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सुख-दुख

शिव में ऐसा क्या है जो उत्तर में कैलास से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम् तक एक जैसे पूजे जाते हैं?

हेमंत शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार

Hemant Sharma : सत्य के शिव… आखिर शिव में ऐसा क्या है? जो उत्तर में कैलास से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम् तक वे एक जैसे पूजे जाते हैं। उनके व्यक्तित्व में कौन सा चुंबक है जिस कारण समाज के भद्रलोक से लेकर शोषित, वंचित, भिखारी तक उन्हें अपना मानते हैं। वे क्यों सर्वहारा के देवता हैं। उनका दायरा इतना व्यापक क्यों है?

राम का व्यक्तित्व मर्यादित है। कृष्ण का उन्मुक्त और शिव असीमित व्यक्तित्व के स्वामी। वे आदि हैं और अंत भी। शायद इसीलिए बाकी सब देव हैं। केवल शिव महादेव। वे उत्सव प्रिय हैं। शोक, अवसाद और अभाव में भी उत्सव मनाने की उनके पास कला है। वे उस समाज में भरोसा करते हैं। जो नाच-गा सकता हो। यह शैव परंपरा है। जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे कहते हैं ‘उदास परंपरा बीमार समाज बनाती है।’ शिव का नृत्य श्मशान में भी होता है। श्मशान में उत्सव मनानेवाले वे अकेले देवता है। लोक गायन में भी वे उत्सव मनाते दिखते हैं। ‘खेले मसाने में होरी दिगंबर खेले मसाने में होरी। भूत, पिशाच, बटोरी दिगंबर खेले मसाने में होरी।’

सिर्फ देश में ही नहीं विदेश में भी शिव की गहरी आस्था है। हिप्पी संस्कृति साठवें दशक में अमेरिका से भारत आई। हिप्पी आंदोलन की नींव यूनानियों की प्रति संस्कृति आंदोलन में देखी जा सकती है। पर हिप्पियों के आदि देवता शिव तो हमारे यहाँ पहले से ही मौजूद थे या यों कहे शिव आदि हिप्पी थे। अधनंगे, मतवाले, नाचते-गाते, नशा करते भगवान् शंकर। इन्हें भंगड़, भिक्षुक, भोला भंडारी भी कहते हैं। आम आदमी के देवता भूखो-नंगों के प्रतीक। वे हर वक्त समाज की सामाजिक बंदिशों से आजाद होने, खुद की राह बनाने और जीवन के नए अर्थ खोजने की चाह में रहते॒हैं।

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यही मस्तमौला ‘हिप्पीपन’ उनके विवाह में अड़चन था। कोई भी पिता किसी भूखे, नंगे, मतवाले से बेटी ब्याहने की इजाजत कैसे देगा। शिव की बारात में नंग-धड़ंग, चीखते, चिल्लाते, पागल, भूत-प्रेत, मतवाले सब थे। लोग बारात देख भागने लगे। शिव की बारात ही लोक में उनकी व्याप्ति की मिसाल है।

विपरीत ध्रुवों और विषम परिस्थितियों से अद्भुत सामंजस्य बिठानेवाला उनसे बड़ा कोई दूसरा भगवान् नहीं है। मसलन, वे अर्धनारीश्वर होकर भी काम पर विजेता हैं। गृहस्थ होकर भी परम विरक्त हैं। नीलकंठ होकर भी विष से अलिप्त हैं। उग्र होते हैं तो तांडव, नहीं तो सौम्यता से भरे भोला भंडारी। परम क्रोधी पर दयासिंधु भी शिव ही हैं। विषधर नाग और शीतल चंद्रमा दोनों उनके आभूषण हैं। उनके पास चंद्रमा का अमृत है और सागर का विष भी। साँप, सिंह, मोर, बैल, सब आपस का बैर-भाव भुला समभाव से उनके सामने है। वे समाजवादी व्यवस्था के पोषक। वे सिर्फ संहारक नहीं कल्याणकारी, मंगलकर्ता भी हैं। यानी शिव विलक्षण समन्वयक॒ हैं।

शिव गुट निरपेक्ष हैं। सुर और असुर दोनों का उनमें विश्वास है। राम और रावण दोनों उनके उपासक हैं। दोनों गुटों पर उनकी समान कृपा है। आपस में युद्ध से पहले दोनों पक्ष उन्हीं को पूजते हैं। लोक कल्याण के लिए वे हलाहल पीते हैं। वे डमरू बजाएँ तो प्रलय होता है, प्रलयंकारी इसी डमरू से संस्कृत व्याकरण के चौदह सूत्र भी निकलते हैं। इन्हीं माहेश्वर सूत्रों से दुनिया की कई दूसरी भाषाओं का जन्म हुआ।

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आज पर्यावरण बचाने की चिंता विश्वव्यापी है। शिव पहले पर्यावरण प्रेमी हैं, पशुपति हैं। निरीह पशुओं के रक्षक हैं। आर्य जब जंगल काट बस्तियाँ बसा रहे थे। खेती के लिए जमीन तैयार कर रहे थे। गाय को दूध के लिए प्रयोग में ला रहे थे पर बछड़े का मांस खा रहे थे। तब शिव ने बूढ़े बैल नंदी को वाहन बनाया। सांड़ को अभयदान दिया। जंगल कटने से बेदखल साँपों को आश्रय दिया।

कोई उपेक्षितों को गले नहीं लगाता, महादेव ने उन्हें गले लगाया। श्मशान, मरघट में कोई नहीं रुकता। शिव ने वहाँ अपना ठिकाना बनाया। जिस कैलास पर ठहरना कठिन है। जहाँ कोई वनस्पति नहीं, प्राणवायु नहीं, वहाँ उन्होंने धूनी लगाई। दूसरे सारे भगवान् अपने शरीर के जतन के लिए न जाने क्या-क्या द्रव्य लगाते हैं। शिव केवल भभूत का इस्तेमाल करते है। उनमें रत्ती भर लोक दिखावा नहीं है। शिव उसी रूप में विवाह के लिए जाते हैं, जिसमें वे हमेशा रहते हैं। वे साकार हैं, निराकार भी। इस इससे अलग लोहिया उन्हे गंगा की धारा के लिए रास्ता बनानेवाला अद्धितीय इंजीनियर मानते थे।

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शिव न्यायप्रिय हैं। मर्यादा तोड़ने पर दंड देते हैं। काम बेकाबू हुआ तो उन्होने उसे भस्म किया। अगर किसी ने अति की तो उनके पास तीसरी आँख भी है। दरअसल तीसरी आँख सिर्फ ‘मिथ’ नहीं है। आधुनिक शरीर शास्त्र भी मानता है कि हमारी आँख की दोनों भृकुटियों के बीच एक ग्रंथि है और वह शरीर का सबसे संवेदनशील हिस्सा है, रहस्यपूर्ण भी। इसे ‘पीनियल ग्रंथि’ कहते हैं। यह हमेशा सक्रिय नहीं रहती पर इसमें संवेदना ग्रहण करने की अद्भुत ताकत है। इसे ही शिव का तीसरा नेत्र कहते हैं। उसके खुलने से प्रलय होगा। ऐसी अनंत काल से मान्यता है।

शिव का व्यक्तित्व विशाल है। वे काल से परे महाकाल है। सर्वव्यापी हैं, सर्वग्राही हैं। सिर्फ भक्तों के नहीं देवताओं के भी संकटमोचक हैं। उनके ‘ट्रबल शूटर’ हैं। शिव का पक्ष सत्य का पक्ष है। उनके निर्णय लोकमंगल के हित में होते हैं। जीवन के परम रहस्य को जानने के लिए शिव के इन रूपों को समझना जरूरी होगा, क्योंकि शिव उस आम आदमी की पहुँच में हैं, जिसके पास मात्र एक लोटा जल है। इसीलिए उत्तर में कैलास से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम् तक उनकी व्याप्ति और श्रद्धा एक सी है.

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अभिषेक उपाध्याय

Abhishek Upadhyay : शिव आज फिर से…निरंतर शिव…। शिव। मुझे आज तक इनसे बड़ा क्रांतिकारी कोई नही लगा। कदम कदम पर। मान्यताओं। प्रतीकों। बिम्बों को तोड़ते शिव। शिवत्व के सांचे में समय को ढालते शिव। नित नए प्रतिमान गढ़ते शिव। शिव को आपने आभूषणों, अलंकारों से सुसज्जित कहीं नही देखा होगा। देवत्व की कुलीनता उन्हें छू भी नही सकी है। मेरी नज़र में शिव इस सृष्टि के पहले समाजवादी हैं। पहले और सच्चे समाजवादी। कालिदास की अमर कृति है, रघुवंशम। राजा दिलीप से लेकर अग्निवर्ण तक। रघुकुल वंश के बीस राजाओं का वर्णन है। इसमें रघु भी हुए। अज भी। दशरथ और राम भी। राम मर्यादा पुरूषोत्तम कहलाए। मगर वे क्रांतिकारी नही थे। वे समाजवादी भी नही थे।

अपनी मर्यादा के चरमोत्कर्ष में भी वे एक राजा ही थे। एक यशस्वी राजा। उनकी मर्यादा की परिभाषा बहुत हद तक पारिवारिक और सामाजिक है। मर्यादा उनके लिए आचरण कम, तमगा अधिक है। इसी तमगे को बचाए रखने की खातिर वे सीता को अग्नि की लपटों में उतरने को विवश कर देते हैं। इतिहास ने देवत्व को इतना लाचार कभी नही देखा। वो भी एक दुर्बल समाज की मान्यताओं के संरक्षक के तौर पर। राम पूरी उम्र परिवार और समाज की मर्यादा के मुताबिक चलते हैं। न कहीं विद्रोह करते हैं। न कोई सृजन करते हैं। वे कुछ नया नही गढ़ते। उनका रघुवंश एक रोज़ पतित और कलंकित होकर खत्म हो जाता है। इस वंश का अंतिम शासक अग्निवर्ण पतन और कलंक की भयानक सीमा को छूते हुए। ये साबित कर देता है कि समाज की सूखी टहनियों पर टिकी राम की मर्यादा टहनियों के जर्जर होते ही टुकड़े-टुकड़े हो बिखर जाती है। वहीं शिव अपने हर पल में मौलिक हैं।

नवीन हैं। प्रयोगशील हैं। उनका संसार। हम सबका संसार है। न अयोध्या। न लंका। न द्वारिका। न इंद्रप्रस्थ। कोई सांसारिक वैभव नही। कोई भौगोलिक सीमा नही। जटा। जूट। भस्म। वनस्पतियां। श्मशान की राख। सर्प। सब साधारण सा। आम सा। हमारे बीच सा। हम सा। इतना सहज कि घर से निकलो नही, कि शिव दिख जाएं। वे मिल जाएं। ईश्वर क्या इतना सुलभ होता है! इतना आसान! ये तो पराकाष्ठा है। शायद यही कारण है कि मानव सभ्यता के प्रथम अवशेषों में शिव समाहित हैं। लगभग 5000 से 8000 साल के बीच की सिंधु घाटी सभ्यता के मोहन जोदड़ो नगर में शिव हैं। मोहन जोदड़ो। सिंधी भाषा में। मुर्दों का टीला। इसकी खुदाई में मिली पशुपति की मुहर शिव की मुहर है। ये मानव की आरंभिक चेतना में शिव के होने का उदघोष है। मानवता की अनंत यात्रा में शिवत्व की अपराजेयता का पाथेय है। शिव को सृष्टि का संहारक माना गया है।

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मगर वे मेरी नज़र में सबसे बड़े सृजनकर्ता हैं। ये विनाश ही तो है जो सृजन का ‘स्पेस’ तैयार करता है। शिव ही इस सृजन के कारक हैं। शिव सृष्टि के आदिम प्रेमी हैं। कालिदास की कुमार संभव उमा के प्रति उनके प्रेम का चरमोत्कर्ष है। शिव सभी के हैं। अछूतों। दलितों। वंचितों के घरों में भी। खूंटा गाड़कर बैठ जाते हैं शिव। संसार की सबसे बड़ी समाजवादी पूजा-पद्धति है, शिव की पूजा। बस एक पत्थर। एक लोटा जल। कहीं भी पूज लो शिव को। कहीं भी धूनी रमा लो। कहीं भी जी लो उन्हें। आज महाशिवरात्रि है। शिवोऽहम् में लीन हो जाने की रात्रि है। सूरज इस सृष्टि में अगर कहीं है तो इसी रात्रि में है। अंधेरे की गुफाओं में किसी ऐश्वर्य सा दमकता हुआ। शिव अर्धनारीश्वर हैं। नारी-पुरुष की समानता के सिद्धांत के आदि प्रणेता हैं। ये शिव और उमा के मिलन की रात्रि है।

डा. अजित

डॉ. अजित : शिव: हे शिवप्रिया! तुम नित्य और अनित्य के मध्य सुरभित चैतन्य रागिनी हो। तुम्हारी शिराओं के स्पंदन से नाद प्रस्फुटित होता है। तुम्हारी चेतना के स्रोतों से बहनें वाली ऊर्जा देह और मन का शंकुल बनाती है। तुम विपर्य को भी जीवंत सिद्ध करने मे समर्थ हो। अनंत के विस्तार का केन्द्र तुम हो और सृजन के समस्त शिखर तुम्हारे गुरुत्वाकर्षण सें संतुलन साधे हुए है। तुम्हारी व्याप्ति प्रति प्रश्नों के संभावित उत्तर को गुह्य अवश्य रखती है परंतु अखिल ब्रहामांड की बिखरी चेतनाएं इसी गुह्यता से अभिप्रेरित हो प्रकृति के विषयों से आरम्भ में चमत्कृत होती है फिर तत्व का अंवेषण करती हुई आत्म के सच का साक्षात्कार करती है। तुम दृष्ट भाव में रहकर चेतनाओं की यात्राओं का मात्र अवलोकन ही नही करती हो बल्कि उनके अंदर एक सिद्ध सम्भावना का बीज भी कीलित करती हो। प्राय: लोकचेतनाओं में तुम्हारी अंशधारित उपस्थिति तटस्थ नजर आती हैं मगर तुम तभी तक तटस्थ रहती है जब तक कोई विस्मय और चमत्कार के ऐन्द्रजालिक अनुभवों से मुक्त नही हो जाता है। चेतनाओं के इस मुक्ति के बाद तुम उन्हें वह मार्ग दिखाती हो जो देवत्व से परें ब्रहमांड को अनुभूत करने का अनिवार्य मार्ग है। कोई भी यात्री तुम्हारी सहायता के बिना स्व से आत्म की यात्रा को नही कर सकता है इसलिए तुम सदैव अनिवार्य और अपरिहार्य हो।

शक्ति: हे महादेव ! आप साक्षात पुरुष प्रकृति के समंवय के सूत्रधार हो। आपकी भूमिका पर इसलिए भी टीका असम्भव है क्योंकि आप कोई एकल चेतना नही हो। आप मुक्त और सिद्ध चेतनाओं का एक समूह हो जो शून्य और अनंत के मध्य बिखरें अस्तित्व के गूढ रहस्य को जानते है। प्राय: आपको मौन या तटस्थ इसलिए देखा जा सकता है क्योंकि आप हस्तक्षेप से मुक्त हो। आपके विस्मय मे भी एक छिपा हुआ विस्मय होता है इसलिए प्राय: मै कोई प्रश्न नही करती क्योंकि प्रश्न स्वयं मे उत्तर लिए होता है। मेरी भूमिका आपका विस्तार नही है और ना ही मै समानांतर ही हूं। दरअसल जहां आप आरम्भ होते है वहां मै संतृप्त होती हो और जहां से मै दृश्य मे सम्मिलित होती हूं वहां मुझे खुद मेरी भी छाया नही दिखाई देती है इसलिए मेरी एक स्वतंत्र यात्रा है परंतु इस स्वतंत्रता में भी आपके अंशों की रेखाएं मुझसे मेरा क्षेम पूछती है और यही बोध मुझे योगमाया से मुक्त भी करता है। आप दिगम्बर और चैतन्य है इसलिए काल गणना और देह तत्व से मुक्त है आपके स्पर्शों में तत्व और मीमांसा के सूत्र है जिनका पाठ आभासी मुक्ति से वास्तविक मुक्ति की यात्रा में लोकचेतनाओं के अत्यंत आवश्यक है। ब्रहम के अंश और भ्रम के दंश को समझनें के लिए आपका उदबोधन अनिवार्य है। मै आपके आत्मिक सम्बोधन की ऋचाओं में अव्यक्त सूक्त तलाशती हूं ताकि समंवय के समय चेतनाओं को और अधिक परिष्कृत कर सकूं। आप अपनें सरलतम रुप में इसलिए उपलब्ध है ताकि चेतनाओं के वर्गीकरण में मुझे कोई असुविधा न हो इसलिए आप मेरे लिए भी अनिवार्य अपरिहार्य ही है।

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‘शिव-शक्ति संवाद: माध्यम शायद मैं’

Vijay Tripathi शिव तो प्रयोगधर्मी हैं ही, शिव के साथ उनके भक्तों ने भी खूब प्रयोग किये, या कहें taken for granted हैं। उनके हजार नाम भी जब कम पड़ने लगे तो उनके और नामकरण किये जाने लगे। मसलन, कोतवालेश्वर, खसतेश्वर, झगड़ेश्वर आदि। मंदिरों में उनके इन नामों की नेमप्लेट भी लग गई। कितने भोले हैं ये देव।

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वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा, अभिषेक उपाध्याय, डा. अजित और विजय त्रिपाठी की एफबी वॉल से.


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1 Comment

1 Comment

  1. Piyush

    March 4, 2019 at 7:20 pm

    बहुत ही सुंदर वयाख्यान। राम के बारे में अधूरी जानकारी। शिव भी राम का जाप करते और राम शिव की पूजा। दोनो की तुलना मूर्खता है।

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