Soumitra Roy : अर्नब को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिलनी थी, सो मिल गई। लेकिन इसके पीछे सुप्रीम कोर्ट का जो तर्क है, वह हैरतअंगेज़ है। इसे यूं समझें। एक बाप के दो बेटे थे। बड़ा बेटा ढीठ, तुनकमिजाज और कुतर्की। छोटा वाजिब सवाल पूछने वाला।
दोनों के बीच जब बहसबाज़ी होती तो ढीठ अपनी शिकायत लेकर बाप के पास पहुंचता और जीत उसी की होती। व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सवाल जो था। दूसरे को उसके सवालों के लिए अक्सर डांट खानी पड़ती और कभी सज़ा भी मिलती। एक दिन बड़े ने सरेआम बाप की इज़्ज़त उतार दी। बाप खून के आंसू पीकर रह गया।
अर्नब के मामले में सुप्रीम कोर्ट को व्यक्तिगत स्वतंत्रता की हद पहले तय करनी थी। फिर देखना था कि क्या लक्ष्मण रेखा तोड़ी गई है? जब भी प्रेस या मीडिया की लक्ष्मण रेखा तय करने का मौका आता है तो सरकारें यह कहकर पीछे हट जाती हैं कि ऐसा करना सेंसरशिप लगाने जैसा होगा।
लेकिन जब भी कोई पत्रकार सरकार की नाक के नीचे चल रहे गैरकानूनी खेल को उजागर करता है, उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाती है। गाहे-बगाहे सरकार उसे उठा लेती है या फिर वह माफिया का निशाना बन जाता है।
क्या करना चाहिए और क्या नहीं- यानी नियम और शर्तें किसी भी कानून को एक तय सीमा में मज़बूत ही करती है। जब सरकार यह सीमा तय न करे और प्रेस की आज़ादी को स्वनियंत्रण के हवाले कर दे तो इसमें उसका हित भी शामिल होता ही है।
सरकार को अर्नब से कोई परेशानी नहीं, क्योंकि वे सरकार के हित साधक हैं। आज कोर्ट ने भी दिखा दिया कि अर्नब ज़्यादा जरूरी हैं, बनिस्बत पत्रकारिता का वास्तविक निर्वहन करने वालों के।
कोर्ट ने आज यह भी बता दिया कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता सिर्फ अर्नब जैसे चंद VVIP लोगों की जागीर है। इसके लिए सरकार का भोंपू बनना होगा। सुप्रीम कोर्ट बार-बार दिखा रही है कि अर्नब जैसों के लिए उसके दरवाज़े हमेशा खुले हैं। जज भी तैयार हैं और कथित न्याय भी। बाकी चाहें तो अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को एक रुपए के सिक्के के बराबर समझें।
उधर, स्टैंडअप कॉमेडियन कुणाल कामरा के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई को अटॉर्नी जनरल ने आज मंज़ूरी दी है। लेकिन इससे सुप्रीम कोर्ट की गिरती साख में इज़ाफ़ा नहीं होने वाला। कल अर्नब गोस्वामी की अंतरिम जमानत के मामले में बहस के दौरान वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने केरल के पत्रकारों को हाथरस जाते पकड़े जाने का मुद्दा उठाया। सिब्बल ने कहा कि इस मामले में अनुच्छेद 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया गया था। याचिका 4 हफ़्ते तक लंबित रही। फिर कहा गया- निचली अदालत में जाओ।
जस्टिस चंद्रचूड़ और इंदिरा बनर्जी की बेंच ने सिब्बल के बयान पर कुछ नहीं कहा। क्यों?
दरअसल, इसी क्यों का जवाब कुणाल ही नहीं, बहुतेरे लोग मांग रहे हैं। सभी को महसूस हो रहा है कि न्याय की देवी आंखों पर पट्टी बंधी होने के बावज़ूद यह देख सकती है कि याचिका किसने लगाई है? उसका रसूख़ कितना है? उसके हाथ में लटकता तराज़ू सबूतों को तौलने के लिए नहीं, बल्कि संतुलन बनाने का जतन है। 80 साल के कवि वरावरा राव, 84 साल के फादर स्टैन स्वामी और 59 साल की सुधा भारद्वाज की तस्वीरें सुप्रीम कोर्ट को विचलित नहीं करती? शायद इसलिए, क्योंकि इनका ज़िक्र मीडिया में कम होता है। लेकिन अकेले भारत में 3 लाख से ज़्यादा विचाराधीन कैदी हैं।
इन 3 लाख मामलों की फ़ाइल का वजन अर्नब की फ़ाइल से कम है। इनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और संविधान प्रदत्त अधिकार भी नगण्य हैं। ये तारीख का इंतज़ार करते जेल में आधी ज़िन्दगी बेशक गुजार दें, लेकिन अर्नब जैसे लोगों की व्यक्तिगत आज़ादी पर आंच आई तो कोर्ट चुप नहीं रहेगी। ये सेलेक्टिव सोच अमीर-ग़रीब, अगड़े-पिछड़े और खासो-आम के रूप में भारत की न्याय व्यवस्था की जड़ों को खोखला कर रही है। फिर भी अगर कुणाल के दर्द को सुप्रीम कोर्ट अवमानना मानता है तो समझें देश दुर्भाग्य के रास्ते पर और आगे बढ़ चुका है।
Samarendra Singh : अर्नब को जमानत देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करता हूं। रिया चक्रवर्ती और फिल्मी सितारों पर अर्नब ने जो टिप्पणियां की हैं, मैं उनका विरोध भी करता हूं। बावजूद इसके किसी राज्य सरकार को असंवैधानिक तरीके से ताकत का इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है। मीडिया और सत्ता में बैठे लोगों की किसी भी लड़ाई में, चाहे वो व्यक्तिगत या सियासी ही क्यों नहीं हो… सत्ता में बैठे लोगों को सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल करने की छूट नहीं दी जा सकती है। पुलिस और जांच एंजेसियों के जरिए उसे झूठे मुकदमों में फंसाने की छूट नहीं दी जा सकती है। वैसे कपिल सिब्बल क्या कर रहे थे इस मामले में? कपिल सिब्बल की मौजूदगी अपने आप में इस मामले में राज्य सरकार की भूमिका संदेहास्पद बनाती है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि उद्धव ठाकरे की सरकार ने असंवैधानिक तरीका अपनाया है।
Rahul Pandey : अर्णब की सुप्रीम कोर्ट में जो सुनवाई चल रही है, उसमें जस्टिस चंद्रचूड़ बोले कि उन्हें सीजेआई ने कहा है कि इस मामले को देखें कि सबके साथ बराबरी से न्याय हो। यानी कल से जो यह आरोप लग रहा है, वह सही ही है कि रजिस्ट्री से पहले अर्णब गोस्वामी केस के लिए खुद सीजेआई ने लाइन तोड़ी। वरना 306 के तहत गिरफ्तारी से राहत पाने के लिए ढेरों मामले सुप्रीम कोर्ट में धूल फांक रहे हैं।
इस बीच जस्टिस चंद्रचूड़ ने यह भी टिप्पणी की कि सरकारें अब ट्वीट करने के लिए लोगों को उठा रही हैं। उन्होंने बंगाल सरकार का एक उदाहरण दिया, जिसमें दिल्ली की महिला को ट्वीट करने के लिए बंगाल पुलिस अरेस्ट करने आई थी, जिसे सुको ने रोक दिया था। यूपी में योगी आदित्यनाथ ट्वीट करने के लिए पत्रकारों को जेल में रख रहे हैं, यह बात शायद जस्टिस चंद्रचूड़ के जेहन से उतर गई होगी, या फिर जज साहब को चुनावों के चलते सेलेक्टिव उदाहरण रखने का निर्देश भी शायद सीजेआई साहब ने ही दिया होगा!
Cks
November 13, 2020 at 9:15 pm
Bakbas