तत्कालीन समूह संपादक रणविजय सिंह और स्थानीय संपादक हरीश पाठक मेरे पीछे पड़े हुए थे… बात उन दिनों की है जब राष्ट्रीय सहारा प्रबंधन ने मेरा स्थानांतरण पटना यूनिट में कर दिया था। उस समय मेरा नाम समाजवादी पार्टी से भी जोड़कर देखा जाता था। राष्ट्रीय सहारा के समूह संपादक रणविजय सिंह थे जो मेरी लोकप्रियता से जलते थे। रणविजय सिंह के दिमाग में मेरे बारे में अनाश-शनाप भर दिया था। रणविजय सिंह को लगता था कि जैसे समाजवादी पार्टी से जुड़कर मैंने नोएडा से बहुत धन कमा लिया हो।
रणविजय सिंह को चाटुकारिता पसंद थी और मेरा स्वभाव स्वाभिमानी व्यक्ति का है तो मेरे बात करने के लहजे से वह मुझसे बहुत नाराज थे। सी.एन. सिंह के कहने पर मैंने उनसे बात की थी पर जो उनका रुख था, उसे देखकर मैं उनसे बात करना ही नहीं चाहता था। मैं ट्रांसफर लेकर नोएडा आना चाहता था और उन्होंने मुझे नोएडा में न आने देने की कसम खा ली थी।
वह समय मेरे लिए बड़ा विकट था। मेरा बड़ा बेटा जो 7-8 साल का था उसे फिट की बीमारी थी और दूसरा बेटा लगभग तीन साल का था। मेरी पत्नी दोनों बेटों के साथ नोएडा में रहती थी। मैंने सी.एन. सिंह के अलावा तत्कालीन एमएलसी राकेश सिंह राणा, पूर्व कुलपति बी.एस. राजपूत के अलावा कई लोगों से रणविजय सिंह को कहलवाया पर वह नहीं पसीजे। तब जाकर मैंने संकल्प ले लिया कि रणविजय सिंह को उनकी औकात बता ही रहूंगा। कुल मिलाकर हमारी जिद इतनी बढ़ चुकी थी कि वह मेरी नौकरी लेना चाहते थे और मैं उन्हें उनकी औकात बताना।
रणविजय सिंह एक उप संपादक बनने के लायक भी नहीं थे और सहारा के चेयरमैन ने चाटुकारिता की वजह से उन्हें समूह संपादक बना दिया था। जब पटना में उनके जाने पर मैंने उनकी उपस्थिति में ही सहारा की दमनात्मक नीतियों का विरोध कर दिया तो मुझे नौकरी से निकालने की उनकी रणनीति आक्रामक हो गई। उन्होंने पटना का पूरा प्रबंधन मेरी नौकरी लेने के लिए लगा दिया। तत्कालीन स्थानीय संपादक हरीश पाठक जो मेरी लेखों की तारीफ किया करते थे उन्होंने अचानक मुझे अपमानित करना शुरू कर दिया। मेरी कमियां निकालकर मुझे कारण बताओ नोटिस दिये जाने लगे। यह बात मैं गर्व से लिख रहा हूं कि पटना में मुझे तीन कारण बताओ नोटिस मिले पर मेरे जवाब इतने सटीक होते थे कि प्रबंधन एक में भी मुझ पर कार्रवाई न कर सका।
यह संयोग ही था कि मेरे हाथ पटना के संपादक हरीश पाठक और समूह संपादक रणविजय सिंह की हस्तलिखित गल्तियां लग गई। मैंने वह दस्तावेज रख लिया क्योंकि मैं जानता था कि सहारा प्रबंधन से निपटने के लिए ये रामबाण होंगी। यही हुआ भी। रणविजय सिंह ने मेरा काम की स्कैनिंग करानी शुरू कर दी। रोज मुझे नोटिस मिलने लगे। अंतत: मैंने एक दिन वह पत्र प्रबंधन को लिखा जिसकी कल्पना भी सहारा प्रबंधन ने नहीं की होगी। जिस पेज में मेरी गल्तियों को इंगित किया गया था, उन गल्तियों के बारे में मैंने डेस्क इंचार्ज राकेश सेन, जिसने पेज चेक किया था, पहले उनको इंगित किया कि जब उन्होंने पेज चेक किया तो उन्हें नोटिस क्यों नहीं दिया गया। उसी के साथ स्थानीय संपादक हरीश पाठक (उन्होंने ‘आशीर्वाद’ की जगह ‘आर्शीवाद’ लिख रखा था) और समूह संपादक रणविजय सिंह की कमियां (उन्होंने पेज चेक करने के निर्देश में अपने पेन से कई जगह ‘कि’ की जगह ‘की’ लिख रखा था) की कॉपी लगा दी।
जवाबी पत्र में अंतत: लिखा कि मैं तो उप संपादक हूं मुझसे गल्ती होना स्वभाविक है और मैं अपनी गल्तियों से सीख लेते हुए उनमें सुधार का प्रयास करता हूं। पर अखबार का काम एक टीम वर्क होता है। इसमें कोई एक व्यक्ति जिम्मेदार नहीं होता है। यदि पेज में गलती गई है तो पेज चेक करने वाला डेस्क इंचार्ज भी उतना ही जिम्मेदार है। वैसे भी स्थानीय संपादक हरीश पाठक खुद भी पेज चेक करते थे। तब मैंने स्थानीय संपादक और समूह संपादक की गल्तियों को इंगित करते हुए लिखा था कि ये दोनों तो अपने कनिष्ठों को गलती कने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।
कुल मिलाकर वह पत्र सहारा प्रबंधन के खिलाफ आर-पार का था। मेरा पत्र पढ़कर पूरा स्टाफ और प्रबंधन आश्चर्य में पड़ गया था। उस पत्र से इतना हुआ कि जो प्रबंधन मुझ पर आक्रामक था उसने मुझे परेशान करने के लिए मेरे ड्यूटी जनरल कर दी। तभी उपेंद्र राय पॉवर में आ गये। उनके करीबी विजय राय से मेरे संबंध अच्छे थे। वह एक संवेदनशील व्यक्ति हैं। उन्होंने मेरी मदद की। विनय कुमार पटना और उनकी जगह मैं नोएडा में आया। वह प्रकरण जबर्दस्त था।
रणविजय सिंह उस समय भी समूह संपादक थे। सब जानते थे कि रणविजय सिंह मुझे नोएडा में नहीं देखना चाहते हैं तो फिर मैं कैसे नोएडा आ गया। मैंने पटना से ही सहारा की दमनात्मक नीतियों का विरोध करने की ठान ली थी। नोएडा में आकर मैंने पहला काम यही किया जो स्टाफ रणविजय सिंह का भय मानता उसके सामने ही मैं रणविजय सिंह को कुछ नहीं समझता था।
यदि हम सोफे पर बैठे हुए हैं और वह आ जाए तो दूसरे लोग सोफे से उठ लेते थे पर मैं नहीं उठता था बल्कि पैर आगे कर लेता था। हालांकि मेरे इस तरह के संस्कार नहीं हैं पर रणविजय सिंह ने मुझे मजबूर कर दिया था। इसी बीच विजय सिंह पर कुछ आरोप लगाकर उन्हें संस्था से निकाल दिया गया तब भी मेरा फिर से पटना में ट्रांसफर होने की अफवाह उड़ने लगी। हालांकि कुछ हुआ नहीं।
राष्ट्रीय सहारा में मुझे क्रांतिकारी माहौल बनाने में करीब 3 साल लगे। जब लोगों के मन से प्रबंधन का भय निकल गया था तो कई महीने तक वेतन ने देने और मांगने पर हड़काने का रवैया प्रबंधन का हो गया तो कर्मचारी उग्र होने लगे। इसी बीच जब चेयरमैन सुब्रत राय जेल में गये तो उन्होंने कर्मचारियों से मदद मांगने का एक पत्र लिखा, जिसमें उन्हें जेल से छुड़ाने के लिए आर्थिक मदद मांगी गई थी। लोगों ने जैसे जिससे बना दिया।
कहा जाता है कि चेयमरैन के एक पत्र पर साढ़े 1200 करोड़ रुपये जमा हुआ था। जब तिहाड़ जेल में मैंने उनसे यह बात पूछी तो उन्होंने किसी दूसरे मद में जरूरत होने की वजह से पत्र लिखना बताया था। कुल मिलाकर सहारा की दमनात्मक नीतियों का विरोध प्रिंट मीडिया में होना शुरू हो गया था। ब्रजपाल सिंह और मेरी अगुआई में सहारा जैसे संस्था में एक बड़ा आंदोलन हुआ। जो प्रबंधन कर्मचारियों को अपमानित करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता था वही प्रबंधन नतमस्तक होते देखा गया। मतलब जो रणविजय सिंह किसी को कुछ नहीं समझते थे वे किसी से आंख मिलाने की स्थिति में नहीं थे। मैंने रणविजय सिंह को उनकी औकात बता दी थी। इसलिए कि वह कभी जिंदगी में किसी कर्मचारी को इतना परेशान करें। हालांकि आंदोलन में हम लोग तो टर्मिनेट हुए ही रणविजय सिंह को संस्था से जाना पड़ा।
मैं समाजवादी पार्टी से जुड़ा हुआ था। नोएडा का प्रवक्ता बनने के बाद प्रताप सेना उत्तर प्रदेश का अध्यक्ष बना था। समाजवादी पार्टी में लंबे संघर्ष के बाद मेरी पैठ ठीकठाक हो गई थी। प्रताप सेना अध्यक्ष पूर्व सांसद सी.एन. सिंह ने मेरी मीटिंग अमर सिंह भी कराई थी तथा उन्हें मेरे अध्यक्ष बनने बारे में बताया था। प्रताप सेना के संरक्षक अमर सिंह ही थे। बात 2005 की है।
यह वह दौर था जब नोएडा से लेकर मेरे गृह जनपद बिजनौर तक मेरी ठीकठाक पहचान बन चुकी थी। बिजनौर में तो मेरा कदम इतना बढ़ गया था कि ततत्कालीन बिजनौर के जिलाध्यक्ष शाहिद अली खां और जिले के मंत्री मूलचंद चौहान पर भी मेरी बातों का प्रभाव था। बिजनौर के तत्कालीन डीएम एस.के. वर्मा और एसएसपी उमानाथ सिंह से सिफारिश लगाने की मेरे पास बिजनौर से एक से बढ़कर एक हस्ती की सिफारिश आती थी।
उस समय मैंने बिजनौर में जनपद जनहित में कई काम कराए थे। मेरे खुद के गांव में जब बरसात में कहीं से निकलने का रास्ता नहीं होता था। यदि कोई बीमार जाए तो डॉक्टर तक न ले जाया जाए। यह स्थिति थी। गांव के कुछ लोगों ने वह समस्या मुझे बताई। तब मैंने अपने ही गांव में बिरादरी के एक कार्यक्रम में गांवों के तीनों ओर से सड़क बनवाने का वादा किया। तब कुछ लोगों ने मेरी उस बात को मजाक में लिया पर जब एक सड़क जटनीवाली से गांव तक तत्कालीन विधायक राम स्वरूप सिंह, एक भनेड़ा से आ सड़क को जोड़ती हुई हमारे गांव तक जिला पंचायत से और एक गांव से खेड़ी तक ब्लाक प्रमुख से बनवाई। इस योगदान में हमारे प्रताप सेना के गांव और आसपास के कार्यकर्ताओं पवन राजपूत, नरेंद राजपूत के अलावा कई अन्य का बहुत योगदान रहा था।
उसी समय मैंने गांव में बहन की शादी की दिल से पैसा लगाया और व्यवस्था भी बहुत बढ़िया रही। उस मेरा प्रयास था कि हमारे समाज का कोई व्यक्ति बिजनौर या फिर नजीबाबाद विधानसभा से विधानसभा चुनाव लड़े। बहन की शादी समाज के लगभग सभी सम्मानित लोग आए थे। पूर्व सांसद हरवंश सिंह उस समय क्षत्रिय महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। वे भी अपनी पूरी टीम के साथ आए थे। नोएडा से प्रताप सेना की पूरी टीम थी। कुल मिलाकर बहुत बढ़िया कार्यक्रम हुआ था।
समाजवादी पार्टी में मेरी लोकप्रियता और गांव में बहन की शादी में बड़ा तामझाम। इन दोनों की वजह से मैं राष्ट्रीय सहारा प्रबंधन की नजरों में आ गया। यह संयोग ही था कि उसी समय अमर सिंह के संबंध किसी बात को लेकर सहारा के चेयरमैन सुब्रत राय से गड़बड़ा गये। सहारा प्रबंधन को मौका मिल गया। मेरा ट्रांसफर नई यूनिट के नाम पर पटना कर दिया गया। राजनीति में वह मेरा पीक टाइम था। इसलिए मुझे बहुत दुख के साथ गुस्सा भी आया। अमर सिंह से मेरी इतनी अच्छी बात नहीं थी। हां, सी.एन. सिंह से मैं खुला हुआ था। इसलिए मैंने उनसे ही अपनी पीड़ा बताई। मुझे कारण नहीं पता है पर वह कहते रहे कि उनकी जे.बी. राय से बात हो चुकी है। जल्द ही मुझे नोएडा बुला लिया जाएगा। पर पटना से वापस आने में मुझे साढ़े चार साल लग गए।
लेखक चरण सिंह राजपूत लंबे समय तक सहारा मीडिया में कार्यरत रहे हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.