Yashwant Singh : ये दो आत्माएं कई दिनों से भूखी थीं। ये भीख मांगने वाली नहीं हैं, इसलिए किसी से कुछ कहा-मांगा नहीं। सतना स्टेशन पर इलाहाबाद के लिए ट्रेन खोजते वक़्त इनसे अचानक मुठभेड़ हो गयी। ये कोई मोबाइल नंबर कागज के टुकड़े पर लिखा हुआ एक साधु जी को देकर फोन मिलाने का अनुरोध करने के क्रम में गिड़गिड़ाते ये भी कह बैठीं कि कई दिन से यहीं बिना खाए पिए पड़ी हैं।
मुझे तो सुनकर एकदम से झटका लगा, स्तब्ध-सा हो गया। भागकर बिस्किट नमकीन और पानी की बॉटल दिया। साधु महाराज भी उदार मना थे। उनने चूवड़ा दिया। बाद में अपन ने कुछ रुपए भी दिए, ताकि आगे अगर भूख लगे तो खा सकें। तस्वीर में ये दोनों अम्माएँ चूवड़ा को पानी में भिगोकर खाते दिख रही हैं। आखिर में इनको इनकी इच्छित ट्रेन पर बिठाया।
अगल बगल का सारा सामान भी इनका है। इसमें कुछ भी महंगा सामान नहीं था। हमारे आप के लिए बस घास भूसा टाइप ही भर रखीं थीं। जाहिर है, ये गरीब मेहनतकश मज़दूरिनें हैं जो अपने दल से भटक गईं और किसी परिचित के इंतज़ार में इतने सामान के साथ बिना हिले डुले भूखे पेट जीते हुए स्टेशन को ही ओढ़ने-बिछाने लगीं। अपन भी प्रयागराज पहुंच गए हैं लेकिन ये दोनों भारतीय लोकतंत्र की मूक, बुजुर्ग, थकी और भूखी प्रतिमूर्तियाँ मेरे मन मस्तिष्क से विलग नहीं हो पा रही हैं!
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कुम्भ जैसे जमावड़े से मुझे हमेशा से प्रेम रहा है। एक जगह चिपक कर बने रहने वाले देसज जनों के लिए ये मौका आउटिंग का होता है। कोई तो बहाना है, क्या बूढ़ा क्या नौजवान, क्या महिला, क्या पुरुष… सब एक धुन में रेंगते बढ़े चलते हैं। कल सतना से चला तो ट्रेन नैनी स्टेशन से तीन किमी पहले ही रुक गयी। पड़ोस में खड़ी पहले से रुकी हुई एक ट्रेन के उदास मुसाफिर से पूछा तो वो बोला कि 3 घण्टे से खड़ी है ट्रेन।
यह सुन मैंने अपने इर्द गिर्द वालों को ललकारा और कपार पर लैपटॉप वाला बैग लाद चल दिया, पटरी के किनारे किनारे। आगे देखा तो समझ आया अकेला मैं ही दुस्साहसी नहीं। कुनबे का कुनबा पैदल सरक रहा है, गंतव्य की ओर, दगाबाज़ रेलवे को दुरदुराते हुए। कितना पैदल चला पूछिए मत। भला हो कुछ पुलिस वालों का जिनसे मीडिया वाला होने का फायदा उठाने का जुगाड़ किया तो उनने कुम्भ मेले जा रही श्याम बीड़ी वाले सांसद गुप्ताजी की दूध सप्लाई के लिए जा रही एक गाड़ी रोक कर उसमें ठेल दिया। इस तरह कुल आठ से दस किमी पैदल चलना बच गया।
कुम्भ के मीडिया सेंटर वाले इलाके में घुसने पर अखबार वालों का टेंट लगा देखा। एक अखबार वाले साथी सुगन्धित सुस्वादु खिचड़ी और चाय बांट रहे थे। परिचय हुआ तो आईटीओ दिल्ली वाले स्वतंत्र चेतना ऑफिस में काम करने वाले शुक्ला जी निकले। बड़े ही प्रेम से आने जाने वालों को बुला बुला खिला पिला रहे थे। 9 बजे रात तक अपने टेंट में घुस चुका था।
चार बेड वाले इस टेंट में मुझे अकेला देख मच्छरों ने रात भर खून फैक्ट्री चलाई। इसका एहसास रात भर टूटटी रही नींद और हाथ पैर मुँह में होने वाली खुजली से तो होता ही रहा, सुबह सफेद तकिए पर जगह जगह खून फेंक मरे मच्छरों ने भी गवाही दी। मुझे अनजाने हुई इन हिंसाओं पर अफसोस हुआ। फिर सोचा, क्या पता मेरे से पहले के किसी मुसाफिर का कारनामा हो, हालात देख मुझ पर मुझी ने केवल आरोप जड़ें-कुबूलें हों!
जो भी हो, अब आलआउट / कछुआ टाइप किसी मूक हथियार का जुगाड़ करना है। आज गंदे कपड़े सब खंगाल दिए। यात्राओं का जोश बैग में साफ कपड़े देख बरकरार रहता है। गंगा सप्लाई के पानी से बाथरूम में हर हर गंगे करते नहाया। अब लंच के बाद निहारा जाएगा, नए बसे इस अलौकिक महानगर को।
भड़ास के एडिटर यशवंत सिंह की एफबी वॉल से.
यशवंत की घुमक्कड़ी का इससे पहले वाला हिस्सा भी पढ़ें….
Abhinaw
February 7, 2019 at 10:02 am
Bhai , are you expecting five star treatment… Just a shameless approach to malign..Every one just praising services and preparation for kumbh mela but you are one man in odd… It was not surprising for me because I know you are inspired with the great Ravish Kumar…
Shaneer
February 8, 2019 at 3:02 pm
गुरु मगरमच्छरो से संघर्ष किए होते तो P M बनने का भी चांस था।