जया निगम-
दि ग्रेट इंडियन किचेन फिल्म कल प्राइम पर देखी. इसे देखना और सोचना लगातार चलता रहा. ये फिल्म कब एक नये शादीशुदा जोड़े की जिंदगी और उनके किचेन से निकल कर, हमारे अपने घर, हमारी अपनी जिदगियों में पहुंच जाती है, पता ही नहीं चलता.
एक औरत की किचेन के इर्द-गिर्द सिमटी जिंदगी के बहुत सारे दृश्य इतने डीटेल के साथ आते हैं, कि उन्हे बार-बार देखना ही झुंझलाहट पैदा करने लगता है. साथ ही ये भी समझ आता है कि ये झुंझलाहट इसीलिये है क्योंकि इसे लगातार अपने आस-पास देखते हुए नज़रंदाज करने की जो आदत बनी हुई है वो इस फिल्म के दृश्यों के जरिये, शरीर में पूरी कड़वाहट के साथ फैल रही है और इस फिल्म में उसे नज़रंदाज करना मुमकिन नहीं है.
इस डिटेलिंग के बाद भी फिल्म में जड़ता नहीं आती क्योंकि औरत का कैरेक्टर रिबैलियस है, वो घर की चाहरदीवारियों से समझौता करके घर के अंदर सिमटने के बजाय, एकदम मजबूत कदम उठाते हुए ना केवल उस घर को छोड़ती है बल्कि घरेलू औरत की जिंदगी को कचरे से ऊपर ना उठने देने वाले घर के पुरुषों के सबसे हौलनाक सपने को सच कर देती है जब स्वामी अयप्पा की आराधना करने वाले पुरुष उस गंदे पानी की बदबू को ग्लास में चाय समझ कर केवल एक बार में ही औरत को उसकी औकात बताने के लिये पुरुष बन कर झपटते हैं, तो इस फिल्म का सबसे रोमांचक दृश्य आता है.
यहां तक फिल्म बहुत दमदार है, शानदार है, अपनी हर डिटेलिंग के साथ बेहद भव्य भी जो साधारण जिंदगी में मौजूद सादगी और लंपटता दोनों को एक साथ रेखांकित करती है. इन सबके बावजूद ये फिल्म, आइडिया के लेवेल पर पुरानी लगती है.
साल 2017 में आयी, मसान के निर्देशक नीरज घेवान की फिल्म ‘जूस’ में शेफाली शाह लगभग यही कहानी उत्तर भारतीय मिडिल क्लास औरत के नज़रिये से कहती है. जहां फिल्म का अंतिम दृश्य शेफाली शाद के पुरुषों के सामने पंखे की हवा लेते हुए जूस के घूंट भरते हुए खत्म हो जाता है. यही उत्तर भारत में औरत के सामाजिक विद्रोह की सीमा है क्योंकि घर के बाहर उत्तर भारतीय औरत के लिये सार्वजनिक जीवन यानी पैसे कमाते हुए अपनी पसंद का जीवन जीना इतना आसान नहीं.
केरल की कहानी औरतों के मामले में यहीं अलग है, राज्य की अर्थव्यवस्था में औरतों का बड़ा हिस्सा काम करता है इसलिये वहां ये कहानी उस औरत के स्कूल में डांस सिखाते हुए अपने मन की जिंदगी जीने के साथ खत्म होती है.
यहां गौर करें तो बॉम्बे बेगम और इज दि लव एनफ, सर इस फिल्म से आगे की कड़ियां हैं. जूस, दि ग्रेट इंडियन किचेन और थप्पड़ जैसी फिल्में घर की जिस चाहरचीवारी को औरत को लांघने के लिये कह रही हैं या उकसा रही हैं, वो दरअसल यहां खत्म नहीं होतीं.
इसके आगे की पीढी या उसी औरत के आगे की जिंदगी घर से बाहर निकलते ही या देश की अर्थव्यवस्था यानी सार्वजनिक जीवन में पेड लेबर बनते ही हमेशा प्यार की गुलाबी या आज़ादी की भव्य तस्वीर में नहीं बदल जाती.
प्यार, बराबरी, सम्मान के लिये शोषण के घरेलू जाल को काटकर निकली औरत जब बाहर की दुनिया में अपने कदम रखती है तो क्या सब कुछ इतना आसान होता है, दि ग्रेट इंडियन किचेन यहीं खत्म हो जाती है लेकिन इस कहानी को आज के समय में इस तरह से खत्म करना, फिल्म को ओवर सिंप्लीफाई करना है.
काश कि जिंदगी इतनी आसान होती पर हमारा समाज 90 के दशक में ही इस डिटेलिंग से आगे बढ़ चुका था. और अब तो हम ऐसे युग में जिंदा हैं जब सार्वजनिक जीवन में औरते लगातार अर्थव्यवस्था से पीछे धकेली जा रही हैं.
वो औरतें जो अपना एक मुकाम हासिल कर चुकी थीं, वो औरतें जिनकी दो तीन जेनरेशन काम करने वाली अपनी पिछली पीढी को देख चुकी है, उसे ये कहानियां पता हैं, क्योंकि अब भी उसके घर काम करने वाली औरत का वर्तमान वहीं सिमटा है जहां आज की काम काजी औरतों का खत्म हो रहा है.
उन औरतों के लिये या इस बीच बदले उनके आदमियों के लिये इस फिल्म में क्या नया है?
नोट- इस पोस्ट का उद्देश्य ‘दि ग्रेट इंडियन किचेन’ जैसी फिल्मों की स्टोरी लाइन को खारिज करना नहीं हैं, अब भी देश का बड़ा हिस्सा इन्ही कहानियों में सिमटा है, इसलिये इसकी प्रासंगिकता से बिल्कुल इंकार नहीं किया जा सकता इसके बावजूद आइडिया के लेवेल पर, कथ्य के लेवेल पर, डिजाइन के लेवेल पर कौन सी फिल्म क्या कह रही है और कैसे कह रही है, उसे रेखांकित करना जरूरी है.