राघवेंद्र दुबे-
जाने क्यों जिस सम्बोधन से मुझे चिढ़ रही और जिसमें मुझे औपनिवेशिक बू आती थी, हम कभी – कभी उसी से उन्हें संबोधित करते रहे। और यह उनके व्यक्तित्व का असर था कि ‘ सर ‘ शब्द भैया का समानार्थी होता गया । उसी तरह ध्वनित भी होने लगा ।
‘ आज ‘ अखबार के मालिक शार्दूल विक्रम गुप्त जी और पत्रकारिता के नैपोलियन व्यक्तित्व विनोद शुक्ल जी के बाद ‘ भैया ‘ संबोधन उनके साथ ही जुड़ा। वह ‘ भैया ‘ या ‘ संपादक जी ‘ ही कहे जाते रहे । ठीक उसी तरह जैसे चन्द्रशेखर जी प्रधानमंत्री हो जाने और उसके बहुत बाद अंतिम सांस तक ‘ अध्यक्ष जी ‘। लोगों के दिल में बना यह ओहदा बिरलों को नसीब होता है । पद से हट जाने के बाद न कोई ‘ अध्यक्ष जी ‘ रह जाता है न ‘ सम्पादक जी ‘ । लेकिन वह ‘ संपादक जी ‘ ही कहे जाते रहे ।
घाट – घाट का पानी पीते लखनऊ , दिल्ली , कोलकाता होते पटना 2003 में पहुंचा था । अपने एकदम शुरूआती बहुत रोमांचक , जोखिम वाले , दुस्साहसिक एसाइनमेंट आज तक मेरी थरथराती याद हैं ।
2004: उफनाई और सब कुछ तबाह कर देने , लील लेने को उतारू नारायणी , गंडक , भूतही बलान नदी में बांस – बांस तक चढ़ जाती लहरों पर , इस सिरे से उस सिरे तक आम लदी एक बेऔकात डोंगी में बैठकर दरभंगा से कुशेश्वर स्थान तक शाम ढले से रात तक की मीलों यात्रा । बस मल्लाह और मैं । नदी के भंवर में जब कभी डोंगी नाच जाती थी , कलेजा मुंह को आ जाता था । बहुत नाराज हुए थे वह – प्लीज इस तरह का जोखिम न लिया करो .. कुछ हो जाता तो मैं क्या मुंह दिखाता ?
उन्होंने मुझे पूरे बिहार की बाढ़ की विभीषिका कवर करने भेजा था । बाढ़ के मारे , रोते – कलपते लोगों से अलग मैं ऐसे आदमियों को अपनी रिपोर्ट में खोज लाया जो विपदा एम्यून होकर अब बाढ़ के साथ जीने लगे थे और छाती तक पानी में डूबकर कर भी ‘ कमर की कटाव ‘ से निकले मादक गीत गाने लगे थे । कुशेश्वर स्थान : कुछ मनबढ़ लड़कों ने एक फ़िल्म के पोस्टर में करीना कपूर की अनावृत नाभि को खतरे के निशान में बदल दिया था । बाढ़ का पानी नाभि के नीचे ही था । इस यात्रा में मैं धीरेंद्र ब्रह्मचारी , सर गंगानाथ झा के गांव भी गया ।
उन्होंने ही भेजा था सुल्तानगंज ( भागलपुर ) से देवघर ,बाबा वैद्यनाथ धाम । कांवरियों के साथ का तकरीबन 101 किलोमीटर का यह यात्रावृतांत पूरे एक पेज में ‘ कांवरियों के साथ – साथ राघवेन्द्र दुबे ‘ बाइलाइन से छपा ।
जागरण के ‘ इंटेलेक्चुअल फेस ‘ के लिये समकालीन विमर्श का परिशिष्ट ‘ कसौटी ‘ थी तो उनकी परिकल्पना लेकिन उसका प्रभार उन्होंने मुझे सौंपा । देश भर के स्थापित लेखकों , विचारकों , अकादमिकों से लेख मंगाना और संपादकीय लिखना मेरा काम था । पटना से दिल्ली तक तमाम बुद्धिधर्मियों के बीच अपनी पहचान और पैठ बनाने का अवसर मुहैया कराने के लिये मैं उनका कृतज्ञ हूं । दिल्ली में वही कमाई , कसौटी वाली ही खा रहा हूँ । ‘ अपने ही बाग की धूप में बागवान ‘ उनकी ही मुहिम थी । 10 – 12 ऐसे अभियान मुझे याद हैं , जो उन्होंने चलवाये और जिससे वह तबका जो जागरण नहीं पढ़ता था , वह भी जागरण का फैन हुआ । उन्होंने मुझे फ़िल्म फेस्टिवल और लिट् फेस्टिवल से जोड़ा । मुझे जागरण के लिये अपरिहार्य और बौद्धिक संपदा का तमगा दिला दिया ।
ठीक हैं वह राजेन्द्र माथुर या प्रभाष जोशी नहीं रहे । हो भी नहीं सकते थे । उन्होंने कभी दावा भी नहीं किया जैसा एक दूसरे राज्य के स्टेट हेड नटई भर दारू चांप लेने के बाद अक्सर करते रहे । आज भी करते हैं ।
लेकिन एक कुशल संगठनकर्ता , प्रतिभा की परख , चयन और प्रोत्साहन , लोगों को जोड़ने , अद् भुत नेतृत्व क्षमता और प्रो इम्प्लाई रुख के व्यापक सन्दर्भों में पूरी हिंदी पट्टी में उनकी कोई मिसाल नहीं है । वह नवरत्न जुटा सकते थे , उनके नखरे भी उठा सकते हैं उन्हें संरक्षण भी दे सकते थे , देते रहे । इस मायने में नहीं है कोई दूसरा शैलेन्द्र दीक्षित ।
मैंने अपना अधिकतम बेहतर अखबार को दिया , कभी एहसास तक नहीं हुआ नौकरी कर रहा हूं ,तो यह उनकी ही वजह से उनके ही नेतृत्व में संभव था । लेकिन उन्होंने कुछ डगरा के बैगन , मतलब परस्त और पीठ में छुरा मारने वाले लोगों को भी प्रोत्साहित कर दिया , हो सकता है यह अति उदारता में हुआ हो । कुछ के लिये जागरण में फिर एंट्री का दरवाजा भी उन्होंने ही खुलवाया ।
वह इन्हें क्यों न पहचान सके ? इस चक्कर में कुछ बहुत प्रतिभाशाली मारे गए । सुविज्ञ दुबे ‘ जनेवि ‘ जैसे प्रतिभाशाली के साथ नाइंसाफी हुई । राज्य ब्यूरो में आखिर कुछ चुगद उनके जैसे पारखी के होते कैसे बने रह गए ? सुविज्ञ दुबे ‘ जनेवि ‘ के साथ फिर अन्याय हुआ है।
मुझे तो आपने मेरा वांछित दिलाया । यह कम नही है कि अखबार मालिकों में एक , लखनऊ , गोरखपुर , पटना , रांची , सिलीगुड़ी के निदेशक मुझे जागरण की बौद्धिक संपदा कहते थे । कुछ मेरी काबिलियत तो थी लेकिन बुलन्दी उन्होंने दिलाई ।
राजनीतिक रिश्ते बनाने में वह जरूर कच्चे रहे । उमाशंकर दीक्षित , शीला दीक्षित से लेकर कांग्रेस के भीष्म पितामह रहे द्वारिका प्रसाद मिश्र के बेटे तत्कालीन सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्र तक पारिवारिक संबन्ध होने के बावजूद उन्होंने कोई लाभ नहीं उठाया । हां कांग्रेस के लिये एक सॉफ्ट कॉर्नर उनमें हमेशा बना रहा । उन्होंने कब राजीव गांधी को भैया और राहुल गांधी को भतीजा कहना शुरू किया ये मैं जरूर नहीं जानता ।
मुझे उन पर गर्व है । उनके बनाये दो दर्जन संपादकों में तो तीन – चार स्टेट हेड भी हैं । प्रतिभा पहचाने , जुटाने , सलीके से काम ले लेने और अखबार को वांछित ऊँचाई तक ले जाने में उनका कोई जवाब आज भी नहीं है । उन्होंने जागरण की कई यूनिटें आनन – फानन स्थापित कीं । वह सही मायनों में लांचिंग एडिटर रहे । उन्होंने अखबार ही नहीं प्रतिभाएं भी लांच कीं । वह मेरी सारी अराजकता की ढाल बनते रहे और मेरी प्रतिभा अख़बार के लिए छान ली। विनोद शुक्ल जी की बात याद आ रही है — काबिल रिपोर्टर मेरे माथे का चंदन है।…. कोई चाहे कि राघवेन्द्र दुबे जैसे हों तो व्यवस्थित, फर्मेटाइज लेकिन लिखें ‘ ऑफबीट्स ‘, यह कैसे संम्भव है ?
एक बात और कि विनोद शुक्ल जी के साथ काम करते कभी एहसास नहीं हुआ कि दैनिक जागरण, नरेंद्र मोहन जी का है और दीक्षित जी के साथ काम करते यह कि अख़बार संजय गुप्त – सुनील गुप्त का है। विनोद शुक्ल जी और शैलेन्द्र दीक्षित की छतरी के नीचे हम कभी मालिकों के प्रति ‘ एकाउंटेबुल ‘ नहीं रहे। बाकी सारे संपादक और स्टेटहेड तो तलुआ चाट थे और हैं। मुझे खुद पर गर्व है कि मैं एहसान फ़रामोश नहीं हूं। इन दिनों जागरण में कृतघ्नता रग – रग में है, मालिकों को यह समझना चाहिए।
उनका डिजिटल वेंचर ‘ बिफोर प्रिंट ‘ भी बहुत कामयाब रहा है । सुना है वह बिहार का लीडर न्यूज पोर्टल हो चुका है ।
विनम्र श्रद्धांजलि
Dr Ujjwal Kumar-
शैलेंद्र सर, आप आज की पीढ़ी के पत्रकारों के लिए आदर्श रहेंगे। जहां आज के युवा पांच-सात साल की पत्रकारिता के बाद ही दाएं-बाएं झांकना शुरू कर देते हैं, पत्रकारिता के इस पेशे को कोसने लगते हैं। वहीं, आपने 40 साल तक की मुख्यधारा की पत्रकारिता की।
आपने रिटायरमेंट के बाद भी न्यू मीडिया के रूप में डिजिटल पत्रकारिता की जोरदार शुरुआत की थी। ऐसा अमूमन कम देखने को मिलता है। टीम लीडर के रूप में आप सफल रहे हैं। आपने अपनी टीम को टूटने नहीं दिया। किसी को नौकरी से बर्खास्त नहीं की। बहुत खीझे तो उनका स्थानांतरण कर दिया।
बहुसंस्करणीय हिंदी समाचार पत्रों पर अपनी पीएच.डी. करने के दौरान आपसे लंबी बातचीत की थी। अपने शुरुआती दिनों से लेकर अब तक के सफर पर उन्होंने बात की थी। करीब एक घंटे तक आपके वेब पोर्टल कार्यालय के अपने ऑफिस में थे। क्या गजब की फुर्ती दिखती थी। बिहार- झारखंड के के एक-एक ब्लॉक उनकी जुबान पर थे। पूरी तरह रच-बस गये थे पत्रकारिता में।
मुख्यधारा की पत्रकारिता में उन्होंने 40 साल की नौकरी केवल दो मीडिया संस्थानों में ही बिता दी थी। ‘आज’ अखबार से पत्रकारिता शुरू की थी। पटना में तो ‘दैनिक जागरण’ के संस्थापक संपादक रहे। सेवानिवृत्त होने तक ये पटना ‘दैनिक जागरण’ के संपादक बने रहे। अपने निजी जीवन के कई उतार-चढ़ाव की बातें भी उन्होंने साझा की थी। 2009 से 2012 तक कोई चार साल तक उनका सान्निध्य मिला था। गाहे-ब-गाहे अपनी बेबाक राय देते रहते थे। सर, आपको सादर नमन। श्रद्धांजलि।