य बना रहे। अशेष शुभकामनाएं!
Ashok Kumar Sharma
September 28, 2022 at 12:55 pm
बंधु कोउ हेमंत के जैसा ?
मूँछें काली, श्वेत है अंतस, फक्कड़-औघड़ अद्भुत कैसा!
माया मोह में बंधी ये दुनिया, सभी चाहते ताकत-पैसा
है कबीर चौरा का छोरा, दिल्ली कर डाला घर ऐसा
साठ बरस का पाठा प्यारा, आस्तिक ये नहीं पोंगे जैसा
जिए मरे अपनी शर्तों पर, दे प्रति-उत्तर जैसे को तैसा
श्वेत केशी मनु-पुत्र अनोखा, है चरित्र गंगाजल जैसा
-अशोक कुमार शर्मा