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सुख-दुख

शेष नारायण सिंह पंचतत्व में विलीन, देखें तस्वीरें, सोशल मीडिया में श्रद्धांजलियों-संस्मरणों का ताँता!

अलविदा Shesh Narain Singh सर!

तस्वीर सौजन्य : आलोक सिंह जी (नोएडा पुलिस कमिश्नर)


लखनऊ: ७ मई. 2021 : उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी ने वरिष्ठ पत्रकार शेष नारायण सिंह के निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया है। मुख्यमंत्री जी ने दिवंगत आत्मा की शान्ति की कामना करते हुए शोक संतप्त परिजनों के प्रति संवेदना व्यक्त की है।


विजय विद्रोही-

वरिष्ठ पत्रकार शेष नारायणजी नहीं रहे . बहुत से किस्से याद आ रहे हैं जब वो एबीपी न्यूज में अतिथि की भूमिका में आते थे . बहस में बैठते थे . उन दिनों मैं भी अपने चैनल एबीपी के लिए बहस में शरीक होता था . एक किस्सा शेषजी ने सुनाया था जिसका जिक्र मैंने अपनी किताब नब्बे सेंकड की टीवी पत्रकारिता में भी किया है .

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शेषजी उन दिनों कहीं नौकरी नहीं कर रहे थे . दूरदर्शन में पहली बार बहस में गये तो वहां गेस्ट कार्डिनेशन का काम कर रही एक लड़की ने उनसे पद नाम पूछा कि परिचय में क्या कहा जाए . शेषजी ने कहा कि लिख दो वरिष्ठ पत्रकार . करीब तीन चार महीने बाद फिर उनका दूरदर्शन जाना हुआ तो वहां उसी गेस्ट कार्डिनेशन का काम कर रही लड़की ने पूछा कि सर , कहीं नौकरी लगी या वरिष्ठ पत्रकार ही लिखूं परिचय में .

शेषजी ने बहस में ब्रेक के दौरान मुझे यह किस्सा सुनाया था . हम दोनों बहुत हंसे थे . बाद में उन्होंने कहा कि विजय , टीवी पत्रकारिता भी अजीब चीज है . यहां वरिष्ठ होते ही नौकरी जाने का खतरा मंडराने लगता है .

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Vinod Sharma-

Shesh Narain Singh was moulded from the clay of yore. For that reason perhaps he was so well rooted in reality that missed many of his peers. He could disagree with grace and agree without going overboard.

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Blessed with a rare temperament embellished with good learning, he lightened up tense debates with anecdotal humour and poetic recollections. It were perhaps his frequent visits (with his grandchildren) to his countryside ancestral home in UP that saved him from the urban decay that dehumanises so many of us in metro cities.

He was from a school of journalism where the seniors did not indoctrinate or brainwash rookies. Where neophytes were encouraged to see things for themselves, grow organically and debate knowledgeably.

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I got to know of Sheshji’s hospitalisation on seeing his daughter Tini’s appeal on Twitter for plasma. I spoke to her a day later and was reassured to know that the transfusion has happened. But the family’s efforts to rescue him from the deadly virus didn’t succeed, devastating so many of his friends, including me.

In Shesh Narain Singh’s departure we’ve lost a journalist who debated with etiquette, wielded an erudite pen and had a heart of 24 carat gold. Be at peace wherever youv’e gone my friend….you’d be missed and cited as an example of amazing warmth and dignity.

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अशोक दास-

वरिष्ठ पत्रकार Shesh Narain Singh जी भी चले गए। 2 दिन से उनके सेहत को लेकर मन व्याकुल था। फेसबुक खोलने से तो डर लगने लगा है। लेकिन सबकी सलामती की दुआ के साथ जब आज फेसबुक देखा तो आज ये निराशाजनक खबर मिली।

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उनसे परिचय Yashwant Singh भैया के जरिये हुआ था।

दरअसल उनका होना कइयों के लिए एक भरोसा था। वो जाति के ठाकुर थे, लेकिन जातिवादियों की ख़बर लेने में देर नहीं लगाते थे। सामाजिक न्याय और बराबरी के पक्षधर थे।

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मीडिया में कमजोर वर्ग के युवाओं के लिए एक अभिभावक थे। जब “दलित दस्तक” मैगज़ीन लांच हुई, वो खासे उत्साहित थे। शुरुआती संपादक मंडल का हिस्सा थे।
आप हमारी यादों में हमेशा जिंदा रहेंगे सर। आपकी बहुत याद आएगी।


यशवंत सिंह-

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तब डिजिटल का दौर नहीं था। टीवी न्यूज़ चैनल भी कम थे। भड़ास को शुरू हुए बस कुछ बरस बीते थे। बात लगभग दस ग्यारह साल पहले की है। Shesh नारायण जी नियमित तौर पर भड़ास में लिखते थे। उनका भड़ास ऑफ़िस आना जाना लगा रहता था।

भड़ास लोकप्रिय हुआ और इसने हम सबको पहचान दिलाने का काम शुरू किया। एक रोज़ बीकानेर से न्योता आया। एक सांध्य दैनिक के लॉंचिंग समारोह में अतिथि बनने का। हमने शेष भैया को बताया कि हम लोगों को बीकानेर बुलाया गया है अख़बार लाँच करने के लिए। उनकी सहमति के बाद हम दोनों कार्यक्रम में शिरकत करने पहुँचे।

उस आयोजन (25 मार्च 2010) के वक्त का एक video यूँ ही कहीं पड़ा हुआ था। तीन बरस पहले एक रोज़ डेटा सफ़ाई के दौरान ये video मिला तो भड़ास पर अपलोड कर दिया। आज दुबारा खोजकर देखा। video लिंक ये है-

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https://youtu.be/yTtrJydC9GM


देवेंद्र सुरजन-

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बड़े भैया Lalit Surjan जी के बाद अगर किसी के न रहने का सबसे ज्यादा रंज होगा तो वह हैं Shesh Narain Singh.

वे देशबन्धु समाचार पत्र समूह के राजनीतिक संपादक कई वर्षों से थे और अपनी साफ़गोई के लिये पहचाने जाते थे. मेरा उनसे कभी मिलना नहीं हुआ लेकिन पहले मेसेंजर पर और बाद में उनसे व्हाट्सएप पर कभी कभार चैटिंग हो जाया करती थी. देशबन्धु में उनके साप्ताहिक कॉलम को मैं कम पढ़ पाता था लेकिन उनके लाइव शोज़ टीवी चैनलों पर देख लिया करता था.

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अक्सर वे Alok Joshi जी के शो आवाज़ अड्डा पर नज़र आया करते थे. यह शो अंबानी के चेनल सीएनबीसी आवाज़ पर आया करता है लेकिन इस चैनल से जोशी जी की बिदाई के बाद शेष जी का भी इस चेनल के पर्दे पर आना बंद हो गया और हम इन दोनों बेबाक, अडिग और ईमानदार पत्रकारों को देखने से वंचित हो गए.

उनके लाइव शोज़ के चलते मैं उनसे यदाकदा सवाल भी पूछता और जरूरत पड़ती तो टिप्स भी देता. इस शो में जब सरकार और उसके नुमाइंदों को फटकार लगवानी होती तो जोशी जी शेष जी को जरूर आमंत्रित करते थे.

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एक बार पत्रकार से भाजपा प्रवक्ता बने नवीन शर्मा को अपना जूनियर कहते हुए उन्होंने ऐसी झाड़ लगाई कि फिर नवीन जी शो के ख़त्म होते तक चुप ही रहे.
ऐसे ही कभी मैंने चलते शो के दौरान उन्हें जबलपुर की एक घटना का उदाहरण दिया तो उनका तुरंत जवाब आया कि पिटवायेंगे_क्या?

उनसे आखिरी बार चर्चा Rajeev Ranjan Srivastava के साथ देशबन्धु लाइव पर दो माह पूर्व हुई डिबेट के दौरान हुई जब उन्होंने मेरी इस बात का समर्थन किया कि सरकार को अडानी – अम्बानी के अलावा भी कुछ ईमानदार उद्योगपतियों को आर्थिक समर्थन देना चाहिए जो देश के वास्तविक विकास में कारगर भूमिका निभा सकते हैं.

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देशबन्धु में उन्हें कभी कभार पढ़ना या टीवी पर उन्हें बिना किसी डर या संकोच के सपाट भाव से बोलते देखकर लगता था कि वे देशबन्धु की सात दशकों की उसी नीति को पूरी शिद्दत से निभा रहे हैं जिसकी शुरुआत बाबूजी ने की थी और जिसे बड़े भैया स्व.ललित सुरजन जी बिना किसी समझौते के और मजबूती से आगे बढ़ा रहे थे.

विगत दिसम्बर में बड़े भैया के अप्रत्याशित अवसान के बाद भी देशबन्धु और देशबन्धु लाइव की रीति नीति में जरा भी फ़र्क नहीं आया है.

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अपनी रीति नीति पर देशबन्धु के डटे रहने में निश्चित रूप में शेषनारायण जी का बड़ा योगदान और संबल था और जिसे Jaishankar Gupta, Mukesh Kumar, अमलेन्दु उपाध्याय राजीव रंजन श्रीवास्तव और सर्वमित्रा सुरजन बख़ूबी निभा रहे हैं.

उम्मीद यही है कि बाबूजी, भैया और शेष जी ने बहाव के विरुद्ध जिस तरह देशबन्धु की नाव खेयी, वह अनवरत उसी तरह जारी रहेगी.

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शेष जी का जाना अत्यंत दुखदायी है. उन्हें अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके परिवार से इस दुख की घड़ी में गहरी सम्वेदनाओं के साथ हम अपने को जोड़ते हैं. शेष जी को अशेष श्रद्धांजलियां.


वीर विनोद छाबड़ा-

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स्मृति शेष हो गए शेष जी… जब एनडीटीवी के रवीश को पत्रकारिता के लिए प्रतिष्ठित मैग्सेसे अवार्ड मिला तो उन्होंने आभार जताते हुए कुछ पत्रकारों का नाम लिया जिनकी पत्रकारिता से वो प्रभावित रहे और जिनसे उन्होंने सीखा. उनमें शंभूनाथ शुक्ल और शेष नारायण सिंह का नाम भी था. मुझे बेइंतहा ख़ुशी हुई. शुक्ल से तो भेंट हो चुकी थी, मगर शेष जी और अन्य हज़रात से भेंट नहीं हुई थी. तब मैंने फेसबुक पर उनका नाम लेते हुए इच्छा व्यक्त की अगर ज़िंदगी ने मुझे वक़्त दिया तो उनसे ज़रूर मिलना चाहूंगा.

शेष जी मेरे फेसबुक मित्र तो थे ही. फोन पर भी बातचीत होती रहती थी. वो मेरे हमउम्र थे और पोलिटिकल साइंस से एमए थे. वो बात अलबत्ता दूसरी थी कि शेष जी फैज़ाबाद की अवध यूनिवर्सिटी से थे और मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी से. वो बताते थे कि डिबेट वगैरह में भाग लेने वो अक्सर लखनऊ यूनिवर्सिटी जाते रहते थे. ज़रूर तुमसे मुलाक़ात हुई होगी. मुझे भी ऐसा ही लगता था, बंदा जाना-पहचाना है.

पिछले साल सात मार्च की बात है, मेरे मुझे फोन आया, मैं अनिल सच्चर बोल रहा हूँ, शेष नारायण सिंह आपके घर पहुँच रहे हैं. मुझे यक़ीन नहीं हुआ कि नामी पत्रकार और न्यूज़-18 के पोलिटिकल हेड शेष जी मुझे मिलने आ रहे हैं. और थोड़ी देर बाद ही एक साधारण कद-बुत वाला व्यक्ति अपने युवा मित्र अनिल के साथ मेरे सामने खड़ा था. अक्सर ऐसा ही होता है कि लिटरेचर या जर्नलिज्म में जिनके क़द बहुत बड़े होते हैं वो रूबरू बहुत साधारण ही होते हैं. मेरी और आपकी तरह हाड़-मांस के पुतले. वो सर पर सेलेब्रेटी का मुकुट नहीं धारण किये होते.

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बहरहाल, शेष जी मेरे सामने बैठे थे. बहुत देर तक मैं समझ नहीं पाया कि ये नामी-गिरामी पत्रकार शेष जी ही हैं. निशब्द था मैं. बात-चीत शुरू हुई तो मैंने बताया कि जिस सोफे पर आप बैठे हैं ये मेरे पिता जी की निशानी है और इसका अगर डीएनए कराया जाए तो कई हस्तियों के नाम सामने आएंगे जिनसे आप परिचित हैं. वो मुस्कुराये – अरे वाह, बहुत भाग्यशाली हूँ मैं.

शेष जी के लिए चाय बनाने जब मैं उठा तो उन्होंने मना कर दिया, मेरे लिए सिर्फ गुनगुना पानी. मुझे हैरानी हुई. मैंने अपनी तमाम ज़िंदगी के तीन-चार ही बंदे देखे हैं जो चाय नहीं पीते. मेरी पत्नी को ऐसे लोग बहुत अच्छे लगते हैं. मैंने पूछा, बिना चाय लिए इतना कैसे सोचते और लिखते हैं? वो हंस दिए. ज़्यादा देर बैठे नहीं वो. किसी कार्यक्रम में जाना था. वक़्त निकाल कर मुझसे मिलने आये थे. मैंने कहा, आपने मुझे कृतार्थ किया. उन्होंने मुझे गले लगा लिया. जल्द ही फिर मिलने का वादा किया. लेकिन मुझे नहीं मालूम था कि ये उनसे मेरी पहली और आख़िरी मुलाक़ात है. कुछ ही दिन बाद कोरोना शुरू हो गया और फलस्वरूप लम्बा लॉकडाउन. हालात सामान्य होते ही दिख रहे थे कि फिर कोरोना आ गया. और इस बार आज उन्हें ही लील जाने की ख़बर आयी. यक़ीन नहीं हुआ तो फेसबुक पर उनका प्रोफ़ाइल खोल कर देखा. पहली मई को उनकी आख़िरी पोस्ट थी जिसमें उन्होंने अपने आसाम ट्रिब्यून के मित्र कल्याण बरुआ के कोरोना के कारण निधन पर शोक व्यक्त किया हुआ था. फिर लखनऊ स्थित उनके मित्र अनिल सच्चर को फोन किया. अनिल ने रुंधे गले से बताया, ये ख़बर सही है.

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शेष जी आप मेरी स्मृतियों में सदैव दर्ज रहेंगे.


श्यामलाल यादव-

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मित्रों, शेष नारायण सिंह जी से प्रत्यक्ष मुलाकात चार साल पहले ही ABP News के एक कार्यक्रम में हुई थी. लेकिन पिछले दिनों ही स्वर्गवासी हुए हम दोनों के करीबी बद्री विशाल जी से उनके बारे में काफी सुना था. उसके बाद एक-दो बार फिर मिले.

एक बार हम दोनों के करीबी श्री केके सिंह प्रतापगढ़ से आये थे तो उनके साथ मिले. एक महीने पहले उनका किसी काम से फोन आया था तो भी कई मसलों पर लम्बी बात हुई थी. तीन दिन पहले उन्हें प्लाज्मा की जरूरत का पता चला तो उनकी तीमारदार से बात हुई. प्लाज्मा की व्यवस्था हो गयी थी.

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उनका स्वास्थ्य सुधार की राह पर चलते-चलते अचानक बिगड़ गया. आज तड़के बुरी खबर मिली तो स्तब्ध रह गया. कैसा दुर्योग है कि बद्री विशाल जी के निधन की खबर कुछ दिनों पहले शेष जी की फेसबुक पोस्ट से मिली थी और चंद दिनों बाद ही कोरोना उन्हें भी हमसे छीन ले गया. विद्वान पत्रकार को भावभीनी श्रद्धांजलि. आज सुबह उनके निधन की खबर से सन्न था।


ओम थानवी-

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सोचा था किसी निधन पर अभी और पोस्ट नहीं लिखूँगा। हताशा फैलती है। किसी मित्र के जाने पर सदमे की दशा में हों, तब वैसे भी क्या लिखें। सिवा अलविदा कहने के। अलविदा भी क्या कहना-सुनना, जब सिलसिला ही चल निकला हो। बहरहाल।

संजीदा पत्रकार और ज़िंदादिल इंसान शेषनारायण सिंह का जाना फिर क्षुब्ध कर गया है। सहमतियों और जब-तब असहमतियों के बीच भी कितने आत्मीय थे। जो सोचते थे, वही बोलते थे। अपनी दमदार ठसक भरी आवाज़ में। कई टीवी बहसों में हम साथ शरीक हुए। आइआइसी में भी मिलते रहे। ग्रेटर नोएडा में अपने शानदार घर की तसवीर दिखाते, जहाँ चाहकर भी जाना न हो सका।

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मुंबई से प्लाज़्मा का बंदोबस्त हुआ तो उनके बचने की उम्मीद बंध चली थी। हालाँकि एक चिकित्सक ने बताया था कि कोविड में प्लाज़्मा कोई कारगर उपाय नहीं माना जाता।

बहुत दुखद हुआ। शेषभाई की स्मृति में नमन।

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राजकेश्वर सिंह-

भुलाए नहीं जा पाएंगे शेषनारायण जी,

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कितने निर्मल, बेदाग़ और भावुक व्यक्ति थे शेष नारायण सिंह। कोरोना ने उनकी जान ले ली। कुछ निश्चिंत रहने वाले व्यक्ति थे, तभी तो बीते दिनों उनके चाहने वाले कई लोग, उन्हें इलाज के लिए जब एडमिट कराने पर ज़ोर दे रहे थे, वे कई दिन तक वह टालते रहे। फिर अस्पताल में भर्ती तो हुए, लेकिन देर चुकी थी। कोरोना ने उन्हें हम सबसे छीन लिया।

वे कितने सरल व भावुक थे ? एक वाक्या याद आ रहा है। मैं लखनऊ में एक अर्द्ध न्यायिक निकाय में ज़िम्मेदारी के पद था। एक दिन उनका फ़ोन आया, बोले- भयवा हमका बंदूक का एक लाइसेंस देवाय दा । मैंने पूछा कि इस उम्र में बंदूक़ लेकर क्या करेंगे। रोज़ टीवी डिबेट में रहते हैं। आराम से कमा-खा रहे हैं। बंदूक की बात छोड़िए, चैन से रहिए। वे फिर बोले- मेरी बात सुनिए, किसी का आपसे कोई काम था। वह मुझसे सिफ़ारिश कराना चाहता था, लेकिन किसी ने उससे कहा कि शेषनारायण से मत कहलवाना। उनकी बात वे नहीं सुनेंगे…. शेष जी ने आगे कहा, दरअसल जो लोग हमारे-आपके अच्छे रिश्ते को ख़राब करने में लगे हैं, अब उन सबको ठीक करना है। … ऐसे थे शेषनारायण जी।इसे उनका बालमन नहीं तो और क्या कह सकते हैं ।

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बात दस- बारह साल पहले की होगी। एक बार संसद भवन में उन्होंने दो-तीन दिन मुझे वाच किया। उन्हें लगा कि मैं कन्नी काट रहा हूं। फिर एक दिन संसद भवन के 12 नंबर गेट से बाहर निकलते ही उन्होंने मुझे पकड़ लिया। बोले-क्यों दूर-दूर भाग रहे हैं। मैने उनसे उनकी शिकायत की। उन्होंने शिकायत को ख़ारिज कर दिया। मैं कुछ अडिग दिखा। अगले पल उनकी आंखों से आंसू बहने लगे। संसद परिसर में उन्हें कोई इस तरह देख न ले, मैं उन्हें लेकर वहां से तुरंत बाहर चला गया। उनकी बातें सुनीं। अपनी शिकायत वापस ली। उन्हें संतुष्ट किया। उस दिन वे दिल को छू गये। अहसास हुआ कि वाक़ई वे कितने निर्मल, निश्छल हैं। कितना साफ-सुथरा जीना चाहते हैं।…

मैने कई बार उनसे कहा, इतनी मेहनत भाग-दौड़ क्यों करते हैं ? यह बात इसलिए हुई , क्योंकि ग्रेटर नोयडा में रहने के बावजूद वे कई बार मुलाक़ात के लिए किसी के समय देने पर वे सुबह सात बजे ही दिल्ली में होते थे।मैं कहता उतनी दूर से इतने सुबह- सुबह क्यों और कैसे आते हैं ? उनका जवाब होता, पुराने संबंध हैं, मना नहीं कर सकता। कुछ न कुछ बात अगले को भी करनी रहती है। मैं भी एंगेज रहता हूं । काम मिल रहा है, कर रहा हूँ, जिस दिन यहां मेरी ज़रूरत नहीं रह जायेगी, सुलतानपुर अपने गांव चला जाऊंगा। बच्चे सेटल हैं, करना क्या है।

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वाक़ई, बहुत याद आयेंगे साफ़गोई से सब कुछ कहने व हमेशा सच्चाई को स्वीकार कर जीने वाले भाई शेष नारायण जी, विनम्र श्रद्धांजलि।


अरुण त्रिपाठी-

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एक सामंती समाजवादी का बिछोह

शेष भाई(शेष नारायण सिंह) ने कहा था कि 26 अप्रैल को बेटी मृणाल की शादी में जरूर आएंगे। उनको एक ही दिक्कत थी कि उसी दिन अरविंद मोहन जी की बेटी अभिलाषा की शादी थी और उसका कार्यक्रम स्थल हमारे वाले से दूर था। लेकिन बाद में वह दिक्कत भी दूर हो गई। तब उम्मीद बंधी कि उनसे भेंट होगी। लेकिन एक दिन पहले मेसेज आया कि उनका नौकर पाजिटिव आया है इसलिए वे नहीं आ पाएंगे।
शायद यही वह मोड़ था जिसने उनके स्वास्थ्य पर धावा बोल दिया। उम्मीद थी कि उन्हें प्लाज्मा मिल गया है और वे जल्दी ठीक होकर आएंगे। लेकिन सुबह अंबरीश कुमार की पोस्ट से पता चला कि वे नहीं रहे।

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हाल में उन्होंने हमारी पुस्तक- राष्ट्रवाद देशभक्ति और देशद्रोह- की प्रस्तावना लिखी थी। उनकी टिप्पणी ने पुस्तक को सार्थक कर दिया था। इस बीच टीवी पर उनकी टिप्पणियां और न्यूज 18 में उनका ब्लाग देखकर कम अच्छा लगता था। सवाल उठता था कि वे सरकार की गलत नीतियों की प्रशंसा क्यों कर रहे हैं। कभी फोन पर पूछने की हिम्मत नहीं हुई लेकिन लगता था कि तसल्ली से मिलेंगे तो जरूर पूछेंगे। पर वह मौका आया नहीं।

मैं उन्हें बड़ा भाई मानता था और भरोसा रखता था कि जब भी कोई जरूरत पड़ेगी तो खड़े मिलेंगे। वे वैसा करते भी थे लेकिन खामोशी से। वे इतने समाजवादी थे कि विद्यार्थी उनके कंधे पर हाथ रखकर खड़े होते थे। लेकिन अवधी व्यक्ति की तरह एक सामंती स्वभाव भी था और जिसकी बात अच्छी नहीं लगती थी उसे डांट देने में कोई परहेज नहीं करते थे। हंसमुख, सरल और अभिव्यक्ति की कला में माहिर शेष भाई से हर कोई कुछ न कुछ सीख सकता था। उनका इस तरह जाना भीतर तक हिला गया है। शेष भाई आप कभी भुलाए नहीं जा सकेंगे। आप की स्मृति को नमन।

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निशीथ जोशी-

यादें शेष: शेष नारायण सिंह….. आज शेष नारायण सिंह की आत्मा ने उस चोले को त्याग दिया जिसे उसने इस पृथ्वी लोक में धारण किया था। नमन और विनम्र श्रद्धांजलि। ईश्वर और महान गुरुजनों से प्रार्थना है कि उनकी आत्मा को अपने हृदय में स्थान दें और परिजनों को शक्ति।

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शेष जी से हमारे कई रिश्ते थे। शुरुआत एक संपादक और संपादकीय पेज पर लिखने वाले से हुई थी। फिर अच्छे मित्र बन गए। वो बड़े भाई थे हम छोटे। उनको श्री उदयन शर्मा जी लेकर आए थे। शेष जी समाजवादी विचारक थे और एक शिक्षक। उदयन शर्मा जी ने ही मुलाकात करवाई थी। उनकी नियुक्ति के समय श्री सुब्रत राय याने बड़े साहब जो हमारे सहारा समूह त्याग देने के बाद सहारा श्री हो गए, ने हमारी राय ली थी। हमने शायद ही किसी की नियुक्ति में इंकार किया होगा। खैर संपादकीय क्या लिखा जाए, किस विषय पर शेष जी और श्री सुरेन्द्र द्विवेदी जी से चर्चा होती थी। कई बार श्री ज्ञानेंद्र भारतरिया जी की मदद भी ली जाती थी।

शेष जी का विचार प्रवाह होता था। हां झुकाव समाजवाद की ओर बना रहता। द्विवेदी के लेखन में समाचार पक्ष अधिक और विचार कम। शेष जी ने श्री मधु लिमए, रबी राय आदि समाजवादियों से बात और परिचय कराया था। भाई मोहन सिंह से माया पत्रिका के काल से और श्री जनेश्वर मिश्र से इलाहाबाद से ही परिचय था। यह सब शेष नारायण सिंह के मुरीद हुआ करते थे।

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जब मुलायम सिंह यादव द्वारा आर्थिक सहायता पाने को पत्रकारों की सूची मीडिया में आई तो शेष नारायण सिंह जी का नाम भी था। वह उनकी माता श्री के उपचार के लिए सीधे अस्पताल को भुगतान हुआ था। राष्ट्रीय सहारा के मैनेजिंग एडिटर और डायरेक्टर श्री जे बी राय ने शेष जी को निकालने का ऐलान कर दिया। हम ने शेष जी से बात की और जब यह तय हो गया कि उन्होंने कोई आर्थिक मदद नहीं ली है मां के इलाज के लिए सीधा भुगतान किया गया था तो हम अड़ गए। उसी रात शेष जी के घर गए। उनको साफ कहा कि आपका इस्तीफा होगा तो हमारा भी होगा। हमने श्री सुब्रत राय ने बात की। उनको पूरा मामला समझाया तो हमारी बात मान ली गई और शेष जी राष्ट्रीय सहारा में ही बने रहे।

शेष जी को यह बात चुभ गई थी। कुछ समय बाद वे सहारा समूह से अलग हो गए, हमको इस बात की गारंटी दी कि आपसे कभी अलग नहीं होंगे जीते जी। उनकी विभिन्न विषयों पर पकड़ और जानकारियों के स्तर पर टिप्पणी करने योग्य हम स्वयं को लायक हो समझते हैं। क्या ज्ञान का स्तर था ऐसे लोग बहुत कम मिलते हैं जीवन में जिनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है।

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शेष नारायण सिंह एक सच्चे इंसान भी थे। जब भी उनसे बात होती वे कहते कि आपके सही व्यक्ति के साथ स्टैंड लेने के साहस को हमने देखा है इसलिए आपकी बहुत इज्जत करता हूं। इस बीच बहुत लंबे समय से उनसे संपर्क नहीं हो पाया था। उनको टीवी डिबेट में देख कर आनंद आता था। कड़कदार आवाज अभी भी गूंज रही है जेहन में। कई बार उनका हमारे निवास पर भी आना हुआ। आज शेष जी के जाने की खबर आई तो श्रीमती तनुजा जी से बताया। वे भी आवक रह गईं। कारण शेष नारायण सिंह इतने जीवंत व्यक्तित्व थे कि मृत्यु उनका वरण करने का दुस्साहस करेगी हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे। अलविदा मित्र आप सदा याद रहेंगे।


अवधेश कुमार-

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क्या लिखूं क्या ना लिखूं। शेष नारायण सिंह की मृत्यु की जानकारी से स्तब्ध हूँ। निकटतम लोगों के जाने का ऐसा सिलसिला जारी है कि अपनी लंबी अस्वस्थता एकदम कमजोर लगने लगी है। भाई के दबाव में अभी दिल्ली से बाहर हूँ। यहां नेटवर्क की समस्या होने से यह ह्रदयविदारक जानकारी भी देर से मिली।

अपना करीब 28-29 वर्ष का संबंध रहा। जबरदस्ती घर बुलाकर खाना खिलाने से लेकर डांट डपट कर यह नहीं करना है यह करना है जैसा आदेशात्मक लहजे में बात करने वाला अब कहाँ मिलेगा। मेरी पत्नी को बेटी कहते तथा उसकी मृत्यु के बाद सार्वजनिक तौर पर मुझे कहते कि ये मेरे दामाद हैं। कंचना के जाने के बाद कुछ दिनों तक मेरे घर आकर अकेलापन तोड़ने का उनका व्यवहार हमेशा सामने रहता है।

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वो अकेले व्यक्ति थे जो हमेशा कहते कि आपको लेकर बड़े – बड़े लोग गलत धारणा बनाए हुए हैं। आपका अपना विचार है लेकिन कुछ लोग समझते हैं कि आप किसी पार्टी से हैं। फिर मुझे डांटते कि अपने जीवन का भी ध्यान रखिए। इधर कुछ वर्षों से वे कहने लगे थे कि अब मैं गांव जाऊंगा और वहीं रहूंगा लेकिन वहां की राजनीति में नहीं पड़ूंगा। यहां दिल्ली में तो अकेले बुढे – बुढियों की मृत्यु के बाद लाश सड़ती है तो पता चलता है। ऐसी स्थिति अपने लिए नहीं रहने दूंगा। वो स्थिति नहीं आई लेकिन ऐसी मृत्यु कोई नहीं चाहेगा। इस संदर्भ में मुझे उन्होंने कहा कि आप भी इसी पर विचार करिए लेकिन डर है कि गांव में भी आप कूद पड़ेंगे और पंचायती राज के कारण वहां राजनीति इतनी गंदी हो गई है कि फंस जाएंगे।

ऐसी बहुत सारी जीवन की व्यावहारिक सीख वाली स्मृतियाँ हैं। मुझे गांवों की संस्कार वाली उनकी सहज – सरल पत्नी का चेहरा याद आ रहा है। पता नहीं इस बिछोह को वो कैसे झेल पाएंगी।

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मेरी त्रासदी है कि अपने कुछ दोस्त बचे थे। सोच रहा था कि स्वस्थ होने के बाद नए सिरे से सबके यहां जाना – आना, भोजन करना फिर से आरंभ करुंगा। साथ में कुछ काम करने का भी विचार किया था।

इसीलिए कहा गया है कि मनुष्य सोचता है और ईश्वर संपादित करते हैं। पता नहीं क्या होने वाला है। शेष जी के लिए श्रद्धांजलि लिखने की हिम्मत नहीं हो रही।

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यूसुफ़ किरमानी-

हम लोगों की हर मुलाक़ात शेष रहती थी…

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जब शेष नारायण सिंह एनडीटीवी में नहीं गए थे, उससे भी पहले हम लोग जेवीजी टाइम्स में साथ काम कर रहे थे। …बहुत शानदार उर्दू बोलते थे और मुझसे कहते कि यार थोड़ा अच्छी वाली उर्दू में ही जवाब दिया करो। शेष नारायण सिंह लंबे वक्त तक यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि मुझे उर्दू लिखना-पढ़ना नहीं आती थी। अब तो शायद किसी को जेवीजी टाइम्स याद भी न हो।

आईएनएस बिल्डिंग के बाहर चाय की दुकान, भीकाजी कामा प्लेस के दफ़्तर में, प्रेस क्लब, सहारा की कैन्टीन में हम लोगों की तमाम मुलाक़ातें याद आ रही हैं।

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शायद कम लोगों को मालूम होगा कि शेष उर्दू अख़बारों के लिए भी लिखते थे।

शेष आज चले गए और एक बार हमारी मुलाक़ात शेष रही।

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भाजपा के तमाम नेताओं से बेहतरीन संबंध होने के बावजूद वह जीवनभर सेकुलर मूल्यों के वाहक रहे।

एक लाइन में कहूँ तो – शेष एक नफ़ीस इंसान थे।

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अलविदा…दोस्त… सब अशेष है।


मुकेश कुमार-

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और अब बेबाक, बिंदास, मस्तमौला, यारों के यार शेष नारायण जी भी नहीं रहे। समझ में नहीं आ रहा कैसे रिएक्ट किया जाए।
कुछ दिन पहले ही एक परिचर्चा में शामिल होने के लिए उनसे आग्रह कर रहा था, मगर इंटरनेट ठीक न होने के कारण शामिल नहीं हो सके। तय था कि ठीक होते ही हिस्सा लेंगे। बताया था कि बिटिया भी आ गई है और अब घर में दिन मज़े में गुज़र रहे हैं।
फिर ख़बर आई कि कोरोना हो गया है। लगा कि जल्दी ही ठीक हो जाएंगे। इलाज़ भी उन्हें समय पर मिल गया था। फिर ख़बर आई कि प्लाज्मा की ज़रूरत है। और अब आज सुबह उनके न रहने की दुखद सूचना मिली।
शेष नारायण हमेशा स्मृतियों में रहेंगे। अपनी वैचारिक सजगता और राजनीति की गहरी समझ के लिए भी पत्रकार जगत उन्हें याद रखेगा।
लगातार मित्र-परिचतों की असमय निधन की ख़बरों ने अंदर तक हिला दिया है।

भावभीनी श्रद्धांजलि।

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रवीश कुमार-

शेष जी…

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ज़िंदगी की इमारत अनेक लोगों के दम पर टिकी होती है। अलग अलग समय में कुछ लोग आपकी बुनियाद में खाद-पानी डाल जाते हैं। हरा कर जाते हैं। मेरी ज़िंदगी में वो इतनी तरह से शामिल हैं, इस हद तक मेरी ज़िंदगी में भरे हुए हैं कि उनके नहीं रहने की ख़बर के लिए कोई जगह नहीं बची है। उनके बग़ैर इन स्मृतियों की गठरी बंद हो गई है। अचानक कुछ याद नहीं आता या फिर इतना कुछ याद आ जाता है। पतंग की डोर जैसे अचानक कट गई है। देर तक उस पतंग को ओझल होते देख रहा हूँ। इतना कुछ था कि रोज़ या कई महीनों तक मुलाकात की ज़रूरत ही नहीं रही। यह तब होता है जब आप होने को लेकर पूरी तरह आश्वस्त हो जाते हैं। हर दिन किसी के नहीं रहने की इतनी ख़बरें आती हैं कि शोक अब भीतर गहरे बैठने लगा है। बाहर नहीं छलकता है। उसके बाहर आने का जैसे ही वक्त होता है, फिर किसी के चले जाने की ख़बर आ जाती है। किसी को बुढ़ापे में नौजवान की तरह देखना हो तो आप शेष जी से मिल सकते हैं। अब नहीं मिल पाएंगे। वो हमेशा नौजवान ही रहे। शेष जी, बहुत मिस कर रहा हूं।


राजेश प्रियदर्शी-

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शेष जी नहीं रहे. कोरोना काल के मंद होने पर जो कुछ भेंट-मुलाक़ातें हुई थीं उनमें शेष जी के साथ उनके घर पर गुजरी एक बेहद ख़ुशनुमा शाम भी थी. शेष जी मामूली नहीं बल्कि मेरे सीनियरों के भी सीनियर थे लेकिन उनका व्यवहार हमेशा दोस्ताना रहा. अपनी उम्र के हिसाब से बिल्कुल चुस्त दुरुस्त थे, सजग और संयमी भी. राजनीति और भाषा पर उनकी पकड़ ग़ज़ब थी, एक शानदार ब्रॉडकास्टर (1997 में मेरे बीबीसी ज्वाइन करने से काफ़ी पहले से वे अख़बारों की समीक्षा सुबह के रेडियो कार्यक्रम में किया करते थे). गर्मजोशी से भरे एक साफ़ दिल इंसान को हमने बहुत जल्दी खो दिया है. अस्पताल में बेड और प्लाज़्मा मिलने के बाद बंधी उम्मीद टूट गई. सादर विदा.


विनीता यादव-

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शेष नारायण सिंह जी। ये वो नाम है जिनमे मेने मीडिया में अपना परिवार पाया है । जब भी आपसे बात करती या आपको पास पाती बस लगता जैसे किसी बड़े का हाथ सर पर है अब सब ठीक है । और आपने आज वो हाथ हटा लिया । आप बोलते थे की मैं हिम्मत वाली हूँ हारूँगी नही लेकिन आप आज इस बीमारी से हार गए। आपने मुझमें हमेशा विश्वास को भरा , मैं आपके विश्वास को कभी हारने नही दूँगी ,वादा है आपसे। याद है आपको abp के न्यूज़ रूम में आप दूर से मुझे लीडर बुलाते थे । कितना प्यार आपने दिया । मुझ हिम्मत दी हमेशा । मैं मान नही सकती मेरा होसंला चला गया। “बेटा” जब आप बोलते थे तो सुकून मिलता था.


उमेश चतुर्वेदी-

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1993 में दिल्ली आने से पहले तक बीबीसी सुनने का जबरदस्त रोग था..उन्हीं दिनों सुबह के कार्यक्रम में अखबारों की समीक्षा का एक कार्यक्रम आना शुरू हुआ। हफ्ते में करीब तीन दिनों तक एक गुरू गंभीर और स्पष्ट आवाज अखबारों की समीक्षा करती थी।

1994 में भारतीय जनसंचार संस्थान की ओर से हिंदी पत्रकारिता के छात्रों का बड़ा समूह नोएडा के राष्ट्रीय सहारा अखबार में दाखिल हुआ। मजबूरी थी कि उसके अलावा किसी भी बड़े संस्थान ने दो या तीन से ज्यादा लोगों को इंटर्नशिप की मंजूरी नहीं दी थी।

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आज तो ज्यादातर संस्थानों में इंटर्न के साथ ज्यादातर सीनियर काम सिखाने के नाम पर बदतमीजी करते नजर आते हैं..हां, इंटर्न अगर खूबसूरत कन्या हुई तो उसे कुछ विशेषाधिकार जरूर मिल जाते हैं..लेकिन राष्ट्रीय सहारा में ऐसा नहीं था..सीनियर ना सिर्फ हमें काम सिखाते थे, बल्कि चाय-पकौड़ा भी खिलाते थे। उन दिनों सहारा में दो रूपए के कूपन पर भरपेट खाना मिलता था। सीनियर हमें वह कूपन भी खरीदवाते थे..

तब मेरी अंग्रेजी बहुत कमजोर हुआ करती थी..वैसे तो अब भी अच्छी नहीं है। लेकिन कह सकता हूं कि अब अंग्रेजी पढ़कर हिंदी में उसे लिख सकता हूं. इसके लिए मैंने सिर्फ और सिर्फ तब राष्ट्रीय सहारा के जनरल डेस्क पर ही काम किया.

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लिखना-छपना तो शुरू हो चुका था, लेकिन इच्छा रहती थी कि संपादकीय पेज पर छपें। लेकिन सिंगल लीवर, सिंगल हड्डी और चालीस किलो के मुन्नानुमा इंसान को लोग गंभीर मानते ही नहीं थे..

उन्हीं दिनों पता चला कि सहारा के संपादकीय पृष्ठ जो सज्जन देखते हैं, वे वही हैं, जो बीबीसी पर सुबह अपनी गुरू गंभीर आवाज में अखबारों की समीक्षा किया करते हैं..जी हां, आपने ठीक समझा, वे शेष नारायण सिंह थे।

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उन दिनों सहारा दफ्तर से रोजाना शाम को करीब साढ़े छह-सात बजे दिल्ली के लिए स्वराज माजदा बस चलती थी, जो निजामुद्दीन पुल से प्रगति मैदान वाया गोल डाकघर होते हुए जेएऩयू कैंपस जाती और फिर वहां से दक्षिण दिल्ली की ओर निकल लेती। तब जेएनयू के कई शोध छात्र सहारा के सोशल रिसर्च विंग आदि में काम करते थे।

अपने डेस्क इंचार्ज की कृपा से हमें भी बस में वापसी की यात्रा की सहूलियत होती थी। उसी बस में दरवाजे के बाद सबसे पहले वाली बाएं की सीट पर रोजाना शेष नारायण सिंह बैठा करते। एक दिन जब बस कुछ खाली हुई तो मैं हिम्मत करके उनके पास जा पहुंचा, उन्हें अपना परिचय दिया और संपादकीय पृष्ठ पर लिखने की इच्छा जताई।

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मुझे आशंका थी कि वह झिड़क देंगे..लेकिन यह क्या..उन्होंने ना सिर्फ खुशी जताई, बल्कि आश्वासन भी दे दिया कि तुम्हारे लायक विषय सूझते ही बताता हूं।

इसके बाद उनका जो नेह और छोह मुझ पर कायम हुआ, आखिरी वक्त तक बरकरार रहा। उन्होंने सहारा के संपादकीय पेज पर न जाने कितने लेख, शनिवार को आने वाले मुद्दा पेज के लिए भर-भर पेज के कितने आलेख मुझसे लिखवाए होंगे, खुद मुझे ही याद नहीं।

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आज संपादकीय पन्नों पर अपना नाम जो छपता रहता है, उसका सबसे बड़ा श्रेय शेष नारायण सिंह को जाता है। बाद के दिनों में वे मेरे भैया हो गए थे। कुछ साल पहले तक मेरे योग्य बेहतर नौकरी की चिंता में वे लगातार परेशान रहे। वे कहा करते थे, तुम्हारी प्रतिभा के साथ न्याय नहीं हुआ।
पहली बार सहारा में नौकरी के लिए उन्होंने कोशिश की थी, लेकिन पता नहीं किसने अड़ंगा लगा दिया। दूसरी बार एनडीटीवी में जब वे गए तो मेरे लिए दो बार कोशिश की, लेकिन पहली बार पता नहीं किसने तो दूसरी बार उनके उस बॉस ने अड़ंगा लगा दिया, जिसकी वजह से उन्हें एनडीटीवी छोड़ना पड़ा।

शेष जी पर लिखने लगूं तो जगह कम पड़ जाएगी। वे मेरी समझ पर कितना भरोसा करते थे, इसका अनुभव तब हुआ, जब वे अपनी बेटी के पास नार्वे गए। वहां उन दिनों संसदीय चुनाव हो रहा था। मुझसे लगातार पूछते कि इस पर कैसे लिखूं? मैं उन्हें झिड़कता था कि अब मैं आपको सिखाउंगा कि आप कैसे लिखेंगे? वे फौरन जवाब देते, तुम ज्यादा समझते हो। यह बताना छोटापन होगा कि मैंने उन्हें क्या बताया।

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शेष जी की पढ़ाई-लिखाई लखनऊ और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुई थी। जेएनयू से निकलते ही उन्हें बढ़िया नौकरी मिल गई थी। बहुत कम लोग जानते हैं कि जब लोग क्रेडिट कार्ड नाम की चिड़िया से परिचित भी नहीं थे, तब उनकी कंपनी उन्हें क्रेडिट कार्ड देती थी। लेकिन उनका मन कंपनी की बजाय लेखन-पाठन की दुनिया में लगता था। लिहाजा वे पत्रकारिता में लौट आए और उन्हें बाद के दिनों में जबरदस्त संघर्ष करना पड़ा। वह लंबी कथा है।

आज के कुछ कथित बड़े पत्रकारों को देखता हूं और शेष जी को देखता हूं तो लगता है कि शेष जी कितने बड़े थे। आज के कुछ बड़े पत्रकार खुद को निरपेक्ष और निष्पक्ष होने का दावा करते नहीं थकते। लेकिन अतीत में वे पासवान के पेरोल पर थे या कांग्रेस के, यह तथ्य वे सब जानते हैं, जो आज से पंद्रह-बीस साल पहले तक रिपोर्टिंग की दुनिया में सक्रिय थे। किसके-किसके इन कथित निरपेक्ष और निष्पक्ष पत्रकारों ने पोतड़े धोए हैं, चरण चुंबन लिया है, इन पंक्तियों के लेखक ने अपनी आंखों से देखा है। लेकिन शेष जी अलग किस्म के पत्रकार थे। उन्होंने ना तो किसी का चरण चुंबन लिया और ना ही किसी विरोधी वैचारिक धुरी वाले राजनेता के कमर के नीचे वार किया। उनका समर्थन और विरोध व्यक्ति या वैचारिक राजनीतिक सोच के आधार पर नहीं, मुद्दा आधारित होता था। इसीलिए वे बीजेपी नेताओं के भी करीब थे तो कांग्रेसियों के भी। वामपंथी और समाजवादी भी उनकी परिधि में थे। वे मुद्दों पर समर्थन या विरोध के हिमायती थे, सिर्फ वैचारिक या व्यक्तित्व आधारित विरोध के दर्शन में उनका भरोसा नहीं था। इसीलिए कई बार वे मुद्दाहीन विरोध के लिए हड़काने से भी बाज नहीं आते थे।

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शेष जी, स्वास्थ्य के लिहाज से बिल्कुल फिट थे। उनको न तो कोई व्यसन था और ना ही कोई बड़ा रोग। शायद ही किसी ने सोचा होगा कि वे इतनी जल्दी हमें छोड़ अनंत यात्री बन जाएंगे।

कोरोना काल में श्रद्धांजलि लिखने से बचता रहा…लेकिन शेष जी से अपना ऐसा रिश्ता रहा, कि खुद को रोक पाना असंभव हो रहा है..

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बहुत कुछ याद आ रहा है…क्या लिखूं, क्या छोडूं की उधेड़बुन में सिर्फ अलविदा ही कह सकता हूं, अलविदा शेष जी.. जहां भी रहें, उसी तरह मस्त रहें, जैसे इस दुनिया में थे…


जयशंकर गुप्त-

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मन तो इससे पहले भी कई अवसरों पर व्यथित और विचलित हुआ लेकिन आज की तरह अग्रज शेषनारायण सिंह जी के निधन के बाद दिल्ली में हमने खुद को इतना असहाय और अनाथ शायद ही कभी महसूस किया हो! शेष जी हमारे गार्जियन, हमारी ताकत थे। बड़े पत्रकार थे लेकिन उससे बड़े सहृदय और मददगार इन्सान थे। उनका बड़प्पन ही था कि हमारे बारे में सार्वजनिक मंचों पर और सोशल मीडिया पर भी अक्सर कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण बोल जाते, लिख जाते और हमारे विरोध जताने पर डांट देते, ‘चोप्प रहिए। मुझे मालूम है कि किसके बारे में क्या लिखना और बोलना है।’ हम दोनों देशबंधु अखबार से जुड़े रहे। वह हमारे राजनीतिक संपादक थे।

प्रेस क्लब में हों या किसी महंगे होटल-रेस्तरां में, मुझे याद नहीं कि खाने की टेबल पर उन्होंने मुझे कभी बिल भुगतान करने की छूट दी होगी। यह बताने पर भी कि इतना सक्षम और समर्थ तो हूं ही कि इस बिल का भुगतान कर सकूं, वह सार्वजनिक तौर पर भी डांट देते, ‘आप मुझसे छोटे हैं, अनुज हैं, वही रहिए।’ किसी राजनीतिक विमर्श में मतभेद होने पर (ऐसा बहुत कम ही होता था) वह हमारी बात मान लेते थे। कहते थे, ‘अब जयशंकर कह रहे हैं तो ठीक ही कह रहे होंगे।’ मेरे बच्चों को भी वह उसी शिद्दत से प्यार करते थे जैसे कोई गार्जियन अपने भतीजे-भतीजियों से करते हैं। अब यह सब कौन करेगा! कौन हमें स्नेहिल झिड़कियां देगा। कौन हमारे हर संघर्ष में मजबूत दीवार की तरह हमें ताकत देगा।

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शेष जी, अभी हम सबको आपके गार्जियनशिप और मार्गदर्शन की और बहुत आवश्यकता थी। आप हमारी यादों में पूर्ववत अपनी चिर परिचित मुस्कराहट और झिड़कियों के साथ रहेंगे, हमेशा। नतशीष नमन। अश्रुपूरित आदरांजलि।

नोट: करीब ढाई साल पहले, दिसंबर 2019 के पहले सप्ताह में हम कुछ पुराने अभिन्न मित्रों का जमावड़ा ग्रेटर नोएडा के संवाद अपार्टमेंट में स्थित शेष जी के निवास पर हुआ था। हम सबके प्रिय चंचल कुमार भी आए थे। रात्रिभोज उनके ही सम्मान में हुआ था। देर रात तक गप शप, पुराने किस्सों, संस्मरणों का दौर चलता रहा। बाद में विदाई के समय संवाद अपार्टमेंट के लाॅन में यह तस्वीर भी ली गई थी। इसमें बाएं से अजित अंजुम, शीतल सिंह, आलोक जोशी, शेष जी, कुमार नरेंद्र सिंह, चंचल जी, अनूप भटनागर, कमरवहीद नकवी और सबसे दायीं ओर हम दिख रहे हैं।

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1 Comment

1 Comment

  1. श्याम चन्द्र श्रीवास्तव

    May 8, 2021 at 8:53 am

    हे पत्रकारिता के महामानव स्तिमृशेष शेष जी आपको विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। बहुत याद आओगे आप। सुलतानपुर जनपद आपसे गौरवांवित था

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