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सत्यजित रे प्रेजेन्ट्स…

Amitaabh Srivastava-

दूरदर्शन के अच्छे दिनों में सत्यजित रे प्रेजेन्ट्स शीर्षक से धारावाहिक आता था जिसमें महान फ़िल्मकार सत्यजित रे की कहानियों को लघु फिल्मों के साँचे में ढाल कर प्रस्तुत किया गया था। उस समय अभिनय की दुनिया के सर्वश्रेष्ठ नाम उस धारावाहिक से जुड़े थे। ओम पुरी, शशि कपूर, अमोल पालेकर, अनुपम खेर, विक्टर बनर्जी, उत्पल दत्त, श्रीराम लागू, अन्नू कपूर, मोहन अगाशे़, स्मिता पाटिल, सुप्रिया पाठक के चेहरे यादों में दर्ज हैं । सत्यजित रे के प्रिय जासूस फेलू दा की भूमिका में शशि कपूर को देखना दिलचस्प था क्योंकि रे के प्रिय अभिनेता सौमित्र चटर्जी उनकी फ़िल्म में यह किरदार निभा चुके थे।

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नेटफ्लिक्स पर सत्यजित रे की चार कहानियों को एक-एक घंटे की चार फ़िल्मों में देखकर वह पुराना समय याद आ गया। कहानियाँ पढ़ी नहीं हैं, इसलिए इनके फ़िल्मांकन के बारे में कोई तुलनात्मक टिप्पणी उस तरह नहीं की जा सकती जैसे देवदास पर बनी फ़िल्म को देखकर उपन्यास और फिल्म के तमाम पहलुओं पर बात होती है। लेकिन इन्हें एक स्वतंत्र कृति की तरह देखा जाय तो सबसे पहले तो यही अचंभा होता है कि सत्यजित रे ने एक कहानीकार के रूप में कुछ बेहद जटिल, मनोवैज्ञानिक, और काफ़ी हद तक असामान्य चरित्र भी रचे हैं। चार कहानियाँ हैं, तीन निर्देशक है- श्रिजित मुखर्जी, वासन बाला और अभिषेक चौबे। कलाकार सब इस बार भी बढ़िया चुने हैं। मनोज बाजपेयी, के के मेनन, गजराज राव, अली फज़ल, हर्षवर्धन कपूर, रघुवीर यादव, मनोज पाहवा, राजेश शर्मा , चंदन राय सान्याल, दिव्येंदु चक्रवर्ती, विदिता बाघ, श्वेता बासु प्रसाद, राधिका मदान।

मनोज बाजपेयी और गजराज राव की “हंगामा है क्यों बरपा” चारों कहानियों में सबसे धाँसू लगी । अभिषेक चौबे ने इसका निर्देशन किया है। अभिषेक चौबे इश्किया, डेढ़ इश्किया, उड़ता पंजाब और सोनचिरैया फिल्मों के लिए नाम कमा चुके हैं। फ़िल्म का शीर्षक ग़ज़ल गायक ग़ुलाम अली की बहुत मशहूर ग़ज़ल के मुखड़े से लिया गया है – हंगामा है क्यों बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है, डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है। एक ग़ज़ल गायक और एक पूर्व पहलवान और अब खेल पत्रकार की ट्रेन में मुलाक़ात की कहानी में चोरी की बात कैसे नाटकीय मोड़ लाती है, यह सस्पेंस लिखकर खोलना ठीक नहीं ,देख कर ख़ुद मज़ा लेना अच्छा होगा। मनोज मुसाफ़िर अली नाम के ग़ज़ल गायक हैं। ट्रेन में गजराज राव से मिलते हैं। गजराज याद करने की कोशिश करते हैं पहले कहीं मिले हैं क्या। एक घड़ी है ख़ुशबख़्त। अतीत का एक क़िस्सा है जो उन्हें जोड़ता है। मनोज बाजपेयी तो कमाल हैं ही, गजराज राव ने भी शानदार काम किया है। गजराज राव समर्थ अभिनेता हैं। शेखर कपूर की बैंडिट क्वीन में छोटी सी भूमिका में मनोज बाजपेयी के साथ दिखे थे। बरसों पहचान के लिए संघर्ष का लंबा दौर देखने के बाद बधाई हो की कामयाबी से उनके लिए नये रास्ते खुले हैं। रघुवीर यादव और मनोज पाहवा छोटी भूमिकाओं में भी याद रह जाते हैं। किली पटो मीनिया कहते हुए रघुवीर यादव मज़ेदार लगते हैं।

के के मेनन के किरदार वाली बहरूपिया इन्सान के मन की जटिलताओं की कहानी है। ताज्जुब सत्यजित रे की क़लम और कल्पनाशीलता पर होता है जिन्होंने ऐसे किरदार गढ़े जिन्हें मनोविज्ञान की भाषा में डार्क या एब्नाॅर्मल कहा जाता है। एक दब्बू मेकअप मैन , प्रोस्थेटिक्स की मदद से रूप बदलता है, भीतर की दमित भावनाएँ आकार लेती हैं, पेचीदगियाँ पैदा होती हैं। सेक्रेड गेम्स के गायतोंडे की तरह ख़ुद को भगवान समझने की हद तक। जटिल भूमिका में के के मेनन का काम बहुत अच्छा है लेकिन कहानी उलझ कर रह गई है।

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हर्षवर्धन कपूर स्पाॅटलाइट में फ़िल्मस्टार बने हैं जिसकी एक नज़र, अदा ही उसकी कुल पूँजी है। उनके सेक्रेटरी रोबी की भूमिका में चंदन राय सान्याल और धर्मगुरु की भूमिका में राधिका मदान का काम बेहतर है।

मिर्ज़ापुर वेब सीरीज़ के मशहूर गुड्डू पंडित यानि अली फ़ज़ल की कड़ी है फाॅरगेट मी नाॅट। एक बेहद कामयाब काॅरपोरेट हस्ती। सब कुछ उँगलियों पर । लेकिन कुछ ऐसा होता है कि याद साथ छोड़ने लगती है। अली अच्छे अभिनेता हैं, ऊर्जा से भरपूर, वह पहले साबित कर चुके हैं। उनके साथ हैं श्वेता बासु प्रसाद जिनकी फ़िल्म जामुन ने हाल में काफ़ी तारीफ़ें बटोरी थीं । उस फ़िल्म में रघुवीर यादव भी उनके साथ थे और द फ़ैमिली मैन के सनी हिंदुजा भी।

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सत्यजित रे के जन्म शताब्दी वर्ष में उनकी कहानियों का यह रूपांतरण उनके प्रति एक नयी, अनोखी और विस्मित करने वाली श्रद्धांजलि की तरह भी देखा जा सकता है और उनके कट्टर प्रशंसकों को इसमें आलोचना के तमाम बिंदु भी दिख सकते हैं।

सोचिये शरत चंद्र अगर संजय लीला भंसाली की देवदास देख पाते , शाहरुख़, ऐश्वर्य राय , जैकी श्राफ, माधुरी, किरन खेर वग़ैरह का काम देखते तो कैसा महसूस करते।

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